दोनों बहने पीछे से आकर मुझसे आगे निकलने लगी, तो मैंने उन्हें रोका और कहा,’’मैं तो आज मर जाऊँगी, तुम मेरी बेटी उत्कर्षिणी को प्यार से पाल लोगी न।’’दोनो कोरस में बोलीं,’’चुपचाप, चलती रहो। अपनी बेटी को तुम्हीं पालोगी।’’और आगे निकल गई। कुछ लौटने वाले युवा मेरे पास से गुजरते हुए बोल जाते,’’दीदी, आप तो हर हफ्ते पैदल बाबा के दर्शन करने आया करो, एकदम स्लिम ट्रिम हो जाओगी।’’मैं उनके सुझाव पर हंस देती और मन ही मन कहती कि आज बचूंगी, तभी तो आऊँगी न। चलते चलते मेरे तेजी से पसीने छूटने लगे और आँखों के आगे अंधेरा छाने लगा। मैं बैठ गई। ऐसा चूने वाला पसीना मुझे कभी नहीं आया। एक श्रद्धालू मेरे पास आकर बैठ गया, उसने अपने बैग से थरमस निकाला और उसके ढक्कन में भर कर मुझे गर्म तेज मीठे की चाय दी। मैं चाय पीती जा रही थी और मेरी तबियत सुधरती जा रही थी। चाय खत्म होते ही उसने र्थमस पर ढक्कन लगाया और ये जा, वो जा, मैं तो उसे धन्यवाद भी नहीं कर सकी। अब मैं चलने लगी और साथ ही मेरे दिमाग में विचार भी चलने लगे।
मैं एक साधारण महिला हूं। हमेशा संयुक्त परिवार में रहीं हूं। परिवार के एक सदस्य से नाराज़ होती हूँ तो दूसरे से मेरी पटने लगती है। इसलिये मुझे बहुत सारे भगवान पसंद हैं। एक भगवान जी मेरी मनोकामना पूरी नहीं करते तो, मै उनसे नाराज होकर, दूसरे भगवान जी की शरण में चली जाती हूँ। उस दिन मैं बाबा से नाराज़ हो गई। मेरे साथ चलने वाले एक साधू से मैंने गुस्से से कहा कि नीलकंठ बाबा को क्या जरूरत थी, इतनी दूर आने की? जिसके जवाब में उन्होंने कहा कि समुद्र मंथन से जो कालकूट विष निकला, उसे भोले नाथ ने पी लिया, पार्वती जी ने उनका गला इस तरह दबाया कि विष गले में ही अटक गया, जिससे उनका विष के प्रभाव से कंठ नीला पड़ गया और उनका नाम नीलकंठ पड़ गया। कैलाश पर्वत पर जाने से पहले उनका यहीं वास था। विष के कारण उनका माथा भी गरम रहता था। जल चढ़ाना श्रद्धालुओं का उनके प्रति प्रेम है। फिर इशारे से कहा कि वो देखो, दूर देख रही थी, एक महिला हाथ में हंसली ले, एक पेड़ की शाखा पर छिपकली की तरह चिपकी हुई, दराती से पतली पतली टहनियाँ काट काट कर पीछे की ओर फैंकती जा रही थी और पीछे वाली कैच करती हुई, साथ आई बकरियों को डालती जा रही थी। मुझे देख कर ऐसा लगा कि अगर वो शाखा टूट जाती, तो नीचे खाई में उस महिला का मिलना मुश्किल था। तुरंत मेरे दिमाग में प्रश्न आया कि ये भी तो महिलाएँ हैं। बकरियों का पेट भर रहीं हैं और घर में इनको खिलाने के लिये गठृठर बाँध कर ले भी जायेंगी और घर जाकर गृहस्थी के काम भी निपटायेंगी। एक मैं हूँ, अपने आप को ले जाने में भी हाय! तोबा मचा रखी है। ऐसा क्यों? इस सबका कारण था मेरी सोच। मेरा मानना था कि इनसान कमाता किस लिये है? अपने आराम के लिये। इसलिये मुझे पानी का गिलास भी अपने आप लेकर पीना अच्छा नहीं लगता था। जरा सी दूरी भी मैं पैदल नहीं नापती थी। आज बहुत जल्दी जिसका परिणाम मुझे मिल रहा था और मेरी समझ में खूब अच्छी तरह आ रहा था कि कलम चलाने के साथ शरीर का चलना भी जरूरी है। मैंने मन ही मन तोबा कर ली कि भगवान जी, अगर घर लौट गई तो सबसे पहले शरीरिक श्रम से अपना स्टैमिना बढ़ाऊँगी। अब पता नहीं कहाँ से लंगूर आकर मेरे साथ चलने लगे। थोड़ी देर सुस्ताने के लिये बैठी, तो वो भी बैठ गये। मैं डर गई तो साधू महाराज बोले’’ ये किसी को कुछ नहीं कहते।’’ उठ कर थोड़ा सा चली तो उतराई शुरू हो गई। साधू महाराज ने समझाया कि आगे झुक कर नहीं उतरना। क्रमशः