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Tuesday, 2 October 2018

मैंने जात नहीं, पानी मांगा साबरमती आश्रम यात्रा भाग 1 SABERMATI नीलम भागी


किसी आवश्यक काम से डॉ. शोभा भारद्वाज और मैं अहमदाबाद जा रहे थे। वहां सुबह दस बजे हम पहुंच कर, रात रूक कर, अगले दिन शाम को हमें लौटना था। हमारी नौ और बारह न0 सीट थी। 10,11,13,14 न0 सीट पर आई.टी. के युवा लड़के थे। वे बैंगलौर में नौकरी करते थे। गुजरात में चुनाव था और उनके घर आने का मकसद, घर आने के साथ साथ मतदान का प्रयोग था। 15 न0 सीट पर कोई रिर्पोटर चुनाव की रिर्पोटिंग के लिए जा रहा था। 16 न0 वाला लोकल अहमदाबाद का था। राजधानी गाड़ी थी। शोभा राजनीति में डॉक्टरेट, चाय पे चुनाव चर्चा शुरू हुई जो रात आइसक्रीम मिलने तक चली। रिर्पोंटर और शोभा कोई न कोई टॉपिक उछाल देते, युवा लाल पीले होकर उस पर बहस करते रहते। राजनीति की कम समझ  रखने वाली मैं, बीच बीच मेंं पता नहीं क्या बोल जाती, सब हंसने लग जाते। रिर्पोटर सोने से पहले मुझे से बोला कि अहमदाबाद में मैं आपकी उस लोकेशन में कुछ बाइट्स लूंगा। मैंने कहा कि मैं दे दूंगी, कहकर सो गई।  सुबह नाश्ते के समय पता नहीं कहाँ से बहस में गांधी जी आ गये। 16 न0  वाले के अंदर, न जाने  कितना बापू के प्रति विष भरा हुआ था! वह बोला कि वह रोज साबरमती आश्रम के आगे से गुजरता है। लेकिन वह कभी उसके अंदर नहीं गया। मैंने उससे आश्रम जाने का रास्ता समझा और वहाँ से अहमदाबाद कैसे जाना है समझा। ऑटो टैक्सी के रेट समझे। साबरमती स्टेशन के आते ही, मैंने शोभा से कहा कि हमें उतरना है। उसने छोटी की आ़ज्ञा का पालन किया। हम उतर कर स्टेशन से बाहर आये। ऑटो वाले से साठ रूपये में साबरमती आश्रम के लिये भाड़ा तय किया और पहुँच गये बापू धाम। हम बहुत खुश थीं। शोभा तो बापू को जीवन भर पढ़ती आई है और उन पर लेख लिखती है। मैं उससे सुनकर और उनके लेखों और बचपन से आस पास के माहौल के कारण बापूमय हूं। मैंने नानी दादी को  खाली समय में हमेशा चरखा कातते देखा था। बड़े मामा को छोड़ कर छोटे तीनों मामा को जीवनपर्यन्त खादी पहने देखा था। कपूरथला मेंं छोटे मामा निरंजन दास जोशी, वे बैंक मैनेजर थे। बैंक भी खादी की धोती कुर्ता और टोपी लगा कर जाते थे। उनके  संपर्क मेंं ज्यादा रहीं थीं इसलिए मेरा भी खादी से बहुत लगाव है। मेरठ में हमारे पड़ोस में एक विधवा महिला सुबह सुबह जल्दी से घर के काम निपटा कर, चरखा कातने  बैठ जाती थी। चरखे के लोकगीत गुनगुनाती रहती और हाथ चलाती रहती थी। दोपहर में पास पड़ोस की महिलाएं इस चरखे वाली मौसी के पास जाकर बतियाने बैठ जातीं। अब वह सुनने का भी काम करती पर परिवार की जिम्मेवारियां उसे हाथ रोकने की इजा़जत नहीं देतीं थीं। मेरी दादी हमेशा कहती कि गांधी चरखे ने इसके बच्चे पाल दिये। दादी का अपने काते सूत से सब नाती पोतियों को शादी में देने के लिए एक एक खेस बनाने का मिशन था। जिसमें वह लगी रहती थीं। नानी ने एक एक दरी देने की ठानी थी। हमारे दोनों परिवारों में इसलिये चरखा जरूर चलता था। ये महिलाएं और इनकी सहेलियां मजा़ल है, अपना एक मिनट भी व्यर्थ कर दें। इनका कहना था कि जब इतना विलायत का पढ़ा, महात्मा गांधी चरखा कात सकता है तो हमने तो स्कूल की शक्ल भी नहीं देखी। इसमें सबको मोटिवेट करने में,  मेरी दादी का भी बड़ा योगदान था। वह पढ़ना जानती थी, लिखना नहीं। अखबार या कुछ भी छपा हुआ ले जाकर, उन्हें पढ़ कर सुनाती, विषय उनका चरखा और गांधी ही होता था। मुझे वह हमेशा साथ रखती थी ताकि अम्मा घर के काम निपटा ले। दादी गांधी जी से इतनी प्रभावित थीं कि शाम चौरासी (पंजाब में हमारा गांव), इलाहाबाद और मेरठ जहाँ भी रहीं, उन्होंने महिलाओं को चरखे में व्यस्त रक्खा। यही कारण है कि गांधी जयंती पर आयोजकों के आमंत्रण पर मैं कोशिश करती हूं,  सब जगह पहुंचने की। बापू पर सबके विचार सुनना मुझे अच्छा लगता है। गांधी पिक्चर को मैं जब भी देखती हूं, ऐसे देखती हूं, जैसे पहली बार देख रहीं हूं। साबरमती आश्रम जाये बिना मैं भला कैसे रह सकती थी!! क्रमशः