Search This Blog

Monday, 28 January 2019

ठाकरे फिल्म रिव्यू Thakeray Film Review नीलम भागी

 ठाकरे फिल्म रिव्यू
         नीलम भागी
कलाकार  नवाजुद्दीन सिद्दिकी, अमृता राव, सुधीर मिश्रा, अनुष्का जाधव और अन्य
निदेशक  अभिजीत पानसे
बाल साहेब केशव ठाकरे की जीवन यात्रा पर संजय राउत द्वारा लिखी कहानी पर बनी फिल्म देखकर आप जरा भी निराश नहीं होंगे। एक इमोशनल कलाकार का, एक जबरदस्त जनप्रिय राजनेता बनने का सफ़र है। आपकी राजनीति में दिलचस्पी है और उनके बारे में ज्यादा नहीं जानते तब तो जरूर देखने जायें। जो उन्हें जानता है तो वह उन्हें और जानेगा।
सत्तर प्रतिशत फिल्म ब्लैक एण्ड व्हाइट है। कैमरा र्वक और लाइटनिंग का जबरदस्त उपयोग किया है। आर्टिस्ट प्रीति शील सिंह ने प्रोस्थेटिक मेकअप से नवाजुद्दीन को लगभग बिल्कुल ही बालसाहेब बना दिया। नाक कुछ अलग लग रही थी। नवाजुद्दीन ने भी अपने अभिनय से किरदार को जीवंत कर दिया है। उसने उनका लहजा, हावभाव और तल्ख अंदाज का गहन अध्ययन किया है। पिता, पुत्र, पति संवेदनशील कलाकार सबको परदे पर बखूबी जिया है। किरदार और कहानी ऐसी कि सब कुछ उनके इर्द गिर्द ही घुमता है। उनकी पत्नी मीना ताई(अमृता राव) ने दमदार  उपस्थिति दर्ज की। किसी और के बारे में ध्यान ही नहीं जाता।
एक अखबार के र्काटूनिस्ट की लोकप्रिय नेता बनने की कहानी को बड़े दिलचस्प अंदाज में दिखाया गया है। बाल साहेब को कटघरे में खड़ा किया है। उन पर आरोप लग रहें हैं मराठा राजनीति, बाबरी विध्वंस, दक्षिण भारतीयों पर हमला, मुंबई दंगे, वैलनटाइन डे का विरोध, यू. पी. बिहार के लोगों का महाराष्ट्र में विरोध, पाकिस्तान के खिलाफ, उनकी सोच को लेकर वे विवादों में क्यों रहे? क्यों कहा कि वे केवल हिंदुत्व के एजेण्डा पर चुनाव लड़ेंगे? उनके इसी पक्ष को फिल्म में दिखाया गया है। इन सब आरोपों का जवाब वे दे रहें हैं। इतने आरोपों के बाद भी वे जनप्रिय नेता रहे और महाराष्ट्र के टाइगर कहलाये। अंत तक संजय राउत जो दिखाना चाह रहे थे, उस एजेंडा से जरा भी नहीं भटके और न ही दर्शकों को कुछ सोचने का मौका दिया। कुछ सीन तो धीरे धीरे प्रसिद्ध होने के गजब, मसलन कोई घर आता है। बाल ठाकरे के पिता पूछते हैं" किससे मिलना है? वह कहता है,"बाल साहब से।" पुत्र के नाम के साथ पहली बार 'साहब' सुन पिता के चेहरे से टपकती खुशी!! वह दोबारा प्रश्न करते हैं वही जवाब। अब अंदर जाकर पिता के 'बाल साहब ठाकरे' कहने पर लाजवाब नवाजुद्दीन की प्रतिक्रिया। आपातकाल लगने पर इंदिरा गांधी से मीटिंग और भी कई न भूलने वाले सीन हैं। कहते हैं भीड़ का दिमाग नहीं होता है लेकिन फिल्म देखने से पता चला कि वे भीड़ का दिमाग थे।
मनोज यादव के लिखे डायलॉग ’लोगों के नपुसंक होने से अच्छा, मेरे लोगों का गुंंडा होना है।’ ’जब सिस्टम के शोषण के कारण, लोगों की रीढ़ पिस गई थी तो मैंने उन्हें खड़ा होना सिखाया था।’ उस मौके पर लाजवाब डायलॉग। उन्होंने दो गीत भी लिखे हैं। सैट, लोकेशन सब कहानी के अनुरूप हैं।
संगीत और साउण्ड ट्रैक रोहन रोहन, संदीप शिरोड़कर, अमर मोहिने का अच्छा है।