आशिक होने की कोई विशेष उम्र नहीं होती। फोन पर आराधना ने मुझे सबसे पहले ये वाक्य बोला। मैंने पूछा,’’क्यों क्या हुआ?’’ उसने जवाब दिया कि फोन पर नहीं, घर आ। मैंने कहा कि मैं आती हूं क्योंकि मुंहफट आराधना का सुनाने का तरीका बहुत मज़ेदार होता है। इसलिए मैंने भी जल्दी जल्दी जरुरी काम निपटा कर, बतरस करने को आराधना के घर, राजरानी की मार्किट की ओर से चल दी चल दी। सामने से श्रृंगारविहीन चांदनी टोनू मोनू को स्कूल से लिए चली आ रही थी। काने को समय का अंदाज था, उसने गाना लगा रक्खा था। ’तुम्हें कोई और देखे तो जलता है दिल, हमें तुमसे प्यार कितना ये हम नही जानते मगर जी नहीं सकते तुम्हारे बिना...।' मुझे देखते ही वह नमस्ते करके रुक गई। आंखों में उसके गहरी उदासी थी। सादगी में भी वह बहुत सुन्दर लग रही थी। कपड़े उसके पास मीनू के ही थे, उनमें और भी जचती थी। मैंने बच्चों से पूछा,’’मम्मी को तंग तो नहीं करते! जवाब में चांदनी बोली,’’दीदी इनका बचपना और घर से गाना , इनके पापा के साथ ही घर से चला गया और संगीत गली में बजने लगा। इतने में दूसरा गाना काने ने चालू किया ’डगमगा जायेंगे ऐसे हाल में कदम, आपकी कसम....’ मैंने कहा,’’अच्छा तूं घर जा, बच्चों को खाना खिला।’रास्ते भर मैं चांदनी के बारे में सोचती रही और एक ग्रामीण कथन याद आया कि ’विधवा तो वैधव्य काट ले, गांव वाले काटने दे तब न!" ये तो वैसे भी इस मौहल्ले की पैसे वाली सुंदरी विधवा है। खै़र मैं आराधना के घर पहुंची। वह बड़ी बेसब्री से मेरा इंतजार कर रही थी। मैंने आते ही उसे काने के गीत लगाने की बात बताई। उसने झट से काने के लगाने वाले गीत बता दिए। मैंने पूछा,’तुझे कैसे पता?’’ वह बोली,"जिस दिन भी मेरा और चांदनी का मेल होता है। वह मुझे सब कुछ बताती है। संतोषी को मैंने समझाया था, उसने और औरतों को समझाया। उन्होंने अपने पतियों को समझाया। तेहरवीं के बाद मर्दों ने चांदनी को अपनी बहन बेटी बता कर, उसका ध्यान रखने का बोल कर सब रिश्ते दारों को विदा किया। धीरे धीरे चांदनी में आत्मविश्वास आता जा रहा है। और ये कुमार! इसमें मुझे बड़ा चेंज़ लग रहा है। तू भी ध्यान से देखना कभी मैं ही गलत होंउं। पहले चांदनी के समय घर में ये मुश्किल से ही दिखता था। मीनू ने इसको गधा बना रक्खा था। प्रतियोगी परीक्षाओं के कोचिंग सेंटर में मैथ्स की क्लासेस लेता रहता था। ताकि दो पूतोंवाली मीनू की पसंद का ताजमहल खड़ा हो जाये। खड़ा भी कर लिया। अब बहुएं तो ताजमहल के स्टैर्ण्डड की आईं। उन्हें क्या मतलब कि इन्होंने कैसे ताजमहल बनाया! उन्होंने पतियों की समझदार मां को कमीनी का टाइटल दे दिया। मीनू ने कह दिया कि अगर वह बहुओं जैसी खर्चीली होती तो भला ताजमहलनुमा कोठी बनती! न.. न .न..। मीनू की समझदारी से ये फ्लैट खरीदा गया था। कुमार ने अतिरिक्त आय के लिए पढ़ाना बंद कर परिवार की शांति के लिए मीनू को लेकर यहां आ गये। सब अपने अपने ढंग से जीने लगे। हुआ यूं कि मीनू के बाद एक दिन दरवाजा खुला था, कुमार घर में घुसे। चांदनी पसीने से नहाई हुई, पोछा लगा रही थी। कुमार ने पंखा चला दिया। चांदनी चौंक कर बोली,’’मास्टर जी पंखा क्यों चलाया? मैडम जी ने मना किया था कि पंखा चला कर फर्श नहीं सुखाना, बिजली की बरबादी है। थोड़ी देर में अपने आप सूख जाता है।’’ कुमार मुस्कुराकर बोले,’’ बिजली बेकार जलाने को मना किया होगा, गर्मी में पंखा चला कर काम करते हैं, समझी। और मैं मास्टर नहीं हूं।’’ सुनकर सरोजा ही ...ही... करते हुए बोली कि पढ़ाने वाले को तो मास्टर जी कहते हैं। कुमार ने हंसते हुए कहा कि तूं मुझे सर या साहब कह दिया कर। फिर परशोतम की मौत से पहले न वे कभी घर दिखे थे और न ही कहने का मौका मिला था। वे सेवा काम के काम में ही लगे रहते थे। और अब ! क्रमशः