दुबई के रैस्टोरैंट में उत्कर्षिनी मुझे थाई फूड खिलाते हुए, उसकी विशेषताएं भी बताती जा रही थी। अचानक
उसे कुछ याद आया। वह बोली,”मां
आपको एक चीज का स्वाद चखाती हूं।“ उसने वेटर को बुला
कर वसाबी का ऑर्डर दिया। छोटे से बर्तन में बसाबी आ गई। मैंने स्वाद देखने के लिए
हाथ बढ़ाया। उत्कर्षिनी बोली,”रुको
मां, मैं आपको दूंगी और
सरसों के दाने जितनी मुझे दी।“ उसने दिया और मैंने झट से चखा। वो तो मेरे नाक कान
में अजीब सा तीखापन होने लगा, मिर्च की तरह
बिल्कुल नहीं। वसाबी असर खत्म होने पर उत्कर्षिनी ने हंसते हुए कहा कि इसलिए मैंने
अपने हाथ से आपको दिया था। चने के दाने जितनी ये सर्व करते हैं। पहली बार हर कोई
उठा कर मुंह में रख लेता है फिर उसकी हालत देखने लायक होती है। और मुझे बचपन की
बारिश में खाया एक स्वाद याद आ गया। मैं उत्कर्षिनी को बताने लगी कि प्रयागराज में
हमारे घर से तीन किमी की दूरी पर गंगा जी थी। पीछे बस्ती खत्म होते ही खेत शुरु हो
जाते थे। दसवीं में पढ़ने वाली डॉ. शोभा के साथ पढ़ने वाली सहेली कुंती के परिवार में
खेती होती थी। मेरे पिताजी सरकारी नौकरी में थे। कुंती जब भी खेतों में जाती तो आस
पास की दीदियों के साथ तीसरी में पढ़ने वाली,
मैं
भी चल देती। जाते समय कुंती सबको सामान का झोला पकड़ाती और मैं अपने हाथ से बनाई
कागज की नाव ले जाना कभी नहीं भूलती थी। वहां बैल रहट चलाता था, जाते ही ओक से उसका
ठंडा पानी हम पीते। पानी खेतों में लगाने के लिए नाली होती थी,
उसमें
मैं अपनी नाव छोड़ देती थी और धूप की परवाह किए बिना नाव के साथ साथ चलती थी। खेत
में आम के पेड़ के नीचे खपरैल का बड़ा कमरा था। उसी में ओपन किचन थी यानि सामने ही
सब कुछ, ऊंचाई पर ईंटो का
चूल्हा, सुखी लकड़ियां,
मिट्टी
और पीतल के बर्तन, सिलबट्टा आदि थे और
लालटेन, एक बहुत बड़ा तख्त भी
था। इसमें रामऔतार रहता था और खेती बाड़ी करवाता था। दीदियां उसके तख्त पर बैठी
बतियाती रहतीं थी। कुछ समय बाद मेरी नाव कहीं नाली के कटाव पर अटक जाती और उसमें
पानी भर जाता था। उसके डूबने पर मैं भी गप्प गोष्ठी में बैठ जाती। तब तक रामऔतार
खेतों से कुछ तोड़ या उखाड़ लाता। झोले का सामान निकाल कर रख लेता,
उसमें
साग सब्जी़ डाल देता था। सब दीदियां हंसती बतियाती हुई, घर आ जातीं। सावन में वह आम के पेड़ पर झूला
डाल देता। इन दिनो इंद्र देवता की कृपा
रहती है। रहट नहीं चलता था। जगह जगह वैसे ही पानी भरा रहता था। हवा की दिशा से
मेरी कागज की नाव खिसकती थी। एक बार हम गए तो लौटने के समय बारिश शुरु हो गई। ऊपर
से गिरती पानी की बूंदों की मार मेरी कागज की नाव नहीं सह पाई। वह तुरंत धराशायी
हो गई। सब खपरैल के नीचे आकर तख्त पर बैठ गए। रामऔतार अपने लिए खाना बनाते समय बोला
कि एक एक रोटी वह हमारे लिए भी पो देगा। हम चारों ने उसके तख्त पर बैठे ही बैठे, उसे कोरस
में सहमति दे दी थी। दीदियां अपनी बातों में मशगूल थीं। मैं रामऔतार को लंच बनाते
हुए देख रही थी। क्रमशः