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Friday 11 September 2020

देख तमाशा लकड़ी का नीलम भागी Dekh Tamasha Lakadi Ka Neelam Bhagi





मेरठ में अर्थी के साथ महिला पुरुष दोनो जाते थे लेकिन मंदिर पर से महिलाएं घर लौट आतीं थीं और पुरुष अंतिम निवास तक साथ जाते थे।


जब मैं नौएडा आई तो यहां महिलाएं भी अंतिम निवास तक साथ जाती थीं। मैं भी गई। यहां मैंने पहली बार हमारे सोलह संस्कारों में आखिरी कर्मकांड जो मरने के बाद परिजनों द्वारा किया जाता है, वह देखा। वहां परिजन संस्कार में लगे रहते हैं। लोग मरने वाले की अच्छाइयां बखान करने में लगे रहते हैं। मैं चुपचाप बैठी अपने पूर्वजों को याद करती हूं फिर उठ कर शमशान घाट पर लिखी इबारतों को पढ़ती रहती हूं। यहां बड़ी विरक्ति सी होने लगती है। जब परिजनों को फूल चुगने का दिन समय बता दिया जाता है। तब सब के साथ लौट आती हूं। घर तक पहुंचते वही दिनचर्या शुरु हो जाती है। सर्दियों में मेरे बहुत विद्वान संबंधी का निधन हुआ। सब कुछ वैसे ही किया जा रहा था, जैसा मैं कई सालों से आखिरी कर्मकांड देखती आ रही हूं। बस एक फर्क था उनका दाह संस्कार, विद्युत शव दाह गृह में हुआ था। हमें कुछ देर इंतजार करना पड़ा क्योंकि इस पद्धति से दाह संस्कार हो रहे थे जबकि  आसपास चिताएं भी जल रहीं थीं। जब हमारे स्वर्गीय संबंधी के दाह का समय आया तो मैं भी हॉल में गई। विद्युत शव दाह गृह के द्वार पर अर्थी को रखा गया। महापंडित ने मंत्रोचार किया| सब कुछ चिता में दाह के कर्मकांड की तरह ही उनके पुत्र से करवाया गया। दरवाजा खुला और शव अंदर, दरवाजा बंद। हम सब समवेत स्वर में गायत्री मंत्र का जाप करने लगे और बाहर आ गए। उनके तेहरवीं तक सब संस्कार जैसे किये जाते हैं वैसे किये  गये| एक दिन गढ़मुक्तेश्वर गंगा स्नान को गये। वहां चिता जल रही थी, देखा मरने वाले के परिजन वहीं थे। जब बॉडी जल चुकी तो उन्होंने सब कुछ गंगा जी में बहा दिया। यहां तक की जिस रेत पर चिता रखी और जो लकड़ी कोयले में बदल गई वो भी बहा दी। और गंगा स्नान कर वे लौट गए। कुछ महीने पहले  मैं निगमबोध घाट पर किसी के अंतिम संस्कार में गई थी। खूब गर्मी थी चिताएं जल रही थीं।

इंतजार में मैं पीछे जाकर यमुना जी को देखने लगी।

कुछ लोग वहां भी संस्कार कर रहे थे। सब जगह यमुना जी का पानी नाले जैसा है।

मैं उतर कर किनारे पर गई। देखा वहां का पानी बिल्कुल साफ था!! जबकि आस पास गंदगी थी पर पानी साफ।

अब मैं  फिर सबके पास आकर बैठ गई। क्या देखती हूं मेरे सामने चिताएं जल रहीं हैं खूब गर्मी है कुछ लोग तो नाक पर कपड़ा रख  कर जा रहे हैं| मैंने वैसे ही पीछे मुड़ कर देखा पर पीछे इतनी बड़ी जगह खाली। साफ बड़ा शेड, शव रखने की ट्रे, ऊपर चिमनियां लगी हुई। पर बिल्कुल खाली। कोई शव दाह नहीं हो रहा था। वहां र्बोड लटक रहा था जिस पर लिखा था ’मोक्षदा हरित शवदाह प्रणाली’ ’मोक्षदा’ उपकरण का अधिकाधिक प्रचार पर्यावरण व वक्षरक्षण में निश्चित ही सहायक होगा।’ पढ कर मुझे कुछ समझ नहीं आया।

वहां खड़े एक सज्जन से मैंने र्बोड की ओर इशारा करके पूछा कि जो लिखा है इसका क्या मतलब है? उन्होंने जवाब दिया कि शव दाह में ढाई कुंतल(आठ मन से ज्यादा) लकड़ी,

चंदन की लकड़ी का चूरा, देसी घी सामर्थ्यानुसार, कुल सामान की संख्या लगभग 35 है ये सब सामान अंतिम संस्कार में लगता है। लेकिन मोक्षदा उपकरण से शायद 80 या 85 किलो लकड़ी से शवदाह हो जाता है। मैंने उनसे पूछा कि र्बोड पढ़ कर, उधर इतनी भीड़, इंतजार करते लोग!! इधर खाली देख कर, मैं आपसे र्बोड पर लिखे का मतलब समझने आ गई। क्या और लोग भी समझने आते हैं? जवाब में वे शमशान के गमगीन माहौल में भी मुस्कुरा दिए। उनकी मुस्कराहट से  मेरे दिमाग में यह प्रश्न खड़ा हो गया कि वे मुस्कुराए  क्यों?