ठाकरे फिल्म रिव्यू
नीलम भागी
कलाकार नवाजुद्दीन सिद्दिकी, अमृता राव, सुधीर मिश्रा, अनुष्का जाधव और अन्य
निदेशक अभिजीत पानसे
बाल साहेब केशव ठाकरे की जीवन यात्रा पर संजय राउत द्वारा लिखी कहानी पर बनी फिल्म देखकर आप जरा भी निराश नहीं होंगे। एक इमोशनल कलाकार का, एक जबरदस्त जनप्रिय राजनेता बनने का सफ़र है। आपकी राजनीति में दिलचस्पी है और उनके बारे में ज्यादा नहीं जानते तब तो जरूर देखने जायें। जो उन्हें जानता है तो वह उन्हें और जानेगा।
सत्तर प्रतिशत फिल्म ब्लैक एण्ड व्हाइट है। कैमरा र्वक और लाइटनिंग का जबरदस्त उपयोग किया है। आर्टिस्ट प्रीति शील सिंह ने प्रोस्थेटिक मेकअप से नवाजुद्दीन को लगभग बिल्कुल ही बालसाहेब बना दिया। नाक कुछ अलग लग रही थी। नवाजुद्दीन ने भी अपने अभिनय से किरदार को जीवंत कर दिया है। उसने उनका लहजा, हावभाव और तल्ख अंदाज का गहन अध्ययन किया है। पिता, पुत्र, पति संवेदनशील कलाकार सबको परदे पर बखूबी जिया है। किरदार और कहानी ऐसी कि सब कुछ उनके इर्द गिर्द ही घुमता है। उनकी पत्नी मीना ताई(अमृता राव) ने दमदार उपस्थिति दर्ज की। किसी और के बारे में ध्यान ही नहीं जाता।
एक अखबार के र्काटूनिस्ट की लोकप्रिय नेता बनने की कहानी को बड़े दिलचस्प अंदाज में दिखाया गया है। बाल साहेब को कटघरे में खड़ा किया है। उन पर आरोप लग रहें हैं मराठा राजनीति, बाबरी विध्वंस, दक्षिण भारतीयों पर हमला, मुंबई दंगे, वैलनटाइन डे का विरोध, यू. पी. बिहार के लोगों का महाराष्ट्र में विरोध, पाकिस्तान के खिलाफ, उनकी सोच को लेकर वे विवादों में क्यों रहे? क्यों कहा कि वे केवल हिंदुत्व के एजेण्डा पर चुनाव लड़ेंगे? उनके इसी पक्ष को फिल्म में दिखाया गया है। इन सब आरोपों का जवाब वे दे रहें हैं। इतने आरोपों के बाद भी वे जनप्रिय नेता रहे और महाराष्ट्र के टाइगर कहलाये। अंत तक संजय राउत जो दिखाना चाह रहे थे, उस एजेंडा से जरा भी नहीं भटके और न ही दर्शकों को कुछ सोचने का मौका दिया। कुछ सीन तो धीरे धीरे प्रसिद्ध होने के गजब, मसलन कोई घर आता है। बाल ठाकरे के पिता पूछते हैं" किससे मिलना है? वह कहता है,"बाल साहब से।" पुत्र के नाम के साथ पहली बार 'साहब' सुन पिता के चेहरे से टपकती खुशी!! वह दोबारा प्रश्न करते हैं वही जवाब। अब अंदर जाकर पिता के 'बाल साहब ठाकरे' कहने पर लाजवाब नवाजुद्दीन की प्रतिक्रिया। आपातकाल लगने पर इंदिरा गांधी से मीटिंग और भी कई न भूलने वाले सीन हैं। कहते हैं भीड़ का दिमाग नहीं होता है लेकिन फिल्म देखने से पता चला कि वे भीड़ का दिमाग थे।
मनोज यादव के लिखे डायलॉग ’लोगों के नपुसंक होने से अच्छा, मेरे लोगों का गुंंडा होना है।’ ’जब सिस्टम के शोषण के कारण, लोगों की रीढ़ पिस गई थी तो मैंने उन्हें खड़ा होना सिखाया था।’ उस मौके पर लाजवाब डायलॉग। उन्होंने दो गीत भी लिखे हैं। सैट, लोकेशन सब कहानी के अनुरूप हैं।
संगीत और साउण्ड ट्रैक रोहन रोहन, संदीप शिरोड़कर, अमर मोहिने का अच्छा है।
नीलम भागी
कलाकार नवाजुद्दीन सिद्दिकी, अमृता राव, सुधीर मिश्रा, अनुष्का जाधव और अन्य
निदेशक अभिजीत पानसे
बाल साहेब केशव ठाकरे की जीवन यात्रा पर संजय राउत द्वारा लिखी कहानी पर बनी फिल्म देखकर आप जरा भी निराश नहीं होंगे। एक इमोशनल कलाकार का, एक जबरदस्त जनप्रिय राजनेता बनने का सफ़र है। आपकी राजनीति में दिलचस्पी है और उनके बारे में ज्यादा नहीं जानते तब तो जरूर देखने जायें। जो उन्हें जानता है तो वह उन्हें और जानेगा।
सत्तर प्रतिशत फिल्म ब्लैक एण्ड व्हाइट है। कैमरा र्वक और लाइटनिंग का जबरदस्त उपयोग किया है। आर्टिस्ट प्रीति शील सिंह ने प्रोस्थेटिक मेकअप से नवाजुद्दीन को लगभग बिल्कुल ही बालसाहेब बना दिया। नाक कुछ अलग लग रही थी। नवाजुद्दीन ने भी अपने अभिनय से किरदार को जीवंत कर दिया है। उसने उनका लहजा, हावभाव और तल्ख अंदाज का गहन अध्ययन किया है। पिता, पुत्र, पति संवेदनशील कलाकार सबको परदे पर बखूबी जिया है। किरदार और कहानी ऐसी कि सब कुछ उनके इर्द गिर्द ही घुमता है। उनकी पत्नी मीना ताई(अमृता राव) ने दमदार उपस्थिति दर्ज की। किसी और के बारे में ध्यान ही नहीं जाता।
एक अखबार के र्काटूनिस्ट की लोकप्रिय नेता बनने की कहानी को बड़े दिलचस्प अंदाज में दिखाया गया है। बाल साहेब को कटघरे में खड़ा किया है। उन पर आरोप लग रहें हैं मराठा राजनीति, बाबरी विध्वंस, दक्षिण भारतीयों पर हमला, मुंबई दंगे, वैलनटाइन डे का विरोध, यू. पी. बिहार के लोगों का महाराष्ट्र में विरोध, पाकिस्तान के खिलाफ, उनकी सोच को लेकर वे विवादों में क्यों रहे? क्यों कहा कि वे केवल हिंदुत्व के एजेण्डा पर चुनाव लड़ेंगे? उनके इसी पक्ष को फिल्म में दिखाया गया है। इन सब आरोपों का जवाब वे दे रहें हैं। इतने आरोपों के बाद भी वे जनप्रिय नेता रहे और महाराष्ट्र के टाइगर कहलाये। अंत तक संजय राउत जो दिखाना चाह रहे थे, उस एजेंडा से जरा भी नहीं भटके और न ही दर्शकों को कुछ सोचने का मौका दिया। कुछ सीन तो धीरे धीरे प्रसिद्ध होने के गजब, मसलन कोई घर आता है। बाल ठाकरे के पिता पूछते हैं" किससे मिलना है? वह कहता है,"बाल साहब से।" पुत्र के नाम के साथ पहली बार 'साहब' सुन पिता के चेहरे से टपकती खुशी!! वह दोबारा प्रश्न करते हैं वही जवाब। अब अंदर जाकर पिता के 'बाल साहब ठाकरे' कहने पर लाजवाब नवाजुद्दीन की प्रतिक्रिया। आपातकाल लगने पर इंदिरा गांधी से मीटिंग और भी कई न भूलने वाले सीन हैं। कहते हैं भीड़ का दिमाग नहीं होता है लेकिन फिल्म देखने से पता चला कि वे भीड़ का दिमाग थे।
मनोज यादव के लिखे डायलॉग ’लोगों के नपुसंक होने से अच्छा, मेरे लोगों का गुंंडा होना है।’ ’जब सिस्टम के शोषण के कारण, लोगों की रीढ़ पिस गई थी तो मैंने उन्हें खड़ा होना सिखाया था।’ उस मौके पर लाजवाब डायलॉग। उन्होंने दो गीत भी लिखे हैं। सैट, लोकेशन सब कहानी के अनुरूप हैं।
संगीत और साउण्ड ट्रैक रोहन रोहन, संदीप शिरोड़कर, अमर मोहिने का अच्छा है।


 
 













 पास ही विशाल सरोवर था। उस तरफ जाने के लिये जरा सा बहुत पतला रास्ता था। एक तरफ सरोवर दूसरी ओर सीवर का विशाल गड्डा।
 पास ही विशाल सरोवर था। उस तरफ जाने के लिये जरा सा बहुत पतला रास्ता था। एक तरफ सरोवर दूसरी ओर सीवर का विशाल गड्डा। जरा सी चूक होते ही गड्डे या पानी में गिर सकते थे। बड़ी सावधानी से वहाँ से गुजरी। बहुत तेजी से काम चल रहा था। पास ही गड्डे से निकली मिट्टी का पर्वत था, जिस पर सांड दंगल कर रहे थे।
 जरा सी चूक होते ही गड्डे या पानी में गिर सकते थे। बड़ी सावधानी से वहाँ से गुजरी। बहुत तेजी से काम चल रहा था। पास ही गड्डे से निकली मिट्टी का पर्वत था, जिस पर सांड दंगल कर रहे थे। सांडो के डर से जल्दी जल्दी चली थोड़ा आगे जाते ही दाएं ओर राजस्थानी वास्तुकला को दर्शाता भव्य मंदिर था। मंदिर चार बजे खुलना था। अभी दो बजे थे। आस पास शाकाहारी रैस्टोरैट थे। लंच किया वहाँ की मिठाई खाई। अब मंदिर की ओर चल दिए। रास्ते में छोटे सांड भी दंगल कर रहे थे।
 सांडो के डर से जल्दी जल्दी चली थोड़ा आगे जाते ही दाएं ओर राजस्थानी वास्तुकला को दर्शाता भव्य मंदिर था। मंदिर चार बजे खुलना था। अभी दो बजे थे। आस पास शाकाहारी रैस्टोरैट थे। लंच किया वहाँ की मिठाई खाई। अब मंदिर की ओर चल दिए। रास्ते में छोटे सांड भी दंगल कर रहे थे। शायद सरोवरों के कारण सिंघाड़े बहुत बिक रहे थे।
 शायद सरोवरों के कारण सिंघाड़े बहुत बिक रहे थे। मंदिर में चप्पल रखने की बहुत उत्तम व्यवस्था थी। चप्पल जमा करके अब चार बजे तक का समय व्यतीत करना था। आदत के अनुसार मैंने घूमना और पूछताश शुरू दी।  मंदिर का नाम नौलखा मंदिर है। पुत्र इच्छा की कामना से टीकम गढ़ की महारानी वृषभानु कुमारी ने इस मंदिर को बनाने का संकल्प लिया था और एक वर्ष के भीतर ही उन्होंने पु़त्र को जन्म दिया। 4860 वर्गमीटर में मंदिर का निर्माण शुरू हो गया था। बीच में महारानी का निधन हो गया था। स्वर्गीय महारानी के पति से उनकी बहन नरेन्द्र कुमारी का विवाह हो गया। अब नरेन्द्र कुमारी ने मंदिर को पूरा करवाया। इसके निर्माण में अठारह लाख रूपये लगे पर मंदिर नौ लखा के नाम से ही मशहूर है। 1657 में सूरकिशोर दास को सीता जी की प्रतिमा मिली, उन्होंने उसकी स्थापना की थी। मंदिर में श्रद्धालुओं की भीड़ में बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बंगाल, राजस्थान, महाराष्ट्र के लोग भी नेपालियों के साथ दर्शनाभिलाषी थे। उत्तर की ओर ’अखण्ड कीर्तन भवन’ है। यहाँ 1961 से लगातार कीर्तन हो रहा है। एक जगह सीढ़ी पर चलचित्र लिखा था। मात्र दस रूपये की टिकट थी। वहाँ जानकी की जन्म से बिदाई तक को र्दशाने के लिये गीत और मूर्तियां थी। सोहर, विवाह और बिदाई के गीत नेपाली में थे। मैं वहाँ खड़ी महिलाओं से भाव यानि मतलब पूछती जा रही थी। एक महिला ने बताया ," यहाँ के रिवाज बिहार और मिथिलांचल से मिलते हैं।  फिर दुखी होकर बोली,"जानकी जी विवाह के बाद कभी मायके नहीं आईं। हमारी जानकी ने बड़ा कष्ट पाया। इसलिये कुछ लोग आज भी बेटी की जन्मपत्री नहीं बनवाते। न ही उस मर्हूत में बेटी की शादी करते हैं।"
 मंदिर में चप्पल रखने की बहुत उत्तम व्यवस्था थी। चप्पल जमा करके अब चार बजे तक का समय व्यतीत करना था। आदत के अनुसार मैंने घूमना और पूछताश शुरू दी।  मंदिर का नाम नौलखा मंदिर है। पुत्र इच्छा की कामना से टीकम गढ़ की महारानी वृषभानु कुमारी ने इस मंदिर को बनाने का संकल्प लिया था और एक वर्ष के भीतर ही उन्होंने पु़त्र को जन्म दिया। 4860 वर्गमीटर में मंदिर का निर्माण शुरू हो गया था। बीच में महारानी का निधन हो गया था। स्वर्गीय महारानी के पति से उनकी बहन नरेन्द्र कुमारी का विवाह हो गया। अब नरेन्द्र कुमारी ने मंदिर को पूरा करवाया। इसके निर्माण में अठारह लाख रूपये लगे पर मंदिर नौ लखा के नाम से ही मशहूर है। 1657 में सूरकिशोर दास को सीता जी की प्रतिमा मिली, उन्होंने उसकी स्थापना की थी। मंदिर में श्रद्धालुओं की भीड़ में बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बंगाल, राजस्थान, महाराष्ट्र के लोग भी नेपालियों के साथ दर्शनाभिलाषी थे। उत्तर की ओर ’अखण्ड कीर्तन भवन’ है। यहाँ 1961 से लगातार कीर्तन हो रहा है। एक जगह सीढ़ी पर चलचित्र लिखा था। मात्र दस रूपये की टिकट थी। वहाँ जानकी की जन्म से बिदाई तक को र्दशाने के लिये गीत और मूर्तियां थी। सोहर, विवाह और बिदाई के गीत नेपाली में थे। मैं वहाँ खड़ी महिलाओं से भाव यानि मतलब पूछती जा रही थी। एक महिला ने बताया ," यहाँ के रिवाज बिहार और मिथिलांचल से मिलते हैं।  फिर दुखी होकर बोली,"जानकी जी विवाह के बाद कभी मायके नहीं आईं। हमारी जानकी ने बड़ा कष्ट पाया। इसलिये कुछ लोग आज भी बेटी की जन्मपत्री नहीं बनवाते। न ही उस मर्हूत में बेटी की शादी करते हैं।" 
  नीचे गर्भगृह में कांच के बंद शो केस में जेवर, मूर्तियां  पोशाकें संभाली गईं थीं।
नीचे गर्भगृह में कांच के बंद शो केस में जेवर, मूर्तियां  पोशाकें संभाली गईं थीं।
 यहाँ ’ज्ञानकूप’ के नाम से संस्कृत विद्यालय हैं। जहाँ विद्यार्थियों के रहने और भोजन की निशुल्क व्यवस्था है। चार बजे मंदिर के कपाट खुले, मैं साइड में दर्शन की प्रतीक्षा में खड़ी थी। भीड़ का एक धक्का लगा।  अब मैं भीड़ में सबसे आगे मंदिर के सामने खड़ी थी। एक पुजारी ने मेरे माथे पर तिलक लगा दिया। एक ने प्रशाद दिया। मेरी आँखों से न ,जाने क्यूं आंसू बहने लगे।
 यहाँ ’ज्ञानकूप’ के नाम से संस्कृत विद्यालय हैं। जहाँ विद्यार्थियों के रहने और भोजन की निशुल्क व्यवस्था है। चार बजे मंदिर के कपाट खुले, मैं साइड में दर्शन की प्रतीक्षा में खड़ी थी। भीड़ का एक धक्का लगा।  अब मैं भीड़ में सबसे आगे मंदिर के सामने खड़ी थी। एक पुजारी ने मेरे माथे पर तिलक लगा दिया। एक ने प्रशाद दिया। मेरी आँखों से न ,जाने क्यूं आंसू बहने लगे। भीड़ से निकली तो ध्यान आया कि चढ़ावे के रूपये तो मेरी मुट्ठी में ही रह गये। मेरे में दुबारा भीड़ में जाने की हिम्मत नहीं थी। कुछ लोग दर्शन के लिये पूजा की थाली लेकर खड़े थे। एक की थाली में रूपये रख कर मैंने कहा कि इन्हें दानपात्र में डाल देना। चप्पल ले, अब हम उसी आने वाले तरीके से ही बाहर आये। वहाँ सें ई रिक्शा ले पार्किंग पर पहुँचे।   क्रमशः
 भीड़ से निकली तो ध्यान आया कि चढ़ावे के रूपये तो मेरी मुट्ठी में ही रह गये। मेरे में दुबारा भीड़ में जाने की हिम्मत नहीं थी। कुछ लोग दर्शन के लिये पूजा की थाली लेकर खड़े थे। एक की थाली में रूपये रख कर मैंने कहा कि इन्हें दानपात्र में डाल देना। चप्पल ले, अब हम उसी आने वाले तरीके से ही बाहर आये। वहाँ सें ई रिक्शा ले पार्किंग पर पहुँचे।   क्रमशः     






















