18 सितम्बर को नौएडा स्टेडियम में 6 अक्टूबर से 16 अक्टूबर तक होने वाली श्री सनातन धर्म रामलीला का भूमि पूजन हो रहा था। शहर के गणमान्य राम भक्त बड़ी श्रद्धा से भूमि पूजन में बैठे थे। यज्ञ हो रहा था पर मेरी स्मृति में तो........ कोरोना काल के कारण दो साल से सबने
रामलीला को बहुत मिस किया। दशहरे की छुट्टियों में रात को रामलीला मंचन मंच पर होता था। जिसे बच्चे बहुत ध्यान से देखते थे। लौटते हुए रामलीला के मेले से गत्ते, बांस, चमकीले कागजों से बने चमचमाते धनुष बाण, तलवार और गदा आदि खरीद कर लाते और वे दिन में पार्कों में रामलीला का मंचन करते थे। जिसमें सभी बच्चे कलाकार होते। उन्हें दर्शकों की जरुरत ही नहीं होती। उन दिनों सारा शहर ही राममय हो जाता।
तेरी जात क्या है? ये प्रश्न सुनते ही बिमार दादी को दवा देने आई नर्स ने पहले घूर कर मेरी नब्बे साल की दादी को देखा, फिर न जाने क्या सोच कर, मुस्कुराकर बोली,’’ ऊँची जात की मुसलमानी पर माता जी, मैंने दवा को छुआ नहीं है।’’ दादी बोली,’’जिस कागज पर गोलियां हैं, उसे तो छुआ है न। मैं नहीं खाती दवा।’’नर्स भली थी, मुझसे बोली,’’चलो मेरे साथ तुम अपने हाथ से दवा ले लेना।’’ बाहर आकर वही दवा नर्स से लेकर, मैंने माफी मांगते हुए, उसे बताया कि ये बहुत छुआछूत ,जात पात मानती हैं। अब अशक्त हो गईं हैं। पहले जब घर से बाहर जाती थीं तो घर आते ही चाहे जितना भी जाड़ा हो, कपड़े समेत खड़ी, अपने ऊपर पानी की बाल्टी डलवाती थीं। जवाब में नर्स बोली कि इनकी ये आदत तो अब चिता के साथ ही जायेगी। जो भी नर्स आती, वह अपने को ऊँची जात की मुसलमानी, दादी के पूछने पर बताती। दादी पढ़ना जानती थी सिर्फ धार्मिक किताबें ही पढ़ती थी। राम कथा में सामाजिक समरसता का भाव है। समरसता की प्रतीक रामायण, दादी सुबह नहा कर चौकी पर बैठ कर पढ़ती थी। आस पास की महिलाएं नीचे बैठ कर सुनतीं थीं। दादी के उपदेश साथ साथ चलते कि भगवान राम साधारण इनसान बन कर, हमें रास्ता दिखाने आये थे। जब आयोध्या से परिवार उन्हें वन में मिलने आया था तो लक्ष्मण केकई को देख कर भला बुरा कहने लगे, उनका साथ भरत और शत्रुघ्न देने लगे पर श्रीराम ने उन्हे ऐसा करने से रोका क्योंकि वे परिवार में समरसता चाहते थे। निशादराज को गले लगा कर सामाजिक समरसता चाहते थे। शबरी के झूठे बेर खाकर उन्होंने संसार को ये संदेश दिया कि सब मनुष्य मेरे बनाये हुए हैं, कोई छोटा बड़ा नहीं है। केवट की नाव से पार हुए तो उसे मेहनताना दिया, मतलब किसी की मेहनत का हक न मारो ताकि समाज में समरसता बनी रहे। बालि का वध सामाजिक समरसता के लिये किया और इस पर कहा कि बालि वध न्याय संगत है क्योंकि छोटे भाई की पत्नी पुत्रवधु के सामान होती है। शरणागत विभीषण को भी अपनाया। राजधर्म, मित्रधर्म और प्रतिज्ञा सबके बारे में साधारण बोलचाल की भाषा में, दादी अपनी श्रोताओं को समझाती थीं। रामराज्य की कामना करतीं थीं। पर छुआछूत और जातिप्रथा की बुरी तरह से पक्षधर थीं। उनकी कथा सुनने वालियां, इसे उनकी योग्यता मानते हुए प्रचार करतीं थीं कि माता जी राजपुरोहित की बेटी हैं न। छोटी जात वालों को नहीं छूती और छोटी जात वालियां उनसे दूर रह कर कथा सुनती पर उनसे र्तक नहीं करतीं थीं। क्योंकि उनके मन में मर्यादा पुरुषोतम श्री राम जो बसे थे। रामलीला के दिनों में भी दादी की रामकथा सब वैसे ही सुनतीं। छुआछूत की मारी दादी आप रामलीला देखने नहीं जाती पर उनसे कहती,’’ रामलीला में सबको लेकर जाया करो, रामलीला देखने से सदबुद्धि आती है।’’ 1982 में मैं यहां नौएडा रहने आई तो दशहरे की छुट्टियों में दूर दूर तक रामलीला का मंचन नहीं हो रहा था। बड़ा अजीब लगता था। पर अब.......रामलीला के इंतजार में
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