देवउठावनी(1नव.)एकादशी से सभी मांगलिक कार्य शुरु हो जाते हैं। कर्नाटक राज्योत्सव व केरल पिरवी यानि केरल दिवस मनाया जाता है। 2 नव. को तुलसीजी और सालिगराम का विवाह उत्सव धूमधाम से मनाया जाता है। सालिगराम के बराती भगवान की बारात में जमकर नाचते हुए तुलसी जी के घर जाते हैं। धर्म और लोककथाओं के साथ, उत्सव में नदियों का भी महत्व हैं। उत्तर भारत में प्रभात फेरी निकाली जाती है। कार्तिक पूर्णिमा को त्रिपुरारी पूणर््िामा भी कहते हैं। त्रिपुरास राक्षस पर शिव की विजय का उत्सव है। शास्त्रों में वर्णित है कि कार्तिक पूर्णिमा के दिन पवित्र नदी, सरोवर एवं गंगा, यमुना, गोदावरी, नर्मदा, गंडक, कुरुक्षेत्र अयोध्या, काशी में स्नान करने से विशेष पुण्य की प्राप्ति होती है। इसे देव दीपावली(5नवम्बर) गंगा दीपावली के रूप में मनाते हैं। गंगा नदी और देवी देवताओं के सम्मान में घरों में रंगोली बना कर तेल के दियों से सजाते हैं।
महाभारत काल में हुए 18 दिनों के युद्ध के बाद की स्थिति से युधिष्ठिर कुछ विचलित हो गए तो श्री कृष्ण पाण्डवों के साथ गढ़ खादर के विशाल रेतीले मैदान में आए। कार्तिक शुक्ल अष्टमी को पाण्डवों ने स्नान किया और कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी तक गंगा किनारे यज्ञ किया। इसके बाद दिवंगत आत्माओं की शंांित के लिए दीपदान करते हुए श्रद्धांजलि अर्पित की। इस दिन गंगा स्नान का और विशेष रुप से गढ़मुक्तेश्वर में स्नान करने का विशेष महत्व है। यह देश भक्ति से भी जुड़ा हैं। इस दिन बहादुर सैनिक जो भारत के लिए लड़ते हुए शहीद हो गए हैं उन्हें श्रद्धांजलि दी जाती है।
गुरू नानक जयंती(5 नवंबर) को उत्सव की तरह मनाया जाता है। गुरुद्वारों में शबद कीर्तन होता है और लंगर वरताया जाता है।
सामाजिक समरसता का प्रतीक ’वन भोजन’ भी कार्तिक मास में आयोजित किए जाते हैं। इसमें कुछ लोग मिलकर अपनी सुविधा के दिन, अपना बनाया खाना लेकर प्रकृतिक परिवेश में एक जगह रख देते हैं। कोई प्रोफैशनल नहीं होता है, जिसे जो आता है वो अपनी प्रस्तुति देता है। खूब मनोरंजन होता है। फिर सब मिल जुल कर भोजन करते हैं।
गंगा महोत्सव वाराणसी( 5से 7 नव.) शास्त्रीय संगीत और नृत्य उत्सव है।
मेले तो पूरे देश में कहीं न कहीं लगते ही हैं और पशुओं के भी लगते हैं। लेकिन कार्तिक पूर्णिमा से शुरु होने वाला पुष्कर का ऊँट मेला विदेशी सैलानियों को भी आकर्षित करता है। इस बार पुष्कर मेला 30 अक्तूबर से शुरु होकर 5 नवम्बर को समाप्त होगा। कई किमी. तक यह मेला रेत में लगता है जिसमें खाने के स्टाल, झूले, लोक गीत, लोक नृत्य होते हैं। कालबेलिया नृत्य ने तो विदेशों में भी धूम मचा दी है। ऊँटों को पारंपरिक परिधानों में सजाया जाता है। ऊँट नृत्य करते हैं और इनसे वेट लिफ्टिंग भी करवाई जाती है। रात को आलाव जला कर गाथाएं भी सुनाई जाती हैं। कार्तिक पूर्णिमा के दिन लाखांे श्रद्धालु पुष्कर झील में स्नान करके ब्रह्मा जी के मंदिर में दर्शन करते हैं। अगर ऊँट खरीदना हो तो खरीदते हैं। सबसे सुन्दर ऊँट और ऊँटनी को इनाम मिलता है।
जैन का धार्मिक दिवस प्रकाश पर्व है।
बाली जात्रा कटक(बोइता वंदना) एशिया का सबसे बड़ा मेला कार्तिक पूर्णिमा को लगता है। विशाल मैदान! जिसका मुझे अंतिम छोर नजर नहीं आ रहा था जो महानदी के गडगड़िया घाट पर लगता है। बाली जात्रा कटक, 2000 साल पुराने समुद्री संस्कृतिक संबंधों को दर्शाता है। प्राचीन काल में यहां के ओड़िआ नाविक व्यापारी जिन्हें ’साधवा’ कहा जाता था, जावा, सुमात्रा, बोर्नियो (इंडोनेशिया), वर्मा (म्यांमार) सिलोन (श्रीलंका) से व्यापार करते थे। कार्तिक पूर्णिमा के दिन से यह 4 महीने के लिए व्यापार के लिए निकलते थे। इस समुद्री यात्रा में हवा इनका साथ देती थी। पाल वाली नाव हवा की दिशा और पवन ऊर्जा पर निर्भर यह नाविक, समुद्री व्यापारी, व्यापार के लिए चल देते थे। इस बड़ी-बड़ी जहाजनुमा नाव को ’बोइतास’ कहा जाता है। जब यह व्यापार को जाते थे तो परिवार की महिलाएं उनकी कुशल वापसी के लिए अनुष्ठान करती थीं। जिसे ’बोइता वंदना’ कहते हैं, जो एक परंपरा बन गया है। उसके प्रतीकात्मक आज इसमें बोइता (छोटी नाव) उत्सव भी मनाया जाता है। यानि कार्तिक पूर्णिमा को सुबह जल्दी पूर्वजों की याद में ’बोइता वंदना’ अपने घर के आसपास, जहां भी जल होता है। उसमें सुबह-सुबह कागज या सूखे केले के पत्तों से नाव बनाकर, उसमें दीपक जलाकर और पान रखकर, उन जांबाज नाविकांे की याद में, जल में प्रवाहित करते हैं। पूर्वजों की यात्रा के प्रतीकात्मक रूप में समुद्री नाविक व्यापारियों के लिए है बाली जात्रा। कटक नगर निगम द्वारा आयोजित बाली यात्रा के एक कार्यक्रम में 22 स्कूलों के 2100 बच्चों ने 35 मिनट में 22000 कागज की नाव बनाने का विश्व रिकॉर्ड बनाया है। बाली यात्रा कीर्तिमान है और गिनी बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज है। पर्वों पर नदी स्नान करना हमारे धर्म में है। यहां तो पवित्र महानदी के किनारे बाली यात्रा का आयोजन किया जाता है तो श्रद्धालु ’बोइता वंदना’ के बाद महानदी में स्नान कर, धार्मिक महत्व की बाली जात्रा में शामिल होकर, मेले का आनंद उठाते हैं। यह व्यापार, वाणिज्य सांस्कृतिक खुला मेला है। लाखों की संख्या में यहां लोग आते हैं। एक ही स्थान पर सबके लिए सब कुछ है। युवाओं के लिए आधुनिक संगीतमय, सांस्कृतिक कार्यक्रम है, पारंपरिक कार्यक्रम है। विभिन्न विषयों पर चर्चा के लिए मंडप है। लोक संस्कृति की झलक है। स्थानीय व्यंजन दही बड़ा आलू दम, धुनका पुरी, कुल्फी गुपचुप आदि के खाद्य स्टॉल हैं, खिलौने, अनोखी वस्तुएं है व्यापार मेले का इतिहास है। हथकरघा, हस्तशिल्प, कला, अनुष्ठान हैं। प्राचीनता और नवीनता है। कलिंग(पूर्व में उड़ीसा) प्रसिद्ध शक्तिशाली समुद्री शक्ति थी। बाली जात्रा उड़ीसा के समृद्ध समुद्री विरासत का प्रतीक है।
झिड़ी का मेलाः जम्मू से 22 किमी. दूर झिड़ी गाँव है। इस स्थान पर बाबा जित्तो और बुआ कौड़ी का मंदिर है। जित्तो का जीवन हक, उसूलों और अधिकारों का संघर्ष है, उनकी याद में लगने वाला, उत्तर भारत में सबसे बड़ा वार्षिक किसान झिड़ी का मेला है। जिसमें मुख्य आर्कषण खेती बाड़ी से जुड़े स्टॉल होते हैं। झिड़ी गाँव में यह मेला कार्तिक पूर्णिमा से तीन दिन पहले और तीन दिन बाद तक क्रांतिकारी ब्राह्मण किसान, माता वैष्णों के परम भक्त ’बाबा जित्तो’ और उनकी बेटी, ’बालरुप कौड़ी बुआ’ की याद में लगता है। देश भर से आए श्रद्धालुओं को ठहराने के लिए स्कूल कॉलिज सब बंद रहते हैं और 24 घण्टे भण्डारा चलता है। श्रद्धालु बाबा तालाब में स्नान करते हैं। मन की मुराद पूरी होती है। ऐसा माना जाता है कि उसमें नहाने से त्वचा रोग ठीक हो जाते हैं, निसंतान को संतान प्राप्त होती है। मेले में किसानों से जुड़े लगभग डेढ़ दर्जन विभाग सक्रिय रहते हैं। मेले के मुख्य आर्कषण खेती, बागवानी, डेयरी, रेशम उद्योग, खादी, फलवारी, नवीन तकनीक, अच्छे माल मवेशी, दंगल और ग्रामीण खेल हैं। श्रद्धालु बुआ कौड़ी के लिए गुड़िया लाते हैं। बाबा जित्तो ने उस समय की सामंती व्यवस्था पर सवाल खड़े किए थे। आज किसान सबसे पहले अपने खेत का अनाज बाबा जित्तो को चढ़ाते हैं, बाद में अपने लिए रखते हैं क्योंकि उन खेतों में जाने वाला पानी बाबा जित्तो की ही देन है।
रण उत्सव(1नवंबर से 20 फरवरी) गुजरात का रण उत्सव अपनी रंगीन कला और संस्कृति के लिए विश्व प्रसिद्ध है। तीन महीने तक मनाये जाने वाले इस उत्सव में कला, संगीत, संस्कृति के साथ इसमें बुनकर, संगीतकार, लोक नर्तक और राज्य के श्रेष्ठ व्यंजन निर्माताओं के साथ कारीगर भी आते हैं। इस दौरान कलाकार रेत में भारत के इतिहास की झलक पेश करते हैं।
सोनपुर मेला(6नवंबर से 7 दिसम्बर) गंडक नदी के तट पर एशिया का सबसे बड़ा पशु मेला है। यह कार्तिक पूर्णिमा पर स्नान के बाद शुरु होता है। चंद्र गुप्त मौर्य, अकबर और 1857 के गदर के नायक वीर कुँवर सिंह ने भी यहाँ से हाथियों की खरीद की थी। सन् 1803 में रार्बट क्लाइव ने सोनपुर में घोड़े के लिए अस्तबल बनवाया था। यहाँ घोड़ा, गाय, गधा, बकरी सब बिकता था। पर आज की जरुरत के अनुसार यह आटो एक्पो मेले का रुप लेता जा रहा हैं। हरिहर नाथ की पूजा होती है। नौका दौड़, दंगल खेल प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती हैं। यह मेला 15 किमी. तक फैल जाता है।
वंगाला(7नवंबर) मेघालय में गारो समुदाय द्वारा फसल कटाई से सम्बन्धित वंगाला उत्सव है। गारो भाषा में ’वंगाला’ का अर्थ ’सौ ढोल’ है। वर्षा अधिक होने के कारण सूर्यदेवता(सलजोंग) के सम्मान में गारो आदिवासी ’वांगला’ नामक त्योहार मनाते हैं। यह त्यौहार लगभग एक हफ्ते तक मनाया जाता है। मौखिक पीढ़ी दर पीढ़ी परम्परा से सूर्य की आराधना की जाती है। सूर्य देवता फ़सल के अधिदेवता भी माने जाते हैं। रंगीन वेषभूषा में सिर पर पंख सजाकर अंडाकार आकार में खड़े होकर ढोल की ताल पर नृत्य करते हैं।
बूंदी महोत्सव(18से 20 नव.) राजस्थान के हड़ौती क्षेत्र में छोटा सा बूंदी अपनी ऐतिहासिक वास्तुकला और संस्कृति के लिए जाना जाता है। इसके खूबसूरत दर्शनीय स्थलों और प्रसिद्ध मंदिरों में हनुमान जी मंदिर, राधाई कृष्ण मंदिर, नीलकंठ महादेव बूंदी के कारण यह छोटी काशी के रुप में जाना जाता है। इसमें किलों का भी मेल है। बूंदी उत्सव में बिना किसी शुल्क के सांस्कृतिक गतिविधियों, विभिन्न प्रतियोगिताओं और रंगारंग कार्यक्रमों का आनन्द उठाने के लिए दुनिया भर से लोग हड़ौती पहुंचते हैं। राजस्थानी व्यंजनों के स्वाद के साथ खरीदारी कर सकते हैं कार्तिक पूर्णिमा की रात में महिला पुरुष दोनों पारंपरिक वेशभूषा पहनकर चंबल नदी के तट पर दिया जला कर, आर्शीवाद लेते हैं।
माजुली महोत्सव(21 से 24 नव) ब्रह्मपुत्र नदी पर स्थित माजुली द्वीप पर संगीत और नृत्य के द्वारा असम की सांस्कृतिक विरासत का उत्सव है। यह दुनिया भर से संगीत प्रेमियों को आकर्षित करता है।
संगाई महोत्सव मणिपुर(21 नव.) में राज्य की समृद्ध संस्कृति, परंपराओं, स्वदेशी खेलों और व्यंजनों का उत्सव हैं। महोत्सव का नाम मणिपुर के राजकीय पशु संगाई हिरण के नाम पर रखा है।
विवाह पंचमी श्रीराम जानकी विवाह से पहले, विवाह की एक रस्म है, कमला नदी पूजन की, उसे मटकोर कहते हैं। मैं विवाह पंचमी की तैयारी देखने लगी। पता चला उत्सव में देश विदेश से लोग आतेे हैं। अयोध्या से श्रीराम की बारात जनकपुर में आती है। होटल, धर्मशालाएं, गैस्ट हाउस सब पहले से बुक रहते हैं। लोक कथा है कि सीता जी के विवाह में मटकोर(कमला पूजन) में कमला माई की मिट्टी लाई गई थी और सीता जी के नेत्र से कमला जी उदय हुई थीं। सीता जी की प्रिय सखी कमला हैं। मटकोर पूजन का प्रश्न उत्तर में एक लोकगीत है, जिसे मिथलानियाँ इस अवसर पर गाती हैं।
कहाँ माँ पियर माटी, कहाँ मटकोर रे।
कहाँ माँ के पाँच माटी, खोने जाएं।
पटना के कोदार है, मिथिला की माटी।
मिथिला के ही पाँचों सखी, खोने मटकोर हैं।
पाँच सुहागिने कुदार, तेल, सिंदूर, हल्दी, दहीं लेकर, 5 आदमी नदी के किनारे की मिट्टी खोदते हैं, उसमें से मिट्टी निकाल कर, ये सब सुहागचिन्ह और पाँच मुट्ठी चने डाल देते हैं। वर वधु नदी में स्नान करते हैं। लौटते समय चने, पान, सुपारी बांटते हैं। उस मिट्टी को वर वधु के उबटन में मिला कर हल्दी की रस्म होती है। विवाह पंचमी के बाद से मिथिला में साहे शुरु होते है।ं तब से मिथिला में विवाह संस्कार की शुरुवात ही नदी पूजन से होती है।
श्रीराम जानकी विवाह उत्सव(25 नवम्बर) ’विवाह पंचमी’ श्री राम और सीता जी की शादी की वर्षगांठ को हम उत्सव की तरह मनाते हैं। अब भी पाँच साल में अयोध्या जी से श्री राम बारात जगह जगह स्वागत करवाती हुई, 15 दिन में जनकपुर नेपाल विवाह पंचमी के दिन पहुंचती है।
तेलुगु स्कंद षष्ठी सुब्रमण्यम षष्ठी(25 नवंबर) को कुमार षष्ठी भी कहते हैं। दक्षिण भारत तमिल हिन्दुओं में इसे प्रमुख त्यौहारों में से एक माना जाता है। भगवान स्कंद जो शिव पार्वती के पुत्र हैं गणेश के बड़े भाई हैं को मुरुगन, कार्तिकेयन, सुब्रमण्यम के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन संतान प्राप्ति खुशहाली के लिए व्रत रखा जाता है। सभी षष्ठी भगवान मुरुगन को समर्पित हैं, लेकिन चंद्र मास कार्तिक के दौरान शुक्ल पक्ष की षष्ठी को सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। श्रद्धालु छ दिनों का उपवास रखते हैं। जो सूर्यसंहारम के दिन चलता है। सूर्यसंहारम के अगले दिन को तिरु कल्याणम के नाम से जाना जाता है।
यह लेख प्रेरणा शोध संस्थान नोएडा से प्रकाशित प्रेरणा विचार पत्रिका के नवंबर अंक में प्रकाशित हुआ है.




