इस माह के त्योहार दुनियाभर में सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और प्राकृतिक अनुभवों का अनूठा मेल दिखाते हैं। कटाई के महीने की शुरुआत भी हो जाती है। गणपति उत्सव, दुर्गापूजा और ओणम तो चल ही रहा है। सगीत उत्सवों का आन्नद और बढ़ा भी देता है।
चक्रधर समारोह(2 से 12सि.) संगीतमय चक्रधर समारोह भारत की सांस्कृतिक विरासत को दर्शाता कलाप्रेमियों के लिए एक अमूल्य अनुभव है। छत्तीस के रायगढ़ का यह वार्षिक उत्सव महाराजा चक्रधर के सम्मान में भारतीय संगीत और नृत्य का जश्न मनाता है।
दक्षिण भारत में ओणम केरल का प्राचीन पारंपरिक, धार्मिक, सांस्कृतिक उत्सव हैं, जिसे दुनियाभर में मलयाली समाज मनाता है। 5 सितम्बर को इसका समापन होगा। केरल में चार दिन की छुट्टी होती हैं। ऐसी मान्यता है कि इस दिन प्रत्येक वर्ष राजा महाबलि पाताल लोक से धरती पर अपनी प्रजा को आर्शीवाद देने आते हैं और नई फसल आने की खुशी भी होती है। ओणम उत्सव अपनी सांस्कृतिक प्रथाओं में नाव दौड़, नृत्य रुपों, फूलों, रंगीन कला, भोजन और पारंपरिक कपड़ों से लेकर ओनसद्या यानि भोज है, जिसमें केले के पत्ते पर 29 शाकाहारी व्यंजन परोसे जाते हैं। तिरुवोनम, दसवें दिन अपने घरों के प्रवेश द्वार पर आटे के घोल से अल्पना सजाते हैं। नये कपड़े पहनते हैं। ऐसा मानना है कि इस दिन राजा महाबली हर घर जाते हैं और परिवार को आर्शीवाद देते हैं और परिवार दावत के लिए इक्ट्ठा होता है।
गणेशोत्सव आनन्द चतुर्थी (6 सितम्बर) दस दिन तक दक्षिण के कला शिरोमणि गणपति के लिए महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, तमिलनाडु गणपतिमय रहता है और पूरे देश में पूजा अर्चना के साथ साथ सांस्कृतिक कार्यक्रम चलते हैं। बप्पा के आवाहन से लेकर विर्सजन तक श्रद्धालु, आरती, पूजा, सांस्कृतिक कार्यक्रमों में, लगभग सभी उपस्थित रहते हैं। घरों में भी गणपति 1,3,5,7,9 दिन बिठाते हैं। इसमें गौरी पूजन, दो दिन महालक्ष्मी पूजन, छप्पन भोग हैं। त्यौहार के बीच में बेटियां भी गणपति से मिलने मायके आती हैं और बहुएं भी मायके जाती हैं। मुंबई में मैंने देखा, सामने फ्लैट में एक परिवार ने गणपति बिठाए तो उनके तीनों भाइयों के परिवार, दूसरे शहरों से वहीं आ जाते हैं। पूजा तो हर समय नहीं होती, बच्चे आपस में घुल मिल जाते हैं। महिलाओं पुरुषों की अपनी गोष्ठियां चलती हैं। अष्टमी को ऐसा माना जाता है कि इस दिन गौंरा अपने गणपति से मिलने आती हैं। उपवास रखकर, कुल्हड़ गुड़ियों के रुप में गौरी को पूजते हैं और सबको भोजन कराते हैं। दक्षिणा उपहार देते हैं पर उस दिन नियम है कुछ भी, जूठन(सभ्य लोग हैं जूठा नहीं छोड़ते) तक नहीं फेंकते हैं। यहां तक कि पान खिलाया तो उसका कागज भी दहलीज से बाहर नहीं डालते। अगले दिन दक्षिणा उपहार ले जा सकते हैं। शाम को आरती के बाद कीर्तन होता है। मंगलकारी बप्पा साल में एक बार तो आते हैं इसलिए उनके सत्कार में कोई कमी न रह जाए। अपनी सामर्थ्य के अनुसार मोदक, लड्डू के साथ तरह तरह के व्यंजनों का भोग लगाते हैं। जो सब मिल जुल कर, प्रशाद में खाते हैं। थोड़ी सी जगह में संबंधियों, मित्रों के साथ आनंद पूर्वक नाच भी लेते हैं। सोसाइटी के गणपति उत्सव में सबकी भागेदारी होती है।
आनंद चर्तुदशी(6 सितम्बर) के दिन गणपति विर्सजन होता है। ढोल के साथ नाचते हुए गणपति से विनती करते हुए कहते हैं कि अगले बरस तूं जल्दी आ और विर्सजन जूलूस में जाते हैं।
गणपति की कथाएं बड़ी रोचक हैं। महर्षि वेदव्यास महाभारत की कथा लिखना चाह रहे थे पर उनके विचार प्रवाह की रफ्तार से, कलम साथ नहीं दे रही थी। उन्होंने गणपति से लिखने को कहा। उन्होंने लिखना स्वीकार किया पर पहले तय कर लिया कि वे लगातार लिखेंगे, जैसे ही उनका सुनाना बंद होगा, वह आगे नहीं लिखेंगे। महर्षि ने भी गणपति से प्रार्थना कर, उन्हें कहा,’’ आप भी एडिटिंग साथ साथ करेंगे।’’ गणपति ने स्वीकार कर लिया। जहां गणपति करेक्शन के लिए सोच विचार करने लगते, तब तक महर्षि अगले प्रसंग की तैयारी कर लेते। वे लगातार कथा सुना रहे थे। दसवें दिन जब महर्षि ने आखें खोलीं तो पाया कि गणपति के शरीर का ताप बढ़ गया है। उन्होंने तुरंत पास के जलकुंड से जल लाकर उनके शरीर पर प्रवाहित किया। उस दिन भाद्रपद की चतुर्दशी थी। इसी कारण प्रतिमा का विर्सजन चतुर्दशी को किया जाता है। महाराष्ट्र इसे मंगलकारी देवता के रूप में व मंगलपूर्ति के नाम से पूजता है।
गणपति उत्सव की शुरूवात, सांस्कृतिक राजधानी पुणे से हुई थी। शिवाजी के बचपन में उनकी मां जीजाबाई ने पुणे के ग्रामदेवता कस्बा में गणपति की स्थापना की थी। तिलक ने जब सार्वजनिक गणेश पूजन का आयोजन किया था तो उनका मकसद सभी जातियों धर्मों को एक साझा मंच देना था। पहला मौका था, जब सबने देव दर्शन कर चरण छुए थे। उत्सव के बाद प्रतिमा को वापस मंदिर में हमेशा की तरह स्थापित किया जाने लगा तो एक वर्ग ने इसका विरोध किया कि ये मूर्ति सबके द्वारा छुई गई है। उसी समय निर्णय लिया गया कि इसे सागर में विसर्जित किया जाए। दोनों पक्षों की बात रह गई। तब से गणपति विर्सजन शुरु हो गया। हर प्रांत के लोग गणपति उत्सव मनाते हैं क्योंकि दक्षिण भारत के कला शिरोमणि गणपति तो सबके हैं। तिलक ने गणेश उत्सव द्वारा, अंग्रेजों के विरुद्ध सबको संगठित किया था। आज देश विदेश में भारतवासी इसे मिलजुल कर ही मनाते हैं।
लोकमान्य तिलक के लगाए पौधे की शाखाएं देशभर में फैल गईं हैं। आनंद चतुर्दशी को गणपति विर्सजन होता है और जहां रामलीला होती है, उस स्थान का भूमि पूजन होता है।
पांग ल्हबसोल(7 सितम्बर) सिक्कमियों की एकता का प्रतीक उत्सव है। यह लेप्चा, भूटिया और नेपालियों के बीच भाईचारे की संधि का स्मरण कराता है। राज्य के पर्वत देवता कंचनजंगा को यह उत्सव समर्पित है। पुष्पमेला भी लगता है।
हिन्दू धर्म में पितृ पक्ष(8सितम्बर से 21सितम्बर) का विशेष महत्व है। मान्यता है कि यमराज श्राद्ध पक्ष में पितरों को मुक्त कर देते हैं ताकि वे स्वजनों के यहां जाकर तर्पण ग्रहण कर सकें। पितरों के निमित्त किए गए तर्पण से पितर, तृप्त होकर वंशजों को आर्शीवाद देते हैं। जिससे जीवन में सुख समृद्धि प्राप्त होती है। महालय अमावस को पितृ विर्सजन करते हैं।
लद्दाख मैराथन दुनिया की सबसे ऊँची दौड़ (11से 14 सि.) में भाग लेते हैं या दर्शक बनते हैं।
सृजन, निर्माण, वास्तुकला, औजार, शिल्पकला, मूर्तिकला एवं वाहनों के देवता विश्वकर्मा की जयंती (17 सितम्बर) को मनाई जायेगी। कारीगरों का यह उत्सव का दिन है। सब एक जगह इक्कट्ठा होकर पूजा करते हैं और फिर मूर्ति का विर्सजन करते हैं।
आभानेरी महोत्सव(17 से 19 सितम्बर) में कालबेलिया नृत्य, लंगा नृत्य, कच्छी घोड़ी नृत्य, भवाई नृत्य, रास लीला, कठपुतली शो का आनन्द उठाते हुए हम राजस्थान की जातीय कलाकृतिया और हस्तशिल्प खरीद सकते हैं। ऊँट गाड़ी की सवारी करते हुए फूलों और रंगोली की सजावट देखने लायक होती है। जयपुर से 80 किमी. दूर आभानेरी गाँव में चांद बावड़ी और हर्षत माता मंदिर के बीच में मनाया जाता है।
नीलमपेरूर पदायनी(21 और 22 सितम्बर) अलपुझा जिले में खूबसूरत गांव नीलमपेरूर में पल्ली भगवती मंदिर को उत्सव मनाने के लिए खूब सजाया जाता है। ओणम के महीने में होने से यह केरल में बहुत लोकप्रिय है। जिसमें पुतले लेकर एक जलूस निकाला जाता है।
अग्रसेन जयंती (22 सि.) को महान हिंदू राजा महाराजा अग्रसेन का जन्मदिन उत्तर भारत में धूमधाम से मनाया जाता है।
शरदोत्सव दुर्गोत्सव(22 सि. से 2 अक्तूर) एक वार्षिक हिन्दू पर्व है। जिसमें प्रांतों में अलग अलग पद्धति से देवी पूजन है। गुजरात का नवरात्र में किया जाने वाला गरबा नृत्य तो पूरे देश का हो गया है। जो नहीं करते वे देखने जाते हैं।
बतुकम्मा महोत्सव( 22 सि. से 30सि.)ः- आंध्र प्रदेश और तेलंगाना राज्य की महिलाओं द्वारा, बड़े उत्साह से पूरे नौ दिन मनाया जाने वाला बतुकम्मा महोत्सव हैं। ये शेष भारत के शरद नवरात्रि से मेल खाता है। प्रत्येक दिन बतुकम्मा उत्सव को अलग नाम से पुकारा जाता है। जंगलों से ढेर सारे फूल लाते हैं। फूलों की सात पर्तों से गोपुरम मंदिर की आकृति बनाकर बतुुकम्मा अर्थात देवी माँ पार्वती को महागौरी के रूप में पूजा जाता है। लोगों का मानना है कि बतुकम्मा त्यौहार पर देवी जीवित अवस्था में रहती हैं और श्रद्धालुओं की मनोकामना पूरी करतीं हैं। त्योहार के पहले दिन सार्वजनिक अवकाश होता है। नौ दिनों तक अलग अलग क्षेत्रिय पकवानों से गोपुरम को भोग लगा कर, इस फूलों के उत्सव का आनन्द उठाया जाता है। नवरात्रि की अष्टमी को यह त्यौहार दशहरे से पहले समाप्त है।
बतुकम्मा से मिलता जुलता, तेलंगाना में कुवांरी लड़कियों द्वारा बोडेम्मा पर्व मनाया जाता है। जो सात दिनों तक चलने वाला गौरी पूजा का पर्व है। जल्दी शादी और सुयोग्य पति की कामना के लिए लड़कियां यह उत्सव मनाती हैं। शाम को मिलकर संगीत और नृत्य करतीं हैं।
उत्तर भारत में नौ दिन तक देवी मंदिर सारा दिन खुले रहते हैं। भगवती जागरण, माता की चौंकी, भण्डारों का आयोजन किया जाता है। रिहायशी सोसाइटियों, गली, मौहल्लों में घरों में महिलाएं कीर्तन आयोजित करती हैं। जहाँ वे माबेाइल के जमाने में भी अपनी पुरानी भजनों की डायरियाँ लेकर जाती हैं। चेन्नई की माया मनपुरिया बताती हैं कि उनके मारवाड़ी समाज में महिलाएं नवरात्र में मेंहदी नहीं लगातीं, केवल नुआं(आगे नाखूनों तक मेंहदी) करती हैं। क्योंकि दोनों समय पूजा करनी होती है। आखरी नवरात्र को लगाती हैं। नोएडा में भी मैंने देखा कि आखिरी नवरात्र कीर्तन में प्रशाद के साथ मेहंदी भी दी जाती है।
महाअष्टमी और महानवमी को नौ बाल कन्याओं की पूजा की जाती है जो देवी नवदुर्गा के नौ रूपों का प्रतिनिधित्व करतीं हैं।
करणी माता महोत्सव दशनोक, बीकानेर राजस्थान में नवरात्र को मनाया जाता है। यहाँ नवरात्र में मेला लगता है।
तिरूमाला में ब्रह्मोत्सव(30 सि. से 8 अक्तू. ) मनाया जा रहा है। किंवदंती है कि भगवान ब्रह्मा ने सबसे पहले तिरूमाला में ब्रह्मोत्सव मनाया था। तिरूमाला में तो हर दिन एक त्यौहार है और धन के भगवान श्री वेंकटेश्वर साल में 450 उत्सवों का आनन्द लेते हैं। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण ब्रह्मोत्सव है। जिसका शाब्दिक अर्थ है ’ब्रह्मा का उत्सव’ जिसमें हजारो श्रद्धालू इस राजसी उत्सव को देखने जाते हैं।
दशहरे की छुट्टियों में जगह जगह रात को रामलीला मंचन, मंच पर होता है। जिसे बच्चे बहुत ध्यान से देखते हैं। लौटते हुए रामलीला के मेले से गत्ते, बांस, चमकीले कागजों से बने चमचमाते धनुष बाण, तलवार और गदा आदि शस्त्र खरीद कर लात हैं और वे दिन में पार्कों में रामलीला का मंचन करते हैं। जिसमें सभी बच्चे कलाकार होते हैं। उन्हें दर्शकों की जरुरत ही नहीं होती। इन दिनों सारा शहर ही राममय हो जाता।
अश्व पूजन मेवाड़ जीत का प्रतीक, नवरात्र के नौवें दिन को, योद्धाओं के हथियारों, युद्ध जानवरों हाथी, घोड़ो और अन्य प्रतीकों की पूजा की जाती है। घुड़सवार हमलों के लिए प्रसिद्ध मेवाड़ में इस दिन घोड़ों की पूजा आजतक जारी है।
दुर्गा पूजा 28सि. से 2 अक्तूबर) यह भारतीय उपमहाद्वीप व दक्षिण एशिया में मनाया जाने वाला सामाजिक-सांस्कृतिक धार्मिक वार्षिक हिन्दू पर्व है। पश्चिम बंगाल, असम, बिहार, झारखण्ड, मणिपुर, ओडिशा और त्रिपुरा में सबसे बड़ा उत्सव माना जाता है। नेपाल और बंगलादेश में भी बड़े त्यौहार के रुप में मनाया जाता है। दुर्गा पूजा पश्चिमी भारत के अतिरिक्त दिल्ली, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब, कश्मीर, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक और केरल में भी मनाया जाता है। हिन्दू सुधारकों ने ब्रिटिश राज में इसे भारतीय स्वतंत्रता आंदोलनों का प्रतीक भी बनाया। दिसम्बर 2021 में कोलकता की दुर्गापूजा को यूनेस्को की अगोचर सांस्कृतिक धरोहर की सूची में शामिल किया गया है।
बहू मेला जम्मू और कश्मीरः जम्मू में आयोजित होने वाले सबसे बड़े हिंदू त्योहारों में से एक है। यह जम्मू के बहू किले में नवरात्रों के दौरान मनाया जाता है। इस दौरान पर्यटक और स्थानीय लोग रंगीन पोशाकें पहनते हैं और मेले में खरीदारी करते हैं और खाने के स्टॉल में वहाँ के पारम्परिक खानों का स्वाद लेते हैं।
तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक में दशहरे से पहले नौ दिनों को तीन देवियों की समान पूजा के लिए तीन तीन दिनों में बांट दिया है। पहले तीन दिन धन और समृद्धि की देवी लक्ष्मी को समर्पित हैं। अगले तीन दिन शिक्षा और कला की देवी सरस्वती को समर्पित हैं। और बाकि तीन दिन माँ शक्ति दुर्गा को समर्पित हैं
ज़ीरो संगीत महोत्सव(25 से 28 सि.) अरुणाचल प्रदेश की ज़ीरो घटी में आयोजित होने वाला यह चार दिवसीय संगीत महोत्सव है। जो इस क्षेत्र की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत दिखाता है। यह महोत्सव स्वतं़त्र कलाकारों के लिए प्राकृतिक सुंदरता के बीच संगीत कला प्रेमियों को मंच देता है।
नीरसता को समाप्त करते हमारे पर्व आनन्द के साथ पारिवारिक, सामाजिक व राष्ट्रीय एकता में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं।
नीलम भागी(लेखिका, पत्रकार, ब्लॉगर, ट्रेवलर)
प्रेरणा शोध संस्थान नोएडा से प्रकाशित प्रेरणा विचार पत्रिका के सितम्बर अंक में यह लेख प्रकाशित हुआ है।