हम सबके गीले कपड़े गुलाब जी लेकर बस पर चले गए थे। पर्स के अलावा हमारे पास कुछ था ही नहीं। हर की पौड़ी से बाजार देखते हुए लगभग आधा किमी. चलने पर मनसा देवी का मंदिर का परिसर आ गया। मंदिर जो एक किमी. ऊँची पहाड़ी पर स्थित है। इन्हें शिव और पार्वती की पुत्री तथा विष की देवी के रुप में भी माना जाता है। यह मंदिर अत्यंत प्रसिद्ध है। इस मंदिर में मां की दो मूर्तियां स्थापित हैं। इनमें से एक मूर्ति की पंचभुजाएं और एक मुख है। वहीं दूसरी मूर्ति की आठ भुजाएं हैं। यह दुर्गा मां के 52 शक्तिपीठों में से एक है। मां सबके मन की मुराद पूरी करती है। यहां परिसर में एक वृक्ष पर सूत्र बांधा जाता है। परंतु मनोकामना पूरी होने पर निकालना भी जरुरी है। पुराणों में मां का वर्णन अलग अलग तरह से किया गया है। इनका जन्म कश्यप ऋषि के मस्तिष्क से हुआ था। मनसा किसी भी विष से अधिक शक्तिशाली थी इसलिए ब्रह्मा ने इनका नाम विषहरी रखा। वहीं विष्णुपुराण के चतुर्थ भाग में एक नागकन्या का वर्णन है। जो आगे चलकर मनसा के नाम से प्रचलित हुई। मंदिर के लिए सीधी चढ़ाई है। या 786 सीढ़ियां चढ़नी पड़तीं हैं। मंदिर सुबह 5 बजे से रात 9 बजे तक खुला रहता है। दोपहर 12 से दो बजे तक मां का श्रृंगार किया जाता है। इसलिए उस समय दर्शन नहीं कर सकते। रोप वे या चढ़ाई की ओर जाने से पहले अगर प्रशासन थोड़ा सफाई पर ध्यान दे तो कितना अच्छा हो। क्योंकि ज्यादातर श्ऱद्धालु नंगे पांव जाते हैं।
हम रोप वे से गए। 122रु की आने जाने की टिकट थी। ट्रॉली से मनोहारी प्राकृतिक सौंदर्य को निहारते हुए मन नहीं भरता की मंदिर आ जाता है। हर बार सोचती हूं कि अगर फिर कभी आई तो नेचर एंजॉय करती हुई पैदल जाउंगी।
ये सोचती हुई दर्शनार्थियों की लाइन में लग गई। हमें अच्छे से दर्शन हुए। मुझे वहां बैठना बहुत अच्छा लग रहा था, बैठी रही। क्योंकि हरिद्वार तो कई बार देखा हुआ है और कहीं जाने का मन नहीं था इसलिए यहां बैठने को समय मिल गया। वहां बैठी, देश के कोने कोने से आए लाइन में लगे श्रद्धालुओं के चेहरों से टपकती श्रद्धा को महसूस करती रही। रानी ओमपाल के दोनों जुड़वां बेटे कान्हा और केशव जरा सा हाथ छूटते ही भाग जाते हैं। सुमित्रा उन्हें पकड़ती है तो वे पूजा कर पाते हैं। हर की पौढ़ी से कान्हा और केशव ने रंगीन की बजाय प्लेन चश्मा खरीदा। अगर एक चश्मा उतार कर रखता तो दूसरा दोनों लगा लेता। कान्हा केशव और मैं हम तीन चश्में वाले थे। शायद चश्मा लगाने के कारण वे शैतानी कम कर रहे थे। इनके आते ही हम ट्रॉली से नीचे उतरे। और पैदल हर की पौढ़ी वाले रास्ते से बस की ओर चल दिए। प्रशाद तैयार था। गंगा जी के किनारे प्रशाद खाया। जिसमें उड़द चने की दाल, आलू बैंगन की सब्जी और घी टपकाती हुई गर्म तंदूरी रोटियां थीं। प्रशाद का तो स्वाद ही लाजवाब होता है। मैं खाकर बस में सीट पर सो गई। इतने में बाले और सुधा जो ननद भाभी हैं। मुझसे आकर बोलीं,’’दीदी अभी तो बहुत से लोगों ने प्रशाद लेना है। इतनी देर में हम एक बार और गंगा जी में डुबकियां लगाकर आतीं हैं। हम बस चलने से पहले ही आ जाएंगी’’ और चल दीं। सबके आते ही हमारी बसें शाकुंभरी देवी की ओर चल दीं। जो हरिद्वार से 90 किमी दूर है। क्रमशः