उस समय हील पहनना मेरे लिए किसी वरदान से कम नहीं था। हुआ यूं कि मैं गलती से हील पहन कर चल दी। मेरा लगेज़ न जाने कौन सी गाड़ी में औरों के सामान के नीचे था। इसलिये मैं चप्पल बदल नहीं पाई। गाड़ी से उतरी और चल दी। मंदिर तक ई रिक्शा जा रही थी लेकिन मुझे तो पैदल जाना था। सड़क के दोनों ओर सामान से लदी दुकाने थीं, जिनमे विदेशी सामान भी था पर भारतीय सामान बहुतायत में था। फल सब्जियों से लदे हुए ठेले थे। उन दिनों नौएडा में सेब दो सौ रूपये किलो था। सेब वाले से सेब का रेट पूछा, उसने नेपाली डेढ़ सौ रूपये किलो बताया, साथ ही भारतीय सौ रूपये में किलो बताया। किसी भी चीज का रेट पूछती , दुकानदार दो रेट बताता भारत और नेपाल का। लग ही नहीं रहा था कि हम दूसरे देश में हैं लगता भी कैसे! हमारे संबंध तो रामायण काल से हैं। सड़क के दोनो ओर सीवर का पानी था। बीच में ही चला जा सकता था। इस सड़क पर फोर व्लिर प्रतिबंधित थे। बस गंदे छींटों का डर था। पैर गंदे होने से तो हील ने बचा रक्खे थे। अब बीच सड़क में कोई सवारी भी नहीं मिल रही थी क्योंकि ई रिक्शा सवारियों से भरी आ, जा रहीं थीं। आगे जाने पर देखा की वहाँ मेन सीवर लाइन पड़ रही थी। ये सारा काण्ड उसके कारण था। पास ही विशाल सरोवर था। उस तरफ जाने के लिये जरा सा बहुत पतला रास्ता था। एक तरफ सरोवर दूसरी ओर सीवर का विशाल गड्डा। जरा सी चूक होते ही गड्डे या पानी में गिर सकते थे। बड़ी सावधानी से वहाँ से गुजरी। बहुत तेजी से काम चल रहा था। पास ही गड्डे से निकली मिट्टी का पर्वत था, जिस पर सांड दंगल कर रहे थे। सांडो के डर से जल्दी जल्दी चली थोड़ा आगे जाते ही दाएं ओर राजस्थानी वास्तुकला को दर्शाता भव्य मंदिर था। मंदिर चार बजे खुलना था। अभी दो बजे थे। आस पास शाकाहारी रैस्टोरैट थे। लंच किया वहाँ की मिठाई खाई। अब मंदिर की ओर चल दिए। रास्ते में छोटे सांड भी दंगल कर रहे थे। शायद सरोवरों के कारण सिंघाड़े बहुत बिक रहे थे। मंदिर में चप्पल रखने की बहुत उत्तम व्यवस्था थी। चप्पल जमा करके अब चार बजे तक का समय व्यतीत करना था। आदत के अनुसार मैंने घूमना और पूछताश शुरू दी। मंदिर का नाम नौलखा मंदिर है। पुत्र इच्छा की कामना से टीकम गढ़ की महारानी वृषभानु कुमारी ने इस मंदिर को बनाने का संकल्प लिया था और एक वर्ष के भीतर ही उन्होंने पु़त्र को जन्म दिया। 4860 वर्गमीटर में मंदिर का निर्माण शुरू हो गया था। बीच में महारानी का निधन हो गया था। स्वर्गीय महारानी के पति से उनकी बहन नरेन्द्र कुमारी का विवाह हो गया। अब नरेन्द्र कुमारी ने मंदिर को पूरा करवाया। इसके निर्माण में अठारह लाख रूपये लगे पर मंदिर नौ लखा के नाम से ही मशहूर है। 1657 में सूरकिशोर दास को सीता जी की प्रतिमा मिली, उन्होंने उसकी स्थापना की थी। मंदिर में श्रद्धालुओं की भीड़ में बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बंगाल, राजस्थान, महाराष्ट्र के लोग भी नेपालियों के साथ दर्शनाभिलाषी थे। उत्तर की ओर ’अखण्ड कीर्तन भवन’ है। यहाँ 1961 से लगातार कीर्तन हो रहा है। एक जगह सीढ़ी पर चलचित्र लिखा था। मात्र दस रूपये की टिकट थी। वहाँ जानकी की जन्म से बिदाई तक को र्दशाने के लिये गीत और मूर्तियां थी। सोहर, विवाह और बिदाई के गीत नेपाली में थे। मैं वहाँ खड़ी महिलाओं से भाव यानि मतलब पूछती जा रही थी। एक महिला ने बताया ," यहाँ के रिवाज बिहार और मिथिलांचल से मिलते हैं। फिर दुखी होकर बोली,"जानकी जी विवाह के बाद कभी मायके नहीं आईं। हमारी जानकी ने बड़ा कष्ट पाया। इसलिये कुछ लोग आज भी बेटी की जन्मपत्री नहीं बनवाते। न ही उस मर्हूत में बेटी की शादी करते हैं।" नीचे गर्भगृह में कांच के बंद शो केस में जेवर, मूर्तियां पोशाकें संभाली गईं थीं। यहाँ ’ज्ञानकूप’ के नाम से संस्कृत विद्यालय हैं। जहाँ विद्यार्थियों के रहने और भोजन की निशुल्क व्यवस्था है। चार बजे मंदिर के कपाट खुले, मैं साइड में दर्शन की प्रतीक्षा में खड़ी थी। भीड़ का एक धक्का लगा। अब मैं भीड़ में सबसे आगे मंदिर के सामने खड़ी थी। एक पुजारी ने मेरे माथे पर तिलक लगा दिया। एक ने प्रशाद दिया। मेरी आँखों से न ,जाने क्यूं आंसू बहने लगे। भीड़ से निकली तो ध्यान आया कि चढ़ावे के रूपये तो मेरी मुट्ठी में ही रह गये। मेरे में दुबारा भीड़ में जाने की हिम्मत नहीं थी। कुछ लोग दर्शन के लिये पूजा की थाली लेकर खड़े थे। एक की थाली में रूपये रख कर मैंने कहा कि इन्हें दानपात्र में डाल देना। चप्पल ले, अब हम उसी आने वाले तरीके से ही बाहर आये। वहाँ सें ई रिक्शा ले पार्किंग पर पहुँचे। क्रमशः
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Tuesday, 22 January 2019
जनकपुर और नौलखा मंदिर नेपाल यात्रा 2 Janakpur Dham, Nolakha Mandir Nepal Yatra 2 नीलम भागी
उस समय हील पहनना मेरे लिए किसी वरदान से कम नहीं था। हुआ यूं कि मैं गलती से हील पहन कर चल दी। मेरा लगेज़ न जाने कौन सी गाड़ी में औरों के सामान के नीचे था। इसलिये मैं चप्पल बदल नहीं पाई। गाड़ी से उतरी और चल दी। मंदिर तक ई रिक्शा जा रही थी लेकिन मुझे तो पैदल जाना था। सड़क के दोनों ओर सामान से लदी दुकाने थीं, जिनमे विदेशी सामान भी था पर भारतीय सामान बहुतायत में था। फल सब्जियों से लदे हुए ठेले थे। उन दिनों नौएडा में सेब दो सौ रूपये किलो था। सेब वाले से सेब का रेट पूछा, उसने नेपाली डेढ़ सौ रूपये किलो बताया, साथ ही भारतीय सौ रूपये में किलो बताया। किसी भी चीज का रेट पूछती , दुकानदार दो रेट बताता भारत और नेपाल का। लग ही नहीं रहा था कि हम दूसरे देश में हैं लगता भी कैसे! हमारे संबंध तो रामायण काल से हैं। सड़क के दोनो ओर सीवर का पानी था। बीच में ही चला जा सकता था। इस सड़क पर फोर व्लिर प्रतिबंधित थे। बस गंदे छींटों का डर था। पैर गंदे होने से तो हील ने बचा रक्खे थे। अब बीच सड़क में कोई सवारी भी नहीं मिल रही थी क्योंकि ई रिक्शा सवारियों से भरी आ, जा रहीं थीं। आगे जाने पर देखा की वहाँ मेन सीवर लाइन पड़ रही थी। ये सारा काण्ड उसके कारण था। पास ही विशाल सरोवर था। उस तरफ जाने के लिये जरा सा बहुत पतला रास्ता था। एक तरफ सरोवर दूसरी ओर सीवर का विशाल गड्डा। जरा सी चूक होते ही गड्डे या पानी में गिर सकते थे। बड़ी सावधानी से वहाँ से गुजरी। बहुत तेजी से काम चल रहा था। पास ही गड्डे से निकली मिट्टी का पर्वत था, जिस पर सांड दंगल कर रहे थे। सांडो के डर से जल्दी जल्दी चली थोड़ा आगे जाते ही दाएं ओर राजस्थानी वास्तुकला को दर्शाता भव्य मंदिर था। मंदिर चार बजे खुलना था। अभी दो बजे थे। आस पास शाकाहारी रैस्टोरैट थे। लंच किया वहाँ की मिठाई खाई। अब मंदिर की ओर चल दिए। रास्ते में छोटे सांड भी दंगल कर रहे थे। शायद सरोवरों के कारण सिंघाड़े बहुत बिक रहे थे। मंदिर में चप्पल रखने की बहुत उत्तम व्यवस्था थी। चप्पल जमा करके अब चार बजे तक का समय व्यतीत करना था। आदत के अनुसार मैंने घूमना और पूछताश शुरू दी। मंदिर का नाम नौलखा मंदिर है। पुत्र इच्छा की कामना से टीकम गढ़ की महारानी वृषभानु कुमारी ने इस मंदिर को बनाने का संकल्प लिया था और एक वर्ष के भीतर ही उन्होंने पु़त्र को जन्म दिया। 4860 वर्गमीटर में मंदिर का निर्माण शुरू हो गया था। बीच में महारानी का निधन हो गया था। स्वर्गीय महारानी के पति से उनकी बहन नरेन्द्र कुमारी का विवाह हो गया। अब नरेन्द्र कुमारी ने मंदिर को पूरा करवाया। इसके निर्माण में अठारह लाख रूपये लगे पर मंदिर नौ लखा के नाम से ही मशहूर है। 1657 में सूरकिशोर दास को सीता जी की प्रतिमा मिली, उन्होंने उसकी स्थापना की थी। मंदिर में श्रद्धालुओं की भीड़ में बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बंगाल, राजस्थान, महाराष्ट्र के लोग भी नेपालियों के साथ दर्शनाभिलाषी थे। उत्तर की ओर ’अखण्ड कीर्तन भवन’ है। यहाँ 1961 से लगातार कीर्तन हो रहा है। एक जगह सीढ़ी पर चलचित्र लिखा था। मात्र दस रूपये की टिकट थी। वहाँ जानकी की जन्म से बिदाई तक को र्दशाने के लिये गीत और मूर्तियां थी। सोहर, विवाह और बिदाई के गीत नेपाली में थे। मैं वहाँ खड़ी महिलाओं से भाव यानि मतलब पूछती जा रही थी। एक महिला ने बताया ," यहाँ के रिवाज बिहार और मिथिलांचल से मिलते हैं। फिर दुखी होकर बोली,"जानकी जी विवाह के बाद कभी मायके नहीं आईं। हमारी जानकी ने बड़ा कष्ट पाया। इसलिये कुछ लोग आज भी बेटी की जन्मपत्री नहीं बनवाते। न ही उस मर्हूत में बेटी की शादी करते हैं।" नीचे गर्भगृह में कांच के बंद शो केस में जेवर, मूर्तियां पोशाकें संभाली गईं थीं। यहाँ ’ज्ञानकूप’ के नाम से संस्कृत विद्यालय हैं। जहाँ विद्यार्थियों के रहने और भोजन की निशुल्क व्यवस्था है। चार बजे मंदिर के कपाट खुले, मैं साइड में दर्शन की प्रतीक्षा में खड़ी थी। भीड़ का एक धक्का लगा। अब मैं भीड़ में सबसे आगे मंदिर के सामने खड़ी थी। एक पुजारी ने मेरे माथे पर तिलक लगा दिया। एक ने प्रशाद दिया। मेरी आँखों से न ,जाने क्यूं आंसू बहने लगे। भीड़ से निकली तो ध्यान आया कि चढ़ावे के रूपये तो मेरी मुट्ठी में ही रह गये। मेरे में दुबारा भीड़ में जाने की हिम्मत नहीं थी। कुछ लोग दर्शन के लिये पूजा की थाली लेकर खड़े थे। एक की थाली में रूपये रख कर मैंने कहा कि इन्हें दानपात्र में डाल देना। चप्पल ले, अब हम उसी आने वाले तरीके से ही बाहर आये। वहाँ सें ई रिक्शा ले पार्किंग पर पहुँचे। क्रमशः
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