आज लंच के बाद मैं उत्कर्षिनी को लेकर चौक पासियां मासी जी के पास चल दी। पूरा रास्ता ही बाजार था। पंजाबी सूट तो विश्व प्रसिद्ध यहां मिलते ही हैं। मैचिंग परादें(चोटी में गूथने के चुटीले) उनके नीचे तरह तरह के फुम्मन लटक रहे। अपने सूट के साथ मैंचिंग रंग मिलाकर ले सकते हैं। कढ़ाई वाली पंजाबी जूतियां। गर्म कपड़े, शालें, लोइयां आदि की दुकाने। चूड़े, कलीरे कुछ भी इन गलियों से ले सकते हैं। जहां दो रास्ते निकलते, वहां मैं पूछ लेती। लस्सी, जूस की दुकाने तो बहुतायत में मिलीं। रास्ते में उत्कर्षिनी ने मुझसे पूछा,’’मासी जी शादी वाले घर में आकर रौनक देखें न।" मैंने कहा कि वो बेटी(भतीजी) के घर खायेंगी नहीं। वे कहीं नहीं जातीं। इनके दोनों दूसरे शहरों में रहने वाले बेटे खूब बुलाते हैं, बस कोई फंग्शन हो तो थोड़े समय के लिए जाती हैं और यहीं आ जाती हैं। अमृतसर में अगर किसी से सुन लिया कि फलां मंदिर में 40 दिन लगातार दिया जलाने से मनोकामना पूरी होती है तो शुरू कर देतीं हैं चालिया। किसी माता जी की खड़ी चौकी अटैण्ड करने से इच्छा पूरी होती है तो वो उस चौकीं में हाथ जोड़े खड़ी रहतीं। इस तरह और भी कोई न कोई नियम पाला रहता था। ऐसे में जाने से उनके नियम व्रत में नागा पड़ जाता है। कपूरथला में हमारा प्राचीन मंदिर है न, वहां रूक जातीं हैं। क्योंकि भगवान के आगे बैठ कर पूजा करने को मिल जाती है। उत्कर्षिनी ने प्रश्न किया कि मेरी नानीअम्मा भी तो इनकी बहन है, वो तो ऐसा नहीं करतीं, मुझसे क्रिकेट का स्कोर पूछती हैं। मैंने बताया कि इनका जवान कमाउ बेटा हमेशा की तरह घर से गया, पर लौट कर नहीं आया। उसके इंतजार में जिसने जो कहा ये करती रहीं। सब बेटे बेटियां उच्च शिक्षित, अच्छे पदों पर हैं। इनका बहुत सम्मान करते हैं। भाभियां बात बात में साडे बीजी करतीं हैं। ये मेरी सोच है कि शायद तेरे उस मामा के इंतजार में ये कभी घर नहीं छोड़ती। जब तक इनका शरीर चला, ये अपने आप को काम में लगाये रहीं। उसकी याद में रो रोकर घर का माहौल दुखमय कभी नहीं किया, मां हैं भूल तो सकतीं नहीं। घर भी आ गया। मासी जी का घर वैसे ही खुला था। पप्पी पाजी काम पर गए थे। शुभलता भाभी, मासी जी को लंच करवा कर, गुड़डी दीदी के घर जा रहीं थीं। उनकी बेटी दिव्या स्कूल में थी। अस्सी प्लस की मासी जी शॉल ओढे़ छत पर लेटीं थीं। उनके लिए ठंड थी। उत्कर्षिनी जाकर काफ़ी देर तक मासी जी के गले लगी रही। मैं उसकी फीलिंग समझ रही थी। मासी जी ने कहा कि इसे बाघा बार्डर जरुर दिखा कर लाना। उत्कर्षिनी ने पूछा,’’यहां से कितनी दूर है?’’इस उम्र में पहले की बातें बहुत याद आतीं हैं। मासी बोलीं,’’पास में ही है। जब पाकिस्तान नहीं बना था तो यहां से लोग टांगे से लाहौर चले जाते थे। हमारे इधर कुछ घर जो बटवारे के समय पाकिस्तान चले गए। तो जो वहां से इन घरों में आए, उनमें से भी 62 में चीन की लड़ाई के बाद और कुछ 65 में पाक युद्ध के बाद में दिल्ली चले गए। इनमें से ज्यादातर लाहौर से आए थे। उनका कहना था कि ये रहा लाहौर पर दिल्ली तो दूर है न पाकिस्तान से। जो पाकिस्तान से दूर से आये थे, उनके लिए अम्बरसर ही दिल्ली था, वे यहीं रुक गए। सरबजीत फिल्म की कहानी और डॉयलॉग लिखते समय उत्कर्षिनी के ज़हन में बचपन की अपने बेटे का इंतज़ार करती बड़ी नानी भी और अनदेखा मामा भी था। तभी तो उसके लेखन में इतनी फीलिंग थी। मैंने उसे भाभी जी के साथ भेज दिया। मैं भी मासी जी के साथ लेट गई। क्रमशः