लड़ने मारने में हमारी कृष्णा की ख्य़ाति दूर दूर तक थी। उसकी हरकतें जो देख लेता था वह ’गऊ की तरह सीधी’ कहना छोड़ देता था। हमेशा मेरी दादी गाय का नाम नदियों के नाम पर रखती थी ताकि वह खूब दूध दे । ये काली रंगत की थी, माथे पर तिलक था तो इसका नाम कृष्णा रखा। ये तीन ही लोगो से काबू में रहती थी, मेरे भाइयों यशपाल, अनिल और राजू ग्वाले से। राजू उसे 10 से 4 घुमाने ले जाता था। राजू को जब पैसे बढ़वाने होते थे तो इसकी शिकायत करता कि गायों के झुण्ड में सबसे आगे चलती है। कोई इससे आगे चले या बराबर तो उसे मारती है। पुरानी गायें तो इसकी आदत समझती हैं। नई गाय को ये मार के समझाती है। किसी धर्मात्मा ने बडी़ हौद पानी की बना रखी हैं। लौटते समय पहले कृष्णा पानी पियेगी फिर बाकि सब गायों का झुंड बाद में। पर कृष्णा दूध बहुत देती थी और उसके दूध में मक्खन बहुत निकलता था। भाई उसकी पिछली टांगों में रस्सी बांध कर दूध निकालता और मैं आगे बैठ कर उसकी सानी में थोड़ा थोड़ा दाना मिलाती जाती। वो खाने और बछडे़ को चाटने में व्यस्त रहती। भाई बहुत सावधानी से दूध निकालता क्योंकि किसी दिन वह ऐसे कूदती कि दूध गिर जाता। दूसरी बार वह सर्दियों में ब्याही। रात को हम उसके पहले दूध की गुड़़ वाली खीस खाकर, कृष्णा और बछड़े को ओढ़ा कर, उनके पास तसले में उपले जला कर सोये थे। रात भर बरसात होती रही। बछड़ा ठंड खा गया और मर गया। हमेशा हमारे घर में गाय रही है, ऐसा पहली बार हुआ था। कृष्णा के थन दूध से अकड़े हुए, वह बड़े कष्ट में थी। भाई ने दूहने की कोशिश की, उसने नहीं छूने दिया। राजू ने दूध दुहने वाले भेजे वो किसी को हाथ नहीं लगाने दे रही थी। राजू जिन गायों के छोटे बछड़े बछिया थे उन्हें कृष्णा के थनों में लगाता, वह लात मारती, किसी को थन पर मुंह नहीं मारने दे रही थी। उसके थनों की अकड़न बढ़ती जा रही थी। रात को राजू एक आदमी को लेकर आया। उसने कहा कि वह डायरी फार्म के बछड़े को इसका बछड़ा बनाने की कोशिश करेगा। वहां दूध मशीन से निकालते हैं। बछड़ा वे छोड़ देते हैं। आप जाकर डायरी फार्म से बछड़ा ले आओ, लेकिन कृष्णा उसे देखे नहीं न ही उसकी आवाज सुने। पिताजी ने उसे बताया कि यह किसी बछड़े बछिया को पास नहीं आने देती। उसने कहा कि पशुओं में सूंघने की शक्ति बहुत होती है। यह उसमें अपनी गंध सूंघती है। पैदा होते ही यह उसे चाटती है। उसमें मैं वही गंध दूंगा। आगे ऊपरवाले की मर्जी। एक नया मलमल का उबाला कपड़ा, कूटा गुड़ और आजवाइन चाहिए। कल आने का बोल गया। इसी घर में जन्मी कृष्णा को कष्ट में देखकर पिताजी तड़के ही बछड़ा लेने चले गये। उसे दो घर छोड़ कर रखा गया। वह भला आदमी दो साथी लेकर सुबह ही आ गया। हममें से किसी को बाहर आने की इजाज़त नहीं थी। आधे घण्टे बाद बधाई देने की आवाज़ आई और साथ ही दूध निकालने की बाल्टी मंगवाई। पिताजी बोले,’’पीने दो इसे, कृष्णा को बछड़ा मिला है। देखो कैसे इसे चाट रही है!! सुनते ही वह बोला,’’छोटा है ज्यादा दूध पीने से इसका पेट चल जायेगा।’’उस समय का सब दूध और इनाम देकर उन तीनों को पिताजी ने भेजा। बछड़े का नाम लकी हो गया। कृष्णा उसे छोड़ कर राजू के साथ भी नहीं जाती थी। उसे बस लकी दिखना चाहिए था। पर लकी खुला होने पर सड़क पर गुजरती किसी भी गाय का दूध पीने दौड़ता था। हमारा आठ महीने दूध पीते बीते। कृष्णा लकी को अलग करने का पिताजी का मन नहीं था और मेरठ में घर छोटा था। लकी नहीं रख सकते थे, वो बहुत तगड़ा था। पिताजी के ऑफिस के साथी का गांव पास में था। उसे लकी के साथ कृष्णा इस शर्त पर दी कि इन्हें अलग नहीं करना। गोपा अष्टमी पर अब तक सब पाली गायों में से कृष्णा लकी बहुत याद आते हैं।
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