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Monday, 4 November 2024

नदी केन्द्रित, लोककथाओं से समृद्ध नवंबर के उत्सव नीलम भागी November Festivals Neelam Bhagi

 



रवि की फसल की बुआई हो जाती है फिर बड़ी श्रद्धा और उत्साह से उत्सव मनाते हैं। इन सभी उत्सवों में प्रकृति, वनस्पति और जल है।



दीपावली उत्सव(1नव.) धूमधाम से मिट्टी के दिए जलाकर, पर लक्ष्मी जी की पूजा खील बताशे से की जाती है ताकि गरीब अमीर सब कर सकें। मेवा, मिठाई खूब खाया जाता है। दिवाली के अगले दिन पर्यावरण और समतावाद का संदेश देता, गोर्वधन पूजा अन्नकूट का उत्सव दुनिया के किसी भी कोने में रहने वाला कृष्ण प्रेमी परिवार के साथ या सामूहिक रुप से मनाता है। जिसमें 56 भोग बनते हैं। यम द्वितीया का त्यौहर भाई दूज, मथुरा में बहन भाई यमुना जी में नहा कर मनाते हैं। भाई, बहन के घर जाता है। बहन भाई का खूब आदर सत्कार करती है। भाई बहन को उपहार देता है।

सादगी, पवित्रता, लोकजीवन की मिठास का पर्व ’छठ’ है। छठ पर्व(5 से 8 नव.) में प्रकृति पूजा सर्वकामना पूर्ति, सूर्योपासना के निर्जला व्रत को स्त्री, पुरुष और बच्चों के साथ अन्य धर्म के लोग भी मनाते हैं। छठ पूजा, जिसमें किसी पुरोहित की जरुरत नहीं है। घाट साफ सफाई सब आपसी सहयोग से कर लेते हैं। बिहारियों का पर्व उनकी संस्कृति है। छठ उत्सव, प्रवासी अपने प्रदेश जैसा ही मनाता है। 

चार दिन का कठोर व्रत नहाय खाय से शुरु होता है। सूर्यास्त पर व्रती, चावल और लौकी की सब्जी को खाता है। दूसरा दिन निर्जला व्रत खरना कहलाता है। शाम सात बजे गन्ने के रस और गुड़ की बनी खीर खाते हैं। चीनी नमक नहीं। अब सख्त व्र्रत शुरु होता है निर्जला व्रत, दिन भर व्रत के बाद सूर्य अस्त से पहले घर में देवकारी में रखा डाला(दउरा) उसमें प्रकृति ने जो हमें अनगिनत दिया है उनमें से इसे भर कर, डाला को सिर पर रख कर सपरिवार घाट पर जाते हैं। व्रती पानी में खड़े होकर हाथ में डाले के सामान से भरा सूप लेकर सूर्य को अर्घ्य देती है। सूर्यास्त के बाद सब घर चले जातें हैं, फिर सूर्योदय अर्घ्य के बाद व्रत का पारण होता है।

वंगाला(8 नवं)मेघालय में गारो समुदाय द्वारा फसल कटाई से सम्बन्धित उत्सव है। गारो भाषा में ’वंगाला’ का अर्थ ’सौ ढोल’ है। सूर्यदेवता(सलजोंग) के सम्मान में गारो आदिवासी ’वांगला’ नामक त्योहार मनाते हैं। एक हफ्ते तक मौखिक, पीढ़ी दर पीढ़ी परम्परा से सूर्य की आराधना की जाती है। रंगीन वेषभूषा में सिर पर पंख सजाकर अंडाकार आकार में खड़े होकर ढोल की ताल पर नृत्य करते हैं।

गोपाष्टमी पर्व( 9 नव) श्री कृष्ण और उनकी गायों को समर्पित है। इस दिन गौधन की पूजा की जाती है। अक्षय नवमीं(10 नव.) जिसे आंवला नवमी भी कहते हैं। इस दिन स्वास्थ्यवर्धक आंवले के पेड़ की पूजा की जाती है।

     कुछ उत्सव किसी अंचल में मनाए जाते हैं। कुछ देश भर में, भले ही नाम अलग अलग हों। जैसे दक्षिण भारत में कार्तिक मास के पावन अवसर पर काकड़ आरती का प्रारंभ, परम्परानुसार शरदपूर्णिमा के दूसरे दिन से होता हैं। देवउठनी एकादशी(12 नव.) के अवसर पर काकड़ आरती को भव्य स्वरूप दिया जाता है। तुलसी सालिगराम का विवाह(13 नवंबर)को मनाया जाता है। वारकरी सम्प्रदाय के बुजुर्ग बताते हैं कि संत हिरामन वाताजी महाराज ने 365 वर्ष पहले काकड़ आरती की शुरुआत की थी। आरती में शामिल होने के लिए श्रद्धालु प्रातः 5 बजे विटठल मंदिर में आते हैं और भजन मंडलियां पकवाद, झांज, मंजीरों एवं झंडियों के साथ नगर भ्रमण करती है। जगह जगह चाय, कॉफी, दूध एवं ंनाश्ते की व्यवस्था श्रद्धालुओं द्वारा रहती है। प्रत्येक मंदिर में सामूहिक काकड़ा जलाकर काकड़ आरती प्रातः 7 बजे तक, प्रशाद वितरण के साथ सम्पन्न होती है। इसी तरह उत्तर भारत में प्रभात फेरी निकाली जाती है।

गंगा महोत्सव(11 से 15 नव.) कार्तिक पूर्णिमा को त्रिपुरारी पूणर््िामा भी कहते हैं। त्रिपुरास राक्षस पर शिव की विजय का उत्सव है। शास्त्रों में वर्णित है कि कार्तिक पूर्णिमा के दिन पवित्र नदी, में स्नान करते हैं। इसे देव दीपावली(15 नवम्बर ) गंगा दीपावली के रूप में मनाते हैं। गंगा नदी और देवी देवताओं के सम्मान में घरों में रंगोली बना कर तेल के दियों से सजाते हैं। महाभारत काल में हुए 18 दिन युद्ध के बाद की स्थिति से युधिष्ठिर कुछ विचलित हो गए तो श्री कृष्ण पाण्डवों के साथ गढ़ खादर के विशाल रेतीले मैदान में आए। कार्तिक शुक्ल अष्टमी को पाण्डवों ने स्नान किया और कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी तक गंगा किनारे यज्ञ किया। इसके बाद दिवंगत आत्माओं की शंांित के लिए दीपदान करते हुए श्रद्धांजलि अर्पित की। इस दिन गंगा स्नान का विशेष महत्व है। भारत देश भक्ति से जुड़ा हैं। इस दिन बहादुर सैनिक जो भारत के लिए लड़ते हुए शहीद हो गए हैं उन्हें श्रद्धांजलि दी जाती है।  

  गुरू नानक जयंती(15 नवंबर) को गुरुद्वारों की सजावट देखने लायक होती है। शबद कीर्तन होता है और लंगर वरताया जाता है।

सामाजिक समरसता का प्रतीक ’वन भोजन’ भी कार्तिक मास में आयोजित किए जाते हैं। इसमें कुछ लोग मिलकर अपनी सुविधा के दिन, किसी नदी सरोवर के पास अपना बनाया खाना, लेकर प्रकृतिक परिवेश में एक जगह रख देते हैं। कोई प्रोफैशनल नहीं होता है, जिसे जो आता है वो अपनी प्रस्तुति देता है। खूब मनोरंजन होता है। फिर सब मिल जुल कर भोजन करते हैं। जल के किनारे शाम को दीपक जला कर लौटते हैं। 


बाली जात्रा कटक एशिया का सबसे बड़ा मेला कार्तिक पूर्णिमा को लगता है। विशाल मैदान! जिसका मुझे अंतिम छोर नजर नहीं आ रहा था जो महानदी के गडगड़िया घाट पर लगता है। बाली जात्रा कटक, 2000 साल पुराने समुद्री संस्कृतिक संबंधों को दर्शाता है। प्राचीन काल में यहां के ओड़िआ नाविक व्यापारी जिन्हें ’साधवा’ कहा जाता था, जावा, सुमात्रा, बोर्नियो (इंडोनेशिया), वर्मा (म्यांमार) सिलोन (श्रीलंका) से व्यापार करते थे। कार्तिक पूर्णिमा के दिन से यह 4 महीने के लिए व्यापार के लिए निकलते थे। इस समुद्री यात्रा में हवा इनका साथ देती थी। पाल वाली नाव हवा की दिशा और पवन ऊर्जा पर निर्भर यह नाविक, समुद्री व्यापारी, व्यापार के लिए चल देते थे।  इस बड़ी-बड़ी जहाजनुमा नाव को ’बोइतास’ कहा जाता है। जब यह व्यापार को जाते थे तो परिवार की महिलाएं उनकी कुशल वापसी के लिए अनुष्ठान करती थीं। जिसे ’बोइता वंदना’ कहते हैं, जो एक परंपरा बन गया है। उसके प्रतीकात्मक आज इसमें बोइता (छोटी नाव) उत्सव भी मनाया जाता है। यानि कार्तिक पूर्णिमा को सुबह जल्दी पूर्वजों की याद में ’बोइता वंदना’ अपने घर के आसपास, जहां भी जल होता है। उसमें सुबह-सुबह कागज या सूखे केले के पत्तों से नाव बनाकर, उसमें दीपक जलाकर और पान रखकर, उन जांबाज नाविकांे की याद में, जल में प्रवाहित करते हैं। पूर्वजों की यात्रा के प्रतीकात्मक रूप में समुद्री नाविक व्यापारियों के लिए है बाली जात्रा। कटक नगर निगम द्वारा आयोजित बाली यात्रा के एक कार्यक्रम में 22 स्कूलों के 2100 बच्चों ने 35 मिनट में 22000 कागज की नाव बनाने का विश्व रिकॉर्ड बनाया है। बाली यात्रा कीर्तिमान है और गिनी बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज है। पर्वों पर नदी स्नान करना हमारे धर्म में है। यहां तो पवित्र महानदी के किनारे बाली यात्रा का आयोजन किया जाता है तो श्रद्धालु ’बोइता वंदना’ के बाद महानदी में स्नान कर, धार्मिक महत्व की बाली जात्रा में शामिल होकर, मेले का आनंद उठाते हैं। यह व्यापार, वाणिज्य सांस्कृतिक खुला मेला है। लाखों की संख्या में यहां लोग आते हैं। एक ही स्थान पर सबके लिए सब कुछ है। युवाओं के लिए आधुनिक संगीतमय, सांस्कृतिक कार्यक्रम है, पारंपरिक कार्यक्रम है। विभिन्न विषयों पर चर्चा के लिए मंडप है। लोक संस्कृति की झलक है। स्थानीय व्यंजन दही बड़ा आलू दम, धुनका पुरी, कुल्फी गुपचुप आदि के खाद्य स्टॉल हैं, खिलौने, अनोखी वस्तुएं है व्यापार मेले का इतिहास है। हथकरघा, हस्तशिल्प, कला, अनुष्ठान हैं। प्राचीनता और नवीनता है। कलिंग(पूर्व में उड़ीसा) प्रसिद्ध शक्तिशाली समुद्री शक्ति थी। बाली जात्रा उड़ीसा के समृद्ध समुद्री विरासत का प्रतीक है।

झिड़ी का मेलाः जम्मू से 22 किमी. दूर झिड़ी गाँव है। इस स्थान पर बाबा जित्तो और बुआ कौड़ी का मंदिर है। जित्तो का जीवन हक, उसूलों और अधिकारों का संघर्ष है, उनकी याद में लगने वाला, उत्तर भारत में सबसे बड़ा वार्षिक किसान झिड़ी का मेला है। जिसमें मुख्य आर्कषण खेती बाड़ी से जुड़े स्टॉल होते हैं। झिड़ी गाँव में यह मेला कार्तिक पूर्णिमा से तीन दिन पहले और तीन दिन बाद तक क्रांतिकारी ब्राह्मण किसान, माता वैष्णों के परम भक्त ’बाबा जित्तो’ और उनकी बेटी, ’बालरुप कौड़ी बुआ’ की याद में लगता है। देश भर से आए श्रद्धालुओं को ठहराने के लिए स्कूल कॉलिज सब बंद रहते हैं और 24 घण्टे भण्डारा चलता है। श्रद्धालु बाबा तालाब में स्नान करते हैं। मन की मुराद पूरी होती है। ऐसा माना जाता है कि उसमें नहाने से त्वचा रोग ठीक हो जाते हैं, निसंतान को संतान प्राप्त होती है। मेले में किसानों से जुड़े लगभग डेढ़ दर्जन विभाग सक्रिय रहते हैं। मेले के मुख्य आर्कषण खेती, बागवानी, डेयरी, रेशम उद्योग, खादी, फलवारी, नवीन तकनीक, अच्छे माल मवेशी, दंगल और ग्रामीण खेल हैं। श्रद्धालु बुआ कौड़ी के लिए गुड़िया लाते हैं। बाबा जित्तो ने उस समय की सामंती व्यवस्था पर सवाल खड़े किए थे। आज किसान सबसे पहले अपने खेत का अनाज बाबा जित्तो को चढ़ाते हैं, बाद में अपने लिए रखते हैं क्योंकि उन खेतों में जाने वाला पानी बाबा जित्तो की ही देन है। 

 कार्तिक पूर्णिमा से शुरु होने वाला पुष्कर का ऊँट मेला(9से 15 नव), विदेशी सैलानियों को भी आकर्षित करता है। कई किमी. तक यह मेला रेत में लगता है जिसमें खाने, झूले, लोक गीत, लोक नृत्य होते हैं। कालबेलिया नृत्य ने तो विदेशों में भी धूम मचा दी है। ऊँटों को पारंपरिक परिधानों में सजाया जाता है। ऊँट नृत्य करते हैं और इनसे वेट लिफ्टिंग भी करवाई जाती है। रात को आलाव जला कर गाथाएं भी सुनाई जाती हैं। कार्तिक पूर्णिमा के दिन लाखांे श्रद्धालु पुष्कर झील में स्नान करके ब्रह्मा जी के मंदिर में दर्शन करते हैं। अगर ऊँट खरीदना हो तो खरीदते हैं। सबसे सुन्दर ऊँट और ऊँटनी को इनाम मिलता है।   

जैन का धार्मिक दिवस प्रकाश पर्व है। 

रण उत्सव(1नवं से 28 फरवरी) गुजरात का रण उत्सव, अपनी रंगीन कला और संस्कृति के लिए विश्व प्रसिद्ध है। तीन महीने तक मनाये जाने वाले इस उत्सव में कला, संगीत, संस्कृति के साथ इसमें बुनकर, संगीतकार, लोक नर्तक और राज्य के श्रेष्ठ व्यंजन निर्माताओं के साथ कारीगर भी आते हैं। इस दौरान कलाकार रेत में भारत के इतिहास की झलक पेश करते हैं।

सोनपुर मेला(13नव से 14 दिसम्बर) गंडक नदी के तट पर एशिया का सबसे बड़ा पशु मेला कार्तिक पूर्णिमा  स्नान के बाद शुरु होता है। चंद्र गुप्त मौर्य, अकबर और 1857 के गदर के नायक वीर कुँवर सिंह ने भी यहाँ से हाथियों की खरीद की थी। सन् 1803 में रार्बट क्लाइव ने सोनपुर में घोड़े के लिए अस्तबल बनवाया था। यहाँ घोड़ा, गाय, गधा, बकरी सब बिकता था। पर आज की जरुरत के अनुसार यह आटो एक्पो मेले का रुप लेता जा रहा हैं। हरिहर नाथ की पूजा होती है। नौका दौड़, दंगल खेल प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती हैं। यह मेला 15 किमी. तक फैलता है।

 बूंदी महोत्सव(30 नवं.से 2 दिस.) राजस्थान के हड़ौती क्षेत्र में छोटा सा बूंदी अपनी ऐतिहासिक वास्तुकला और संस्कृति के लिए जाना जाता है। इसके खूबसूरत दर्शनीय स्थलों और प्रसिद्ध मंदिरों में हनुमान जी मंदिर, राधाई कृष्ण मंदिर, नीलकंठ महादेव बूंदी के कारण यह छोटी काशी के रुप में जाना जाता है। इसमें किलों का भी मेल है। बूंदी उत्सव में बिना किसी शुल्क के सांस्कृतिक गतिविधियों, विभिन्न प्रतियोगिताओं और रंगारंग कार्यक्रमों का आनन्द उठाने के लिए दुनिया भर से लोग हड़ौती पहुंचते हैं। राजस्थानी व्यंजनों के स्वाद के साथ खरीदारी कर सकते हैं कार्तिक पूर्णिमा की रात में महिला पुरुष दोनों पारंपरिक वेशभूषा पहनकर चंबल नदी के तट पर दिया जला कर, आर्शीवाद लेते हैं। 

माजुली महोत्सव(21 से 24 नव) ब्रह्मपुत्र नदी पर स्थित माजुली द्वीप पर संगीत और नृत्य के द्वारा असम की सांस्कृतिक विरासत का उत्सव है। यह दुनिया भर से संगीत प्रेमियों को आकर्षित करता है।    

कार्तिक मास में तीर्थस्थानों पर स्नान करते हैं। धर्म और लोककथाओं के साथ, उत्सव में नदियाँ हमारी संस्कृति की पोषक हैं।


 यह लेख प्रेरणा शोध संस्थान नोएडा से प्रकाशित प्रेरणा विचार पत्रिका के नवंबर अंक में प्रकाशित हुआ है।

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Sunday, 13 November 2022

कोई कहे गोविंदा, कोई कहे गोपाला उत्सव मंथन नवंबर नीलम भागी Utsav Manthan Nov Neelam Bhagi

 

जब कृष्णा पागांडा उम्र(6-10) साल में प्रवेश करते हैं तब उन्होंने गाय चराने जाने की ज़िद पकड़ ली। छ साल के कान्हा कहते हैं कि वे बड़े हो गए इसलिए गाय चराने जायेंगे। नंद बाबा ने शांडिल्य ऋषि से मुहुर्त निकलवाया तो उसी दिन का मुहुर्त निकला। इसके अतिरिक्त 12 महीने तक कोई मुहुर्त ही नहीं था। अब भला बच्चे को 12 तक रुलाएगा! कृष्ण और बलराम इस दिन से गाय चराने गए और गोपाल बने। कार्तिक महीने की शुक्ल पक्ष की अष्टमी यानि गोवर्धन पूजा के सातवें दिन गोपाष्टमी पर्व(1नवम्बर) के रुप में मनाया जाता है। यह उत्सव श्री कृष्ण और उनकी गायों को समर्पित है। इस दिन गौधन की पूजा की जाती है। गाय और बछड़े की पूजा करने की रस्म महाराष्ट्र में गोवत्स द्वादशी के समान है। हमारे परिवारों में तो गाय परिवार का मुख्य सदस्य  है, तभी तो फैमली फोटोग्राफ में होती है।


गंगा के लिए गोपाष्टमी को गुड़ सौंफ का दलिया बनता था और उसके दूध से खीर बनती जो इस दिन गोपाला के भजन कीर्तन का प्रशाद होती है। भगवान कृष्ण के जीवन में गौ का महत्व बहुत अधिक था। उनकी गौसेवा के कारण ही इंद्र ने उनका नाम गोविंद रखा। महानगरों में गाय घरों में नहीं पलतीं लेकिन गोपाष्टमी पर उनकी पूजा जरुर की जाती है।

     कुछ उत्सव किसी अंचल में मनाए जाते हैं। कुछ देश भर में, भले ही नाम अलग अलग हों। जैसे दक्षिण भारत में भी कार्तिक मास के पावन अवसर पर काकड़ आरती का प्रारंभ परम्परानुसार शरदपूर्णिमा के दूसरे दिन से होता हैं। देवउठनी एकादशी के अवसर पर काकड़ आरती को भव्य स्वरूप दिया जाता है। तुलसी सालिगराम का विवाह उत्सव(5 नवंबर)को मनाया जाता है। वारकरी सम्प्रदाय के बुजुर्ग बताते हैं कि संत हिरामन वाताजी महाराज ने 365 वर्ष पहले काकड़ आरती की शुरुआत की थी। आरती में शामिल होने के लिए श्रद्धालु प्रातः 5 बजे विटठल मंदिर में आते हैं और भजन मंडलियां पकवाद, झांज, मंजीरों एवं झंडियों के साथ नगर भ्रमण करती है। जगह जगह चाय, कॉफी, दूध एव नाश्ते की व्यवस्था श्रद्धालुओं द्वारा रहती है। प्रत्येक मंदिर में सामुहिक काकड़ा जलाकर काकड़ आरती प्रातः 7 बजे तक प्रशाद वितरण के साथ सम्पन्न होती है। उत्तर भारत में प्रभात फेरी निकाली जाती है। 

कार्तिक पूर्णिमा को त्रिपुरारी पूर्णिमा भी कहते हैं। त्रिपुरास राक्षस पर शिव की विजय का उत्सव है। शास्त्रों में वर्णित है कि कार्तिक पूर्णिमा के दिन पवित्र नदी, सरोवर एवं गंगा, यमुना, गोदावरी, नर्मदा, गंडक, कुरुक्षेत्र अयोध्या, काशी में स्नान करने से विशेष पुण्य की प्राप्ति होती है। इसे देव दीपावली(7नवम्बर, ग्रहण के कारण परिवर्तन हो सकता है) गंगा दीपावली के रूप में मनाते हैं। गंगा नदी और देवी देवताओं के सम्मान में घरों में रंगोली बना कर तेल के दियों से सजाते हैं।

 महाभारत काल में हुए 18 दिन युद्ध के बाद की स्थिति से युधिष्ठिर कुछ विचलित हो गए तो श्री कृष्ण पाण्डवों के साथ गढ़ खादर के विशाल रेतीले मैदान में आए। कार्तिक शुक्ल अष्टमी को पाण्डवों ने स्नान किया और कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी तक गंगा किनारे यज्ञ किया। इसके बाद दिवंगत आत्माओं की शक्ति के लिए दीपदान करते हुए श्रद्धांजलि अर्पित की। इस दिन गंगा स्नान का और विशेष रुप से गढ़मुक्तेश्वर में स्नान करने का विशेष महत्व है। यह देश भक्ति से भी जुड़ा हैं। इस दिन बहादुर सैनिक जो भारत के लिए लड़ते हुए शहीद हो गए हैं उन्हें श्रद्धांजलि दी जाती है। 

  गुरू नानक जयंती(8 नवंबर) को उत्सव की तरह मनाया जाता है। गुरुद्वारों में शबद कीर्तन होता है और लंगर वरताया जाता है।

सामाजिक समरसता का प्रतीक वन भोजनभी कार्तिक मास में आयोजित किए जाते हैं। इसमें कुछ लोग मिलकर अपनी सुविधा के दिन, अपना बनाया खाना लेकर प्रकृतिक परिवेश में एक जगह रख देते हैं। कोई प्रोफैशनल नहीं होता है, जिसे जो आता है वो अपनी प्रस्तुति देता है। खूब मनोरंजन होता है। फिर सब मिल जुल कर भोजन करते हैं। क्रमशः

प्रेरणा शोध संस्थान से प्रकाशित केशव संवाद के नवंबर अंक में यह लेख प्रकाशित हुआ है।




Saturday, 21 November 2020

लड़ाकी कृष्णा नीलम भागी Ladaki Krishana Neelam Bhagi गोपाष्टमी की हार्दिक बधाई






 लड़ने मारने में हमारी कृष्णा की ख्य़ाति दूर दूर तक थी। उसकी हरकतें जो देख लेता था वह ’गऊ की तरह सीधी’ कहना छोड़ देता था। मेरी दादी गाय का नाम नदियों के नाम पर रखती थी। ये काली रंगत की थी, माथे पर तिलक था तो इसका नाम कृष्णा रखा। ये तीन ही लोगो से काबू में रहती थी, मेरे भाइयों और राजू ग्वाल से। राजू उसे 10 से 4 घुमाने ले जाता था। राजू को जब पैसे बढ़वाने होते थे तो इसकी शिकायत करता कि गायों के झुण्ड में सबसे आगे चलती है। कोई इससे आगे चले या बराबर तो उसे मारती है। पुरानी गायें तो इसकी आदत समझती हैं। नई गाय को ये मार के समझाती है। किसी धर्मात्मा ने बडी़ हौद पानी की बना रखी हैं। लौटते समय पहले कृष्णा पानी पियेगी फिर बाकि सब गायों का झुंड बाद में। पर कृष्णा दूध बहुत देती थी और उसके दूध में मक्खन बहुत निकलता था। भाई उसकी पिछली टांगों में रस्सी बांध कर दूध निकालता और मैं आगे बैठ कर उसकी सानी में थोड़ा थोड़ा दाना मिलाती जाती। वो खाने और बछडे़ को चाटने में व्यस्त रहती। भाई बहुत सावधानी से दूध निकालता क्योंकि किसी दिन वह ऐसे कूदती कि दूध गिर जाता। दूसरी बार वह सर्दियों में ब्याही। रात को हम उसके पहले दूध की गुड़़ वाली खीस खाकर, कृष्णा और बछड़े को ओढ़ा कर, उनके पास तसले में उपले जला कर सोये थे। रात भर बरसात होती रही। बछड़ा ठंड खा गया और मर गया। हमेशा हमारे घर में गाय रही है, ऐसा पहली बार हुआ था। कृष्णा के थन दूध से अकड़े हुए, वह बड़े कष्ट में थी। भाई ने दूहने की कोशिश की, उसने नहीं छूने दिया। राजू ने दूध दुहने वाले भेजे वो किसी को हाथ नहीं लगाने दे रही थी। राजू जिन गायों के छोटे बछड़े बछिया थे उन्हें कृष्णा के थनों में लगाता, वह लात मारती, किसी को थन पर मुंह नहीं मारने दे रही थी। उसके थनों की अकड़न बढ़ती जा रही थी। रात को राजू एक आदमी को लेकर आया। उसने कहा कि वह डायरी फार्म के बछड़े को इसका बछड़ा बनाने की कोशिश करेगा। वहां दूध मशीन से निकालते हैं। बछड़ा वे छोड़ देते हैं। आप जाकर डायरी फार्म से बछड़ा ले आओ, लेकिन कृष्णा उसे देखे नहीं न ही उसकी आवाज सुने। पिताजी ने उसे बताया कि यह किसी बछड़े बछिया को पास नहीं आने देती। उसने कहा कि पशुओं में सूंघने की शक्ति बहुत होती है। यह उसमें अपनी गंध सूंघती है। पैदा होते ही यह उसे चाटती है। उसमें मैं वही गंध दूंगा। आगे ऊपरवाले की मर्जी। एक नया मलमल का उबाला कपड़ा, कूटा गुड़ और आजवाइन चाहिए। कल आने का बोल गया। इसी घर में जन्मी कृष्णा को कष्ट में देखकर पिताजी तड़के ही बछड़ा लेने चले गये। उसे दो घर छोड़ कर रखा गया। वह भला आदमी दो साथी लेकर सुबह ही आ गया। हममें से किसी को बाहर आने की इजाज़त नहीं थी। आधे घण्टे बाद बधाई देने की आवाज़ आई और साथ ही दूध निकालने की बाल्टी मंगवाई। पिताजी बोले,’’पीने दो इसे, कृष्णा को बछड़ा मिला है। देखो कैसे इसे चाट रही है!! सुनते ही वह बोला,’’छोटा है ज्यादा दूध पीने से इसका पेट चल जायेगा।’’उस समय का सब दूध और इनाम देकर उन तीनों को पिताजी ने भेजा। बछड़े का नाम लकी हो गया। कृष्णा उसे छोड़ कर राजू के साथ भी नहीं जाती थी। उसे बस लकी दिखना चाहिए था। पर लकी खुला होने पर सड़क पर गुजरती किसी भी गाय का दूध पीने दौड़ता था। हमारा आठ महीने दूध पीते बीते। कृष्णा लकी को अलग करने का पिताजी का मन नहीं था और मेरठ में घर छोटा था। लकी नहीं रख सकते थे, वो बहुत तगड़ा था। पिताजी के ऑफिस के साथी का गांव पास में था। उसे लकी के साथ कृष्णा इस शर्त पर दी कि इन्हें अलग नहीं करना। गोपा अष्टमी पर अब तक सब पाली गायों में से कृष्णा लकी बहुत याद आते हैं।             


Tuesday, 8 May 2018

गंगा, गीता और बीफ़!! न न न......Ganga Ghita & Beef na na na...... नीलम भागी








रात को सोने से पहले मैं, मेरी बेटी उत्कर्षिणी से विडियो कॉल करती हूँ। उस समय वह विदेश में अपनी बेटी गीता को स्कूल के लिये तैयार कर रही होती है। गीता मुझसे बातों में लग जाती है और उत्कर्षिणी उसके घुंघराले बाल सुलझा कर चोटी बना देती है। आज फोन गीता ने उठा कर कहा,’’नानी आज मम्मा स्कूल के लिये लंच बना रही है।’’उससे बातें करके फोन रख दिया। मैं सोचने लगी कि गीता के स्कूल में तो ब्रेकफास्ट, लंच, इवनिंग स्नैक्स सब मिलता है। फिर क्यों उत्कर्षिणी बना रही थी! गीता को स्कूल छोड़कर आते समय मेरी उत्कर्षिणी से बात हुई तो उसने बताया कि उसने स्कूल में गीता की टीचर से कह रक्खा है कि गीता को बीफ नहीं देना है। जिस दिन लंच में बीफ होता है। उसे खाने में उस दिन कार्बोहाइड्रेट, फाइबर में भी जो कुछ होता है, नहीं देते क्योंकि उसमें गलती होने की सम्भावना है। स्कूल से साप्ताहिक मैन्यू आ जाता है। जिस दिन लंच में बीफ होता है। उस दिन वह घर से खाना देती है।
 उत्कर्षिणी बोली,’’माँ, मैं दुनिया भर में घूमती हूँ पर मैं और मेरा परिवार, बीफ कभी नहीं खाता। गंगा का दूध पीकर बड़ी हुई हूँ न’’मैंने पूछा,’’गीता को कैसे समझाओगी? क्योंकि विदेश में संस्कृति में बदलाव बच्चों से ही होता है। वे स्कूल में एक दूसरे के दोस्त बनते हैं। उनके घरों में आते जाते हैं और उनमें परिवर्तन होता जाता है।’’ उत्कर्षिणी ने जवाब दिया,’’हम गीता के साथ घर में हिन्दी और पंजाबी बोलते हैं। इण्डिया में आप संयुक्त परिवार में रहती हो। इसलिये उसकी कई मौसियाँ हैं। उसकी माँ ने गंगा का दूध पिया है। इसलिये कोई भी गाय गंगा की बहन होती है यानि उसकी मौसी। यहाँ किसी को बुरा न लगे इसलिये इसे सीखा रक्खा है, ये बीफ को ’मासी’ बोलती है। जिसे नहीं खाते हैं। हमारे यहाँ तो गाय परिवार का हिस्सा होती है। इसलिये फैमिली फोटो में होती है। मेरे बचपन की फोटो में मैं माया मासी की गोद में हूं ,बीच में गंगा और पीछे अम्मा हैं। गीता के लिये तस्वीर की गाय गंगा है और दुनिया की सभी गाय गंगा की बहने हैं यानि मासी और मासी को नहीं खाते।’’

’’आप अब सो जाओ बहुत रात हो गई’’, यह कह कर उत्कर्षिणी ने फोन काट दिया। और मेरी स्मृति में गंगा आ गई।
  जब गोमती मरी तो गंगा छ महीने की थी। हम सब बिन माँ की छोटी सी बछिया को बहुत लाड़ करते थे। इतनी दूधारू गाय एक दम मर गई। पिताजी ने फैसला सुना दिया कि हमारे यहाँ तो पहली गाय की बछिया ही बड़ी होती है। नई गाय नहीं खरीदी जायेगी। गंगा ही पाली जायेगी। हमारा घर छोटा था। परिवार बड़ा था। दो गाय रखने की जगह नहीं थी। चारे की दुकान, स्कूल कॉलिज, पिताजी का ऑफिस सब पास था। सुबह का दूध निकाल कर, सड़क पर लगे खूंटे से गाय बांध देते। दिन भर गाय राजू ग्वाले के साथ आउटिंग पर जाती। शाम को सड़क पर बांध लेते। दूध दूहने के समय आंगन में ले आते। रात को बाहर नहीं बांध सकते थे, चोरी का जो डर था। उन दिनों पहली बार हमारा घर धारोष्ण दूध के बिना रहा था। मैं तब बी.एड कर रही थी। सर्दियों के दिन थे। रात दस बजे की सानी हमेशा मैं ही बनाती थी। इस समय मुझे गोमती बहुत याद आती थी। अगर मैं कोर्स की किताब पढ़ती तो मुझे नींद आ जाती, जिससे कई बार गोमती भूखी रह जाती और वह भी आधी रात को मां मां करने लगती। तब अम्मा पिताजी मुझे कोसते कि बेजुबान को मैंने भूखा रक्खा, जिसकी सजा थी एक हफ्ते तक सुबह पाँच बजे की सानी भी मुझे बनानी पड़ती थी। अच्छी कहानी पढ़ते समय मुझे कभी भी नींद नहीं आती इसलियेे मैं एक कहानी की किताब छिपा कर रखती थी। डीडी समाचार के बाद सब सो जाते थे तो मैं कहानी की किताब पढ़ने लगती और गोमती को समय पर सानी मिलती थी। गोमती के न रहने पर मैं सबके सोने पर गर्म कपड़े में लिपटी गंगा को कमरे में लाकर अपनी चारपाई के पाये से बांध देती। उसके नीचे जूट की बोरियां बिछा देती। पास ही बाल्टी रख लेती। मैं चकाचक सफेद कवर की रजाई  ओढ़ कर पढ़ती,  गंंगा उस पर गर्दन टिका कर बड़े लाड़ से खड़ी रहती। मैं पढ़ती रहती और ध्यान रखती की गोबर मूत्र न कर  दे। जब करने लगती तो मैं नीचे बाल्टी लगा देती। वह उसमें कर देती। बहुत समझदार थी। बाल्टी बाहर रख कर, मैं उसको अच्छे से लपेट देती। लाइट ऑफ करते ही वह अपने बोरे पर बैठ जाती और मैं सो जाती। कभी उसने कमरे में गोबर, मूत्र नहीं किया। सुबह उठते ही अम्मा उसे बाहर ले जाती कि कमरे में गोबर मूत्र न करदे। सूखा बिछौना देख अम्मा खुश हो जातीं। सर्दी खत्म होते ही वह भी राजू के साथ दस से चार घूमने जाने लगी। लौटने पर वह चारा नहीं खाती थी। पहले कमरे में आती, पंखे के नीचे पसरती थी। आंगन में अम्मा उसके लिये सानी व पानी रख कर आवाज लगातीं, तब बड़े नखरे से जाती। आंगन में लगे नीम के पेड़ की निबौली मैं उसे खिलाती वो खा लेती। परीक्षा से बीस दिन पहले मेरी शादी हो गई। जब भी मायके आती पहले उससे मिलती, वो जुगाली वाली झाग कपड़ों में लगाकर प्यार जताती। अगर मैं उससे मिलने नहीं गई तो वह मां मां करके खूंटा तोड़ने लगती। मेरठ छूटने पर गंगा के नखरे सुनने को मिलते रहे। गंगा ने यमुना को जन्म दिया। हमारे यहाँ गाय का नाम नदियों के नाम पर रक्खा जाता है। आठ महीने की उत्कर्षिणी को मुझे अम्मा के पास छोड़ कर नौकरी ज्वाइन करनी थी। मैं घर आते ही बेटी को गोद में लेकर गंगा के पास खड़ी हुई। उसने अपनी जीभ से उत्कर्षिणी के बाल चाट कर गीले कर दिये। मैंने भी यमुना के माथे पर हाथ फेरा। बैठते ही अम्मा मेरे लिये दूध का गिलास और गुड़ ले आई। साथ ही बोतल में उत्कर्षिणी के लिये दूध लाई। बोतल देखते ही मैं बोली,’’अम्मा इसने कभी ऊपर का दूध नहीं पिया है।’’अम्मा बोली,’’तेरे जाने के बाद यही पीना है तो अभी से क्यों नहीं’’, कहते हुए उसके मुंह में बोतल लगा दी। वह पी गई। माँ के दूध के बाद उसने पहला बोतल में दूध गंगा का पिया। मेरी तो चिंता दूर हो गई। पहली बार में उसे पच भी गया। एक सप्ताह बाद बड़े भारी मन से दिल में यह प्रण करके लौटी कि कुछ ऐसा काम करूंगी, जिससे बेटी अलग न हो। जब भी गोलमटोल बेटी मिलने आती साथ ही बड़े बड़े दूध दहीं के डिब्बे आते। अगर इसने बाहर का दूध नहीं पिया तो! गंगा का दूध तो मां का दूध था न। बेटी की फोटो आतीं, जिसमें गंगा यमुना जरूर होतीं। पोज़ थे बेटी यमुना पर सिर टिका कर लेटी है।

कटोरी हाथ में लेकर गंगा का दूध दुहने की कोशिश कर रही है आदि। मेरा भी स्कूल खुल गया। मैंने उत्कर्षिणी को बुलाया वो अम्मा और गंगा यमुना के बिना आने को, किसी भी तरह तैयार नहीं थी। अम्मा दूध बिलोती मक्खन का बड़ा पेड़ा मट्ठे से निकाल लेती। मथनी जिस पर ढेर सा मक्खन लगा होता, यह चाटती फिरती। नौएडा में भाई की दुकान का पोजैशन मिलते ही हम गंगा यमुना ले आये। बड़ी दुकान में पीछे उनको बांध सकते थे। आस पास खाली प्लाट, पार्क थे। लोग कम थे। अब और समस्याएं शुरू। पशु यहाँ रख नहीं सकते पर किसी ने शिकायत नहीं की थी। गोबर का ढेर लगता जा रहा था। चारा बहुत दूर से लाना पड़ता था। पर सब बहुत खुश थे कि परिवार एक जगह हो गया है। अब बिन बुलाये जर्सी नस्ल की शानदार गंगा के लिये खरीदार आने लगे। हम उन्हें कहते हमें नहीं बेचनी है। वे कीमत बढ़ाने लग जाते। किसी तरह उनसे पीछा छुड़ाते। अचानक हमारे आसपास गाय भैंसों का झुण्ड चरवाने के लिये लाने लगे। एक दिन उस झुण्ड में हमारी गंगा यमुना भी ले गये। जिस दिन हमारी गंगा यमुना चोरी हुईं। उसी रात को कोई गोबर का ढेर भी उठा कर ले गया। गंगा यमुना के लिये इनाम भी रक्खा, पड़ोसियों ने भी खूब ढूंढा पर वे नहीं मिली। अब तस्वीरों में हमारी गंगा यमुना रह गई हैं।         
एक दिन मेरे मन में एक प्रश्न उठ खड़ा हुआ कि अगर मेरी बेटी विदेश पढ़ने गई और वहाँ नॉनवेज ही खाने को मिला तो ये क्या करेगी? हम तो शाकाहारी ब्राह्मण हैं। मैंने अपनी पड़ोसन भाभी जी से दिल की बात बताई। उन्होंने कहा,’’दीदी जब मैं बनाउंगी तो उत्कर्षिणी को अपने घर में खिला दूंगी।’’ मैंने कहा कि बस वक्त पड़ने पर खा ले। उन भाभी जी ने उसे नॉनवेज खिला दिया। हम इस सेक्टर में आ गये और वो भाभी परिवार घर बेच कर चले गये। बिटिया विदेश पढ़ने भी गई।
मैं जब भी उत्कर्षिणी के साथ विदेश गई। मैं अपने लिये वेज ऑर्डर कर देती, वो खाने का ऑर्डर करने से पहले इनग्रीडैंट जरूर बहुत ध्यान से पढ़ती है। मैंने पूछा,’’तूं क्या पढ़ती है?’’ वो बोली,’’मां, नया खाना किसी देश का ट्राई करना मेरा शौक है पर मैं देखती हूं, जो मैं आर्डर कर रहीं हूं उसमें बीफ तो नहीं है! गंगा मेरे दिल में है। मैं तो बीफ को छू भी नहीं सकती न।’’विदेश में पढ़ी मेरी बेटी आज भी गंगा को नहीं भूली है और उसने गीता को भी गंगा से परिचित करवा दिया है।   

   
पारिवारिक फोटो में परिवार की सदस्य गंगा, अम्मा,मास्सी की गोद में उत्कर्षिनी 

Tuesday, 24 October 2017

पॉलीथिन में गऊ ग्रास Polythene mein Gau Grass नीलम भागी


पॉलीथिन  में गऊ ग्रास
                                     नीलम भागी
               
गऊ माताएँ और साँड पिता झुंड में खड़े थे। एक गाड़ी उनके करीब आकर रुकी। पति-पत्नी उतरे गाड़ी की डिक्की खोल कर ढेर खाना , जो पॉलिथिन में बँधा था। उनके सिंगो के डर से दूर रक्खा और श्रद्धा से झुण्ड की दिशा में हाथ जोड़ कर , वे गाड़ी में बैठ कर चल दिये और पशु खाने की ओर दौड़े। किसी भी शुभ दिन या गोपाष्टमी के पर्व पर, ऐसा सीन कहीं भी देखने को मिल जाता है ।
     एक नज़ारा आमतौर पर दिखाई देता है। कूड़ेदान के पास गाड़ी रुकती है, शीशा नीचे कर, महिला जोर से पॉलिथिन की थैली फेंकती है। कई  बार थैली फट जाती है , तो देखकर हैरानी होती है। उसमें बचे हुए खाने के साथ, कई बार टूटे काँच के टुकड़े, ब्लेड आदि होते हैं। पशु पॉलिथिन नहीं खोल सकता इसलिये खाने के साथ साथ, ये चीजे़ उनकी जान ले लेती हैं। और यह देख कर..........
    मुझे कावेरी की मौत याद आ जाती है। कृष्णा  चार महीने की थी।  कावेरी ने चारा खाना बंद कर दिया। हम उसकी पसन्द का गुड़ सौंफ डाल कर दलिया रखते पर वह नहीं खाती। वह हर तरह के खाने को टुकुर-टुकुर देखती और आँखों से आँसू बहाती रहती। वह कितने कष्ट में थी! ये वो जानती थी, या उसे पालने, प्यार करने वाला हमारा परिवार।  कावेरी की हालत देख कर हमने पशु चिकित्सक भइया को सूचित किया। सूचना मिलते ही भइया इज्ज़तनगर से आये। घर का डॉक्टर है, खूब  कावेरी का दूध पिया है। अब हमें पूरी उम्मीद थी कि  कावेरी भइया के इलाज से ठीक होकर चारा खायेगी,  कृष्णा को चाट-चाट कर , पहले की तरह दूध पिलायेगी। लेकिन भइया ने जाँच करके ,बताया कि  कावेरी नहीं बचेगी। सबके मुहँ से एक साथ निकला,"" आखिर क्यों?"
     भइया बोले,’’  कावेरी पॉलिथिन खा गई है। पॉलिथिन इस तरह खाने की नली में अटक जाती है कि पशु जुगाली नहीं कर पाता। खाना बंद कर देता है। ’’ इसी घर में जन्मी  कावेरी को हमने तिल तिल कर मरते हुए देखा था। हम तो उसके चारा पानी का खूब ख्याल रखते , पर वह जानलेवा पॉलिथिन कैसें खा गई!!
     राजू ग्वाला सब घरों की गाय, सुबह 10 बजे से लेकर 3 बजे तक चरवाने लेकर जाता था। इस आउटिंग को सभी की गायें , बहुत एन्जॉय करतीं। घर से चारा खाकर जातीं , आते ही नाँद में चारा तैयार मिलता। बस घूमने के लिए 10 बजे से बाहर देखना शुरु कर देती। शायद वहीं रास्ते में खाने की पॉलिथिन में ब्लेड, काँच निगल गई। और धीरे धीरे  कावेरी मर गई। हमने सबको पॉलिथिन का नुकसान बताया। बिन माँ की कृष्णा को खूब लाड प्यार से पाला। उसने गोमती( हमारे घर में बछिया का नाम नदियों पर रखते हैं) को जन्म दिया।
     कृष्णा, गोमती और उसके बछड़ों के साथ हम मेरठ से नौएडा शिफ्ट हुए। किसी को शिकायत का मौका नहीं मिला। जर्सी और साहिवाल नस्ल की  कृष्णा, गोमती दिन के उजाले में चोरी हो गई। इस चोरी के बाद से हमने गाय पालना बंद कर दिया।
  पॉलिथिन में खाना ,दो दिन रखने से वैसे ही वह प्रदूषित हो जाता है। जिसे खाकर जानवर बीमार ही पड़ेगें। पॉलिथिन में बंधा खाना खाते देख ,जब मैं आवारा पशु के मुंह से पॉलिथिन खींच कर खाने से पालिथिन हटाती हूँ , तो मुझे लगता है कि एक  कावेरी कष्टदायक मौत से बच गई।