कुछ साल पहले मेरी छात्रा के पिता आये और बोले,’’दीदी, मैंने टूर ले जाने का काम शुरू किया है। पहली बस हरिद्वार और ऋषिकेश जा रही है। सबसे पहले आपके पास आया हूँं।’’ मैंने सात टिकट ले लीं। एक रात जाना ,एक रात आना और एक रात हरिद्वार में रूकना। शनिवार रात को निकलना था। मैंने बेसन के लड्डू, मठरी, कचौड़ी बना ली। अंजना ने तैयारी कर ली। उत्तकर्षिनी छोटी थी, सिर्फ पढ़ने का काम करती थीं। उसे टेंशन थी कि ये पकाने में लगी हैं, बस हमें छोड़ कर चली जायेगी। खाना शोभा ने बनाकर लाना था और हमने बस में ही खाना था। वहाँ घर में उसके बच्चे, अपर्ना, मनु कनु ने माँ की नाक में दम कर रक्खा था, वे एक ही रट लगा रहे थे ,बस चलो। खैर शोभा अपने साथ एक पाँच लीटर के ठण्डा पानी रखने के जग,आबशार में बर्फ भर कर लाई। हम जैसे ही घर से निकले, अम्मा पीछे से आकर एक हाथ जलाता हुआ, स्टील का डिब्बा देते हुए बोली,’’हलुआ।’’मुझे याद आया, हमारे यहाँ त्यौहार या शुभ काम पर कढ़ाई चढ़ाते हैं, तो उसमें मीठा बना कर ही कढ़ाई को चूल्हे से उतारते हैं। यहाँ तो हम तीर्थयात्रा जैसे शुभ काम को करने जा रहे थे। जितनी देर हम तैयार हो रहे थे, अम्मा ने हलुआ बनाने की परम्परा को पूरा किया। अभी कुछ दूर ही चले थे कि शोभा का घुटना रूक गया। उसके घुटने का न जाने कौन सा स्क्रू ढीला हो गया था, जिसके कारण वह कुछ समय तक चल नहीं पाती थी। ये समस्या कभी भी, कहीं भी आ जाती थी। उसके डाक्टर पति कहते, मेरे सामने हो तो डायग्नोज़ करता हूँ ,एक्स रे करवाउँगा। दर्द तो था नहीं इसलिये वक्त टलता रहा। अब शोभा बोली,’’मैं तो घुटने से परेशान हूँ, तुम मेरी जगह किसी और को ले जाओ न ,पर मेरे बच्चे ले जाना। मैं बोली,’’नदी का मामला है, इन शैतान बच्चों की, मैं जिम्मेवारी नहीं ले सकती।’’सुनते ही बच्चों के लौकी की तरह चेहरे लटक गये। बच्चों की शक्ल देख शोभा चल पड़ी। पौं फटने से कुछ पहले ही हम ऋषिकेश पहुँचे। बस वालों ने कहाकि हम रात को हरिद्वार चलेंगे । जून का महीना था।दिल्ली की भीषण गर्मी से गए थे, हम गंगा जी को प्रणाम कर किनारे पर पड़े पत्थरों पर ठण्डे पानी में पैर लटका कर बैठ गये। हमने सोचा कि जब तक धूप तेज नहीं होती, तब तक यहीं बैठेगें। फिर स्नान करके घूमने जायेंगे, रात तक का हमारे पास समय है। इतने में मैं क्या देखती हूँ!!हमारी बस में आया एक खानदान, हमसे कुछ दूरी पर जल्दी जल्दी नहा रहा है। मैं उनके पास गई और पूछा,’’हमने तो रात को यहाँ से लौटना है। आपने इतनी आफत क्यों मचा रक्खी है?’’ क़ायदे से आफत शब्द सुन कर, उन्हें मुझसे लड़ना चाहिये था। मैं पढ़ी लिखी थी और वे अनपढ़। पर उनमें से एक महिला बड़ी खुशी से बोली,’’हमें न, बाबा के दर्शन करने जाना है।’’मैंने पूछा,’’बाबा कहाँ है?’’ उसने गंगा जी के पार पहाड़ों की ओर हाथ से इशारा करके कहा,’’वहाँ।’’ मैंने प्रश्न किया,’’कैसे जाओगे?’’वो बोली,’’हम तो हमेशा पैदल ही जाते हैं। अपने साथ के सात आठ साल के बच्चों की ओर इशारा करके बोली, ये भी पिछले सावन को पैदल ही गये थे, हमारे साथ।’’ मैंने उनसे कहा कि हम भी आपके साथ जायेंगे, बाबा के दर्शन करने। सुनकर वे खुश हो गये। आकर, मैंने अपने परिवार को कहा कि हम भी इनके साथ बाबा के दर्शन करने जायेंगे। सबने कोरस में पूछा,’’कौन से बाबा?’’मैंने उस खानदान से वहीं से चिल्ला कर पूछा,’’कौन से बाबा?’’उनका जवाब था ’’भोले बाबा नीलकंठ’’। अब हमारे अंदर भी गज़ब की फुर्ती आ गई। हमने स्नान किया। लक्ष्मण झूले से गंगा जी को पार कर एक रैस्टोरैंट में गर्मागर्म आलू और सीताफल की सब्जी, पूरी, जलेबी चाय का नाश्ता करके, अपने साथियों का इंतजार किया। वे चलते हुए आये और चलते चलते बोले,’’चलो।’’पर्स लटकाये, फैशनेबल चप्पलों की हील से टकटक करती हम तीनों और बच्चे उनके पीछे चल दिये। चारों बच्चों ने नम्बर लगा लिया आबशार उठाने का, हम उनके पीछे चलते जा रहें हैं। तब मैं बहुत मोटी थी इसलिये सब मुझसे काफी आगे चल रहे थे। कुछ दूर जाने पर पक्की सड़क खत्म हो गई थी। मेरे मन मे आया कि ये अनपढ़ लोग हैं, किसी और से भी पूछ लूँ शायद शार्टकट रास्ता हो। सड़क के किनारे चार पाँच साधू बैठे थे। मैंने उनसे पूछा,’’महाराज, नीलकंठ का रास्ता यही है।"मेरे प्रश्न के जवाब में उनमें से एक ने प्रश्न पूछा,’’पैदल नीलकंठ जा रही हो?’’मैंने कहा,’’हाँ जी।’’वो बाकियों से बोला,’’देखो, ये मोटी पदैल नीलकंठ जा रही है।’’वे सब मुस्कुराये और मैं हंसते हुए तेजी से अपनी बहनों के पास पहुँच गई और उनको किस्सा बता कर कहा कि आजकल तो साधु भी महिलाओं से मजाक करते हैं। सुनकर सभी हंसने लगे और मैं भी सबके साथ कदम मिला कर चलने की कोशिश करने लगी। हम जितना ऊपर चढ़ते जा रहे थे ऋषिकेश और गंगा जी की सुन्दरता बढ़ती जा रही थी। अचानक खानदान ने अपने सब सदस्यों को एक एक पुड़िया दी, उन्होंने उसे फांका और ये जा वो जा। रास्ता पूछने की तो जरूरत ही नहीं थी। पेड़ों पर तीर के निशान थे। चलते चलते मैं तो बेहाल हो गई, पर बाबा का दूर दूर तक पता नहीं था। क्रमशः
डिनर के लिय तैयार हुए बग्गी आ गई। हल्की बरसात तो चल ही रही थी। फर्न ट्री रैस्टोरैंट मैन्यू का ध्यान से अध्ययन किया कि कूर्ग स्पेशल में कुछ छूटा तो नहीं, वही आर्डर किया। वेज़ में बैम्बू शूट करी रह गई थी, उसे भी आर्डर किया और पाण्डी करी तो प्रत्येक मील के साथ लाज़मी थी। इसमें काचमपुली का रस या उसका सिरका पड़ता है, जो केवल कूर्ग में ही उगता है और घने जंगलों के कारण जंगली सूअर भी यहाँ मिलता है। बैम्बू शूट डिश पहली बार सुनी, देखी थी इसलिये इसे सबने चखा। कहते हैं कि बैंबू 60-70 साल में केवल एक बार खिलता है। खूब स्वाद ले कर खाया। पुट्टु के बारे में बहुत मजेदार वाकया है। मुझे मीठा बहुत पसंद है। मैंने सफेद रसगुल्ला समझ कर पुट्टु को मुंह में डाला। लेकिन ये फीका था। बाद में पता चला कि इसे घी, मक्खन, शहद के साथ भी खा सकते। पुट्टु चपटे नूडल की तरह नूल पुट्टु, चावल के आटे से ये कई तरह के आकार में बनाये जाते हैं, जो मटन करी, पाण्डी करी के साथ खाये जाते हैं। सबसे आखिर में हम वहाँ से निकले। विला पहुँचे। 12 बजे केक काटा, खाया और उत्तकर्शिनी को बधाई दी। मैंने कहा,’’आज तो गंगा दशहरा है।’’इलाहाबाद में थे तो गंगा जी में नहाने जाते थे। नौएडा में गढ़मुक्तेश्वर या हरिद्वार मौका मिलने पर चल देते हैं। यहाँ तो पास में ही हमारे देश की पाँच पवित्र नदियों में शुमार दक्षिण की गंगा, कावेरी का उदगम स्थल, ताल कावेरी है, लक्ष्मणातीर्थ नदी के तट इरुप्पू फॉल्स है। यहाँ का तो कण कण पवित्र है। वीरों की भूमि है, जो श्रद्धेय होती है। राजीव बोले,’’ गंगा दशहरा का स्नान करके ही सोयेंगे।’’गीता तो चौबीस घण्टे तैयार रहती है। ये तीनों पूल में उतर गये। मैं तो सो गई। सुबह जल्दी निकलना था और आस पास के दर्शनीय स्थलों के दर्शन करने थे। यहाँ के रहन सहन, खान पान की अपनी पहचान है। साधारण देसी स्वादिश्ट मिठाइयाँ हैं। कच्चे केले के कटलेट आपको जगह जगह मिलेंगे। स्थानीय लोग मानसून में मांसाहार नहीं करते। उनका मानना है कि ये जानवरों का ब्रीडिंग सीज़न है। बारिश ज्यादा होने से कटहल आदि सब्ज़ियाँ खूब होती हैं। वे इनसे काम चलाते हैं। यहाँ का शहद उम्दा और कई तरह का है। अलग अलग सीज़न के फूलों के अनुसार। मसलन कॉफी के फूलों का शहद भी, कॉफी के फूल एक साथ चार से छ दिन रहते हैं। सोचों मक्खियाँ कितनी फुर्ती से पराग इक्ठ्ठा करती होंगी। मेडिकेरी महल, किला इसकी प्राचीर से मेडिकेरी शहर की शोभा निराली है। किले में एक पुरानी जेल, मंदिर और संग्राहालय है। ज्यादातर हिस्से में ऑफिस वगैरह हैं। ओमकारेश्वर मंदिर राजा लिंगाराजेन्द्रा द्वारा बनाया 1820 में खूबसूरत मीनारों और गुम्बद वाला मंदिर है। , राजा की सीट यह नाम इसलिये पड़ा क्योंकि कोडगू के राजा अपनी शाम यहाँ बिताते थे। कॉफी बगानों से पतला संकरा बेहद खूबसूरत रास्ता यहाँ जाता है। यहाँ से हरी भरी घाटी और धुंध में छिपे पहाड़ों की सुन्दरता तो देखते ही बनती है। इर्पू फाल्स दक्षिण कूर्ग में लक्ष्मणातीर्थ नदी जिस स्थान पर गिरती है उसका नाम है। सीता जी की खोज में भटकते हुए भगवान राम को प्यास लगी तो लक्ष्मण जी के तीर से इस तीर्थ का उद्गम हुआ। यहाँ का स्नान पाप नाशक है। शिवरात्री को श्रद्धालुओं की भीड बहुत़ होती है। मेडिकेरी के बाजार में कॉफी, शहद, ंअंजीर मसाले, इलायची, काली मिर्च, अन्नानास के पापड़ और संतरे के भण्डार थे। कुर्गी सिल्क साड़ियाँ भी आर्कशण का केन्द्र थीं। ब्रहमगिरि की पहाड़ियों में भागमंडला मंदिर है। यहाँ से आठ किलामीटर की दूरी पर तालकावेरी है, कावेरी का उद्गम स्थल, मंदिर के प्रांगण में ब्रह्मकुण्डिका है, जहाँ श्रद्धालु स्नान करते हैं। 17 अक्टूबर को कावेरी संक्रमणा का त्यौहार मनाया जाता है। जीवनदायिनी माता कावेरी ने दूर दूर तक कैसा अतुलनीय प्राकृतिक सौंदर्य बिखेरा है। मैं लौट रहीं हूँ लेकिन कूर्ग तो दिल पर छा गया, मेरे साथ ही आ गया।