ये देख कर बहुत अच्छा लगा। यहाँ गर्मी थी। पहले सबने जैकेट स्वेटर उतारे। लंच का समय था, हम खाने के लिये गये। अपनी आदत के अनुसार कि जहाँ मैं जाती हूँ, वहाँ का नया वैज ट्राई करती हूँ। मैंने मैन्यु देखा उसमें मुझे काजू की सब्जी दिखी, जो मैंने पहले कभी नहीं खाई थी। अब मुझे तो वही खानी थी, सबने अपनी पसंद का आर्डर किया। काजू की सब्जी अच्छी लगी। हमें तो दो जिलों के राज्य गोवा में आठ दिन तक रहना था इसलिये हमें कोई जल्दी नहीं थी। बस आने से पहले स्टे को लेकर परेशानी हुई थी। हुआ यूं कि यहाँ श्वेता के बैंक का गैस्ट हाउस था। ट्रेन की रिजर्वेशन करवा लीं, तैयारी कर ली। ये सोचा ही नहीं था कि गेस्ट हाउस भी बुक करना होता है। चलने से पहले पता चला कि वो उन दिनों बुक था। उसे पहले बुक करना पड़ता है। जो हमने नहीं करवाया था। चुम्मू एलर्जिक हैं। डा. ने कहा था कि ध्यान रखना, पाँच साल का होने पर ये ठीक हो जायेगा। हमें किचन वाला स्टे चाहिये था। अंकूर का दोस्त यहाँ से घूम कर लौटा था। उसने एक ईसाई महिला का गैस्ट हाउस बताया, जो वहीं रहते भी हैं। वहाँ चुम्मू के लिए हल्दी, अदरक, तुलसी, दूध उबालने का काम भी हो जायेगा। उस महिला से बात की। उसने कहा कि वह हमें तीन दिन तक रखेगी फिर वह हमें किसी और के एक टू बी.एच.के. अर्पाटमैंट में शिफ्ट कर देगी क्योंकि उसका गैस्ट हाउस आगे एक महीने तक बुक है। हम दिल्ली की कड़ाके की सर्दी के दस दिन, दो सफर में आठ यहाँ बिताने आये थे। खाना खाकर, हमने गैस्ट हाउस के लिये बड़ी गाड़ी ली. सौरभ अर्पना ने कलंगूट बीच पर होटल में स्टे लिया था। हमारा गेस्ट हाउस उनसे एक किमी. दूर था। वे भी हमारे साथ शेयरिंग पर गये। क्रमशः रास्ता बेहद खूबसूरत, लाल मिट्टी के बीच में काली सड़क दोनों ओर हरे हरे घने पेड़, ज्यादातर काजू और आसमान को छूते नारियल के पेड़ों के झुरमुट दिख रहे थे। सबकी नज़रे बाहर टिकी हुई थीं। कोई कुछ नहीं बोल रहा था। रास्ते भर मेरे मन में एक ही प्रश्न उठ रहा था कि इनके घरों में भी तो कूड़ा निकलता होगा पर यहाँ तो कचरे के ढेर कहीं देखने को नहीं मिले। खैर हमारा नारियल के पेड़ों से घिरा गैस्ट हाउस आ गया। हमने सामान उतारा और सौरभ अर्पणा आगे चल दिये। सामान लगा कर हम नहाये और सो गये। जब आँख खुली तो अंधेरा हो गया था। यहाँ हमें कोई काम तो था नही। बाहर खाना और घूमना हमने जाते ही आठ दिन के लिये एक एक्टिवा किराये पर लेली। चुम्मू छोटा है। इसलिये अंकूर या श्वेता चुम्मू के थकने पर कोई भी उसे बिठा कर ले जाता। रबर की चप्पले, जिससे बीच पर रेत पर चलना आसान होता है पहन कर, हम पैदल पैदल बीच की ओर चल दिये। सबसे पहले हमने नारियल पानी पिया। ताजा होने के कारण उसका स्वाद लाजवाब था। यहाँ 450 साल तक पुर्तगालियों ने शासन किया शायद इसलिये यहाँ मिठाई की दुकानों की अपेक्षा केक, पेस्ट्री, क्रैर्कस, कुकीज़ बिस्किट, ब्राउनीज़ और खारे की दुकाने अधिक थी। इन सब का स्वाद चखते न जाने कितनी देर हम बीच पर बैठे रहे। डिनर की तो पेट में गुंजाइश ही नहीं थी। लौटे रास्ते में कोई भिखारी नहीं मिला। और आते ही सो गये। सुबह इंगलिश ब्रेकफास्ट आया, जल्दी से करके कलंगूट बीच पर पहुँच गये।
4 comments:
Quite nice writing
धन्यवाद अंजली
Beautiful write up
हार्दिक आभार
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