हमारी इस यात्रा में मुझे अपना घर परिवार कुछ भी याद नहीं था। कारण बस के अन्दर श्रद्धालु गाते बजाते, नाचते थे।
बाहर देखो तो प्रकृति ने दूर दूर तक अपना सौन्दर्य बिखेरा हुआ था।
बीच बीच में जलवाले गुरु जी भी बस में आकर यात्रियों की खुशी में शामिल होते। जहां बस रुकती तो जलवाले गुरु जी सब के बीच में होते। सभी उनके प्रति बहुत आत्मीयता रखते हैं। मैं तो पहली बार आई थी और अभी तक उन्हें सामने देख कर प्रणाम ही करती थी। लेकिन यात्रियों के बीच में रहने से मुझे लगता था कि मैं भी उनसे अच्छी तरह परिचत हूं। लगता ही नहीं था कि मैं इन सबके बीच पहली बार आई हूं। थोड़ी बारिश शुरु हो गई थी जगह जगह से पहाड़ों से पानी आता हुआ ऐसे लग रहा था, मानों झरने फूट गए हों। अब खिड़कियां बंद करनी पड़ीं। जितनी तेज बारिश उतनी जोर से जैकारे।
अब तो पानी के अलावा कुछ नहीं दिख रहा था। माता बगुलामुखी से लगभग 24 किमी. की यात्रा में माता रानी ने हमें पहाड़ों की मूसलाधार बारिश भी दिखा दी। गुप्त गंगा के पास गाड़ियां रुकती हैं पर बारिश नहीं रुकती। यहां से कांगडेवाली माता का मंदिर 1 किमी. दूर है। हमेशा उतरने से पहले बता दिया जाता है कि कैसे जाना है? कितनी दूर है? यहां भी कहा कि जिन्होंने पैदल नहीं जाना है। बाहर 10 रु प्रति सवारी शेयरिंग ऑटो हैं। यात्रा में कोई छाता तो लेकर गया नहीं था। कुछ महिलाएं बारिश में ही बस से उतरने लगी तो पीछे से कोई बोला,’’जल्दी काहे मचा रखी है? भैंस की सानी करनी का!! जवाब में महिलाएं ही ही ही करती ये जा वो जा। हल्की बूंदा बांदी में मै भी सबके साथ उतर कर चल दी कि आगे ऑटो मिल जायेगा। जहां पर ऑटो मिलता है वहां तक पहुंचने में भीग गई। वहां कोई ऑटो नहीं मिला शायद बरसात में जो भी होंगे वे हमारी सवारियों को ले गए होंगे। हमने इंतजार नहीं किया सब पैदल चल दिए। अपनी धीमी गति के कारण मैं अकेली रह गई। मुझे ये बात अच्छी तरह समझ आ गई थी कि जलवाले गुरु जी जब तक सभी यात्री बस में नहीं बैठ जाते, वे बसे चलाने की आज्ञा नहीं देते। इसलिए मुझे लिए बिना नहीं जाएंगे। मैं देर जान बूझ कर नहीं करती थी। अब देखो न, बाजार से निकल रही हूं, बाजार देखती हुई, फल सब्ज़ियों की दुकानों में मेरी आंखें विशेष फल सब्जी खोजने लगतीं हैं जो मैंने नहीं देखी हो। पुराना शहर है बाजार सामानों से भरें हैं। कारोना की तीसरी लहर के डर का असर दिखाई नहीं दे रहा है। बाजार में खरीदार है। इतने में हमारे सहयात्रियों से भरा एक टैंपू मेरे पास आकर रुका। एक सज्जन उतर गए। उन्होंने दस रुपए टैंपूवाले को देकर कहा,’’मैं पैदल चला जाउंगा, दीदी को बिठा लो। उसमें सुधा भी थीं, सबने खिसक कर मेरे लिए ज्यादा जगह बनाई। टैंपू चला, अभी मैं ठीक तरह से बैठी ही थी कि उसने कहा यहां से आगे टैंपू नहीं जाता। हम सब उतरे, सबने उसे भाड़ा दिया। मैंने दिए तो सबने कोरस में कहा,’’आप तो अभी बैठी हो!’’मैं हंसने लगी। फाइबर का शेड था दोनों ओर प्रसाद, श्रंगार खिलौनों की दुकाने थीं। सौभाग्यवतियों ने प्रसाद के साथ कंगन, चूड़िया भी रखीं। हमने दर्शन किए। पुजारी ने कंगन चूड़ियां मां की पिंडी को छुआ कर प्रशाद में रख दीं। जिसे महिलाओं ने बाहर आते तुरंत ही पहन लिया। मंदिर बारिश होने पर भी साफ था।
दुर्गा के एक रुप व्रजेश्वरी देवी मंदिर को, नगरकोट की देवी व कांगड़ा देवी के नाम से भी जाना जाता है।
इसलिए इस शक्तिपीठ को नगरकोट धाम भी कहते हैं। दंत कथा है कि एक दिन पांडवों ने स्वप्न में देवी दुर्गा को देखा। जिसमें उन्होंने उस क्षेत्र में मंदिर बनाने को कहा। उन्होंने मन्दिर बनाया। यह हिमाचल का सर्वादिक भव्य मंदिर है। मंदिर के सुनहरे कलश के दर्शन दूर से ही होते हैं। मंदिर का प्रवेश द्वार किसी किले की तरह पत्थर की दीवारों से घिरा है। नगरकोट कांगड़ा का प्राचीन नाम है। दर्शन के बाद बाहर आते ही हमें टैम्पू मिल गए। बस पर पहुंच कर हम औरों का इंतजार करने लगे।
इसलिए इस शक्तिपीठ को नगरकोट धाम भी कहते हैं। दंत कथा है कि एक दिन पांडवों ने स्वप्न में देवी दुर्गा को देखा। जिसमें उन्होंने उस क्षेत्र में मंदिर बनाने को कहा। उन्होंने मन्दिर बनाया। यह हिमाचल का सर्वादिक भव्य मंदिर है। मंदिर के सुनहरे कलश के दर्शन दूर से ही होते हैं। मंदिर का प्रवेश द्वार किसी किले की तरह पत्थर की दीवारों से घिरा है। नगरकोट कांगड़ा का प्राचीन नाम है। दर्शन के बाद बाहर आते ही हमें टैम्पू मिल गए। बस पर पहुंच कर हम औरों का इंतजार करने लगे।
कांगड़ा से सात किमी. की दूरी पर हवाई अड्डा है। कांगड़ा, धर्मशाला से लगभग 18 किमी. दूर है। यह मंदिर भारत के हिमाचल के कांगड़ा जिले के रेलवे स्टेशन से 11 किमी. दूर है।
अब हमें चामुण्डा देवी जाना था। मैं चाह रही थी कि सब अंधेरा होने से पहले आ जाएं तो खूबसूरत रास्ता भी देखा जायेगा। क्रमशः