मेरे सेक्टर से जो पहले चौराहा है न, उस पर लाल बत्ती होते ही एक भिखारन ने गोद का बच्चा और दूध की बोतल में भरा पानी दिखाकर, बच्चे के दूध के लिए भीख मांगनी शुरू कर दी।
मेरे भीख न देने से उत्साहित होकर ऑटोवाले ने उसे हटाते हुए कहा,’’अरी मंगती, जब तूं अपना पेट भीख मांग कर भरती है तो इस भिखारी को पैदा करने की क्या जरूरत थी? जा सरकारी अस्पताल वहाँ से नसबंदी करा, नही तो भिखारियों की टीम पैदा कर देगी।’’ भिखारन के चेहरे के भाव तक नहीं बदले। निर्विकार सी वह इस उम्मीद में खड़ी रही कि मैं कुछ दे दूंगी। मैंने उसे कहाकि मैं तुझे कुछ नहीं दूंगी। तब आटोवाला मुझसे कहने लगा,’’मैडम जी, मेरी एक ही लड़की है, जिसे मैं पब्लिक स्कूल में पढ़ा रहा हूं। उसके लिये मैं और मेरी बीबी दोनो काम करते हैं। पर मेरी माँ हर वक्त पोते की रट लगाये रहती है। उसे हमेशा एक ही चिंता सताए रहती है कि मेरा वंश कैसे चलेगा! अब बताओ मैं कौन सा महाराणा प्रताप या सम्राट अशोक हूँ, जिसका वंश चलना जरूरी है।" हरी बत्ती होते ही वो ध्यान से ऑटो चलाने लगा और मुझे अपनी एक रेलयात्रा याद आ गई। कपूरथला में सुदेश भाभी की अंत्येष्टि से मैं और डॉक्टर शोभा लौट रहे थे। रात की गाड़ी से बिना रिजर्वेशन के गए थे। दिन भर वहां रूके, उसी रात को गाड़ी में जालंधर से दिल्ली तक स्लीपर में रिजर्वेशन मिल गया। पहली रात को धक्के खाते गए थे। दिन भर शोक प्रकट करने वालों के साथ रोते और उनकी बेटियों को हिम्मत बंधाते, बहुत दुखी मन से हम लौटे। मेरी लोअर बर्थ थी। दीदी की मीडिल, खाना खा कर, हम अपनी सीटों पर, अपने मामूली से सामान को सिर के नीचे तकिए की जगह रख कर सो गए। सामान सिर के नीचे रखने से मेरे पैर किनारे को छू रहे थे। पता नहीं कितने स्टेशन निकल गए गहरी नींद में, हमें पता ही नहीं चला। अचानक डिब्बे में हल्ला सा मच गया, कई बच्चे नए नए कपड़े पहने, आत्मविश्वास से भरे हुए, गाड़ी में चढ़ गए और जगह जगह फैल गए। उनके कोलाहल से हम दोनों की नींद खुल गई थी। सामने की बर्थ पर लेटे, बुर्जुग स्टेशन देखने के लिए थोड़ा उचके, उनके पैरों ने सीट का किनारा छोड़ा। वहां झट से एक बच्ची बैठ गई। लड़की को देख कर, सभ्यता से उन्होंने और पैर सिकोड़ लिए, लड़की ने और उनके पैरों की ओर खिसक कर, उसने दूसरे बच्चे को भी बिठा लिया। दरवाजे के पास ही सीट थी और अब तक मैं सोच रही थी कि इन बच्चों के मां बाप कहां हैं? देखा!! बाहर से एक आदमी प्लास्टिक की कुर्सियां पकड़ा रहा था, दूसरा एक के ऊपर एक चिनता जा रहा था। टॉयलेट के पास गाड़ी की छत तक उन्होंने एक लाइन कुर्सियों की लगा दी। फिर वे दोनों दुबले पतले आदमियों ने अपने साथ की सौभाग्यवती महिला, जिसने नख से शिख तक श्रृंगार कर रखा था और उसकी गोद में बच्चा था और पेट में भी था, उसे दीदी के सामने की मीडिल सीट की ओर इशारा किया। वह झट से उस पर चढ़ गई। अब उन्होंने हमारी सीटों के नीचे चादरें बिछाईं और बीच की जगह पर जहां हमारी चप्पलें थीं। उन्हें इस तरह रख दिया कि हमें परेशानी न हो, वहां सामान रखने लगे ये देख मैं बोलने लगी तो दोनों ने दयनीय शक्ल बना कर, मेरी ओर हाथ जोड़ दिए। मैं चुप हो गई कि रात ही तो काटनी है। लुधियाना स्टेशन था। गाड़ी के चलते ही सब इधर उधर हो गए। टी.टी. ढेर सारे बच्चों वाली महिला के पास टिकट चैक करने आया। उसने ब्लाउज में हाथ डाल कर, पसीने से भीगी, चिपकी सी तह लगी टिकट निकाल कर, उसे एहतियात से खोला ताकि वह भीगी होने से फट न जाए, टी़.टी. ओर की। उसकी गंध और गीलेपन के कारण उसने टिकट को पढ़ कर कर देखा भी नहीं और चला गया। उसके जाते ही वे दोनों सीटो के नीचे लेट कर सो भी गए। सामने के बुर्जुग घुटने पेट से चिपकाए लेटे रहे। दोनों बच्चे उनके पैरों के पास टेढ़े मेढे़ होकर सो गए। बाकि भी दाएं बाएं एडजस्ट हो गए। दीदी हिसाब किताब में पड़ गई कि कितनी जोड़ी जुड़वां हैं। और इन बच्चों के जन्म में कितना अंतर है? फिर परेशान होकर दीदी ने सौभाग्यवती महिला से पूछा,’’ये इतने सारे बच्चे आपके ही हैं!! उसने इतरा कर जवाब दिया,’’जिसके बच्चे नहीं होते न, वो ऐसे ही पूछते हैं।’’और पीठ करके सो गई। दीदी उसके जवाब पर हैरान थी। मैंने उसी समय दीदी को कहा,’’विश्व जनसंख्या दिवस पर शुभकामनाएं’ क्योंकि उस दिन 11 जुलाई विश्व जनसंख्या दिवस था।
बहुमत मध्य प्रदेश एवम् छत्तीसगढ़ से एक साथ प्रकाशित समाचार पत्र में यह लेख प्रकाशित हुआ है।