यहाँ पुजारी जी ने बताया कि रावण ने त्रेता युग में अपनी राक्षसी वृति के कारण अपनी राज्य सीमा के तपस्वी ऋषियों से कर लाने को अपने अनुचरों को कहा। अनुचरों ने स्वामी लंकेश का आदेश पालन करने के लिए ऋषियों से कर की याचना की। वे तो वनों मिलने वाले कंद मूल फलों का सेवन करते थे। मुद्रा तो उनके पास थी नही तो देते कहाँ से! उन्होंने अपना रक्त निकाल कर एक घड़े में एकत्रित कर राज्यकर के रुप में, अनुचरों को दिया और श्राप दिया कि इसका मुंह खोलते ही तुम्हारे स्वामी का सर्वनाश हो जायेगा। अनुचरों ने उस घड़े को लंकेश की राजसभा में उपस्थित करते हुए ’ऋषि श्राप’ को भी कह सुनाया। यह सुनते ही रावण भयभीत हो गया। उसने अपने राज्य की सीमा से बाहर मिथिला में पुण्यारण्य नामक जंगल में गोपनियता के साथ उस घड़े को भूमि में गाड़ने का आदेश दिया। वो जानता था कि जहाँ यह शाप युक्त घड़ा रहेगा, वहाँ अनिष्ट होगा। एक बार शिवजी की सभा में वेदान्त विचार पर वह राजा जनक से पराजित हो चुका था। ये हार का प्रतिरोध निकालने का अच्छा मौका था। और उसने घड़ा गड़वा दिया। जिसके परिणाम स्वरुप मिथिला में भयंकर अकाल पड़ा।
गीता का कथन है
यज्ञाद् भवति पर्यन्तः, पर्यन्यादन्न संभव।।
अर्थात यज्ञ से वर्षा होती है। वर्षा के प्रभाव से अन्न उत्पन्न होता है।
राजर्षि जनक ने अपने राज्य के विद्वानों, ऋषिमुनियों की सभा बुलाई, जिसमें निर्णय लिया गया कि राजा जनक को हलेष्टि यज्ञ करना चाहिए। वर्तमान सीतामढ़ी में उन्होंने शिविर डाल कर और पश्चिमोतर कोण पर विधिवत हलेष्टी यज्ञ सम्पन्न कर जमीन जोतनी शुरु की। पुण्डरीक आश्रम पहुँचने पर जमीन में गड़ा हुआ घड़ा लांगल लगने से टूट गया और सीता जी का अवतरण हुआ। और साथ ही वर्षा होने लगी। अब भूमिसुता जानकी को वर्षा से बचाने के लिये तुरंत एक मढ़ी का निर्माण किया कर, उसमें सयत्न जानकी को वर्षा पानी से बचाया गया। अब वही जगह सीतामढ़ी के नाम से मशहूर है।
यहाँ मंदिर में एक पिण्डी बनी हुई है। यह पिण्डी उस सर्प की समाधि है, जिसकी मदद से श्रीराम जानकी और लक्ष्मण के विग्रह 1599 में संत श्री हीराराम दास को प्राप्त हुए हैं। संतों और महंतों ने सर्प को अपना गुरु भाई मान लिया है। आज भी इस पूरे परिसर में साँप को मारना वर्जित है। न ही साँप हानि पहुँचाते हैं।
जानकी मंदिर के गर्भगृह का चौखट सोने चाँदी के नक्काशीदार पत्तरों से जुड़ा है। चाँदी के सिंहासन पर श्रीसीताराम जी और लक्ष्मण जी की प्रतिमा विराजमान है। जो अमूल्य काले पत्थर से बनी हैं। मंदिर में पहले माँ जानकी की स्तुति होती है। यहाँ याचक और पण्डे नहीं हैं। शादी विवाह के साहों में यहाँ खूब शादियाँ होती हैं। बच्चे के जन्म पर यहाँ छठी पूजन किया जाता है। मंदिर परिसर में अनेक मंदिर हैं। सबका दर्शन किया।
रजत द्वार शक्तिपीठ माँ जानकी मंदिर से बाहर आते ही दाई ओर उर्विजा कुण्ड है। कुण्ड के बीचो बीच राजा जनक को हल चलाते एवं जानकी के प्रकट होने की झांकी, प्रतिमाओं से दिखाई गई है। अब हम पुनौराधाम के लिए निकले। क्रमशः