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Monday 11 September 2017

मेरी कॉटन की साड़ियाँ और ये ऊपर, नीचेे वालियां! नीलम भागी Meri Cotton Ke Saria aur ye niche wale नीलम भागी

                               
मुझे स्टार्च लगी कॉटन की साड़ियाँ पहनना बहुत पसंद है। अपने शौक़ के कारण मेरी पहले तो धोबी से  हमेशा लड़ाई होती रहती है। कारण यह है कि मैं साड़ियों में कड़क कलफ लगा कर सुखाकर उसे प्रेस के लिये देती हूँ। जब प्रेस होकर साड़ियाँ आती तो उनमें मामूली सा कलफ और चमक भी फीकी होती है। क्योंकि धोबी मेरी साड़ियों को एक ही बाल्टी पानी में भिगो कर निचोड़ कर सारा स्टार्च निकाल देता है। मैं उससे लड़ने जाती हूँ और उसे चेतावनी  देती हूँ कि आगे से वह ऐसी हरकत न करे वर्ना(क्या कर लेती, सिवाय धोबी बदलने के)। पर वह फिर वैसे ही करता है। इलाके के सारे धोबी मैंने बदल कर देख लिए ,पहली बार वे मुझे मेरी पसंद की कड़क साड़ियाँ देते, लेकिन दूसरी बार से वही हरकत करते, मेहनत से दी गई स्टार्च निकालने की। धोबी के कारण मैं कॉटन की साड़ियाँ पहनने का मोह तो नहीं छोड़ सकती न। चरख चढ़वाती तो उसमें भी मेरी पसंद का कड़कपन नहीं मिलता। तंग आकर मैंने सैकेण्ड फ्लोर में शिफ्ट किया।
    अब मैं बहुत खुश थी कारण, मैं अपनी कॉटन की साड़ियों में मनचाहा कलफ लगा कर ग्रिल से लटका देती। हवा में फरफर करती, सीधी साड़ियाँ सूखने पर मैं उन्हें तह करके प्रेस कर लेती। लेकिन मेरी खुशी को ग्रहण लग गया। हुआ यूँ कि फर्स्ट फ्लोर वालों ने अपनी बालकोनी में शेड डलवा दिया। जब मैंने साप्ताहिक स्टार्च लगाकर साड़ियों को फैलाया तो वे आधी हवा में और बाकि शेड की छत पर इक्ट्ठी हो गई। सूखने पर जब मैंने उन्हें उठाया तो जो हिस्सा शेड पर था, उस पर धूल मिट्टी और लग गई। फिर से नीचे वालों को कोसते हुए, मैंने साड़ियों को धोया और कलफ लगाया। अब मैंने साड़ियों को दोहरी तह लगा कर लटकाया। वे देर से सूखी। सूखने पर प्रेस करके मैंने अपनी वार्डरोब में सजा दी। जब मैं पहनने लगती तो उनकी तह आपस में चिपकी रहती। जब मैं उसे खींच कर तह खोलती तो कई बार साड़ी फट जाती और मैं नीचे वालों पर क्रोधित होती। एक बार मैं उनसे लड़ने पहुँच गई कि उन्होंने बालकोनी पर शेड क्यों डाला? उन्होंने एक लाइन में जवाब दिया,’’ हम अपने घर में जो मरज़ी करें, आपको क्या?’’ मैं अपना सा मुहँ लेकर आ गई।
  मेरे ऊपर के फ्लोर में एक परिवार रहने आया है। आते ही उस परिवार की महिला रमा से मेरी दोस्ती हो गई। इस दोस्ती का श्रेय कॉटन की साड़ियों को जाता है। रमा तो साड़ियों में चरक चढ़वाती थी। मेरी साड़ियों की कड़क का उसने राज पूछा, तो मैंने उसको माण्ड लगाना बताया और नीचे वालों का बालकोनी ढकने की घटना से मेरी साड़ियों की कलफ लगाने की प्रक्रिया में आने वाली परेशानियों का भी ज़िक्र किया। मेरी तरह रमा को भी नीचे वालों पर बहुत गुस्सा आया। उसने भी मेरा समर्थन किया कि बहुत गन्दे पड़ोसी हैं। सण्डे की सुबह मैं अपनी बालकोनी में बैठी चाय पी रही थी और गमले में लगे पौधों को निहार रही थी। रमा ने अपनी बॉलकोनी से खूब कलफ लगाकर साड़ियाँ फैला दी। हवा में फैहरती हुई साड़ियाँ मेरे मुँह, सिर को पोंछने लगी। जहाँ भी साड़ी टकराती, वहाँ माण्ड से चिपचिपाहट होने लगती। मैं चाय उठा कर अन्दर आ गई। थोड़ी देर में मेरी बालकोनी मक्खियों से भर गई। माण्ड जहाँ-जहाँ टपका वहाँ मक्खी-मक्खी हो गई। अब मैं क्या करूँ? सोच रहीं हूँ कि बालकोनी कवर करुँ या सहेली से लड़ूँ।


1 comment:

Chandra bhushan tyagi said...

मेरी काटन की साडी और उपर नीचे वालियां