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Tuesday 30 January 2018

पिसनहारी की मढ़िया, बैलेंसिंग रॉक, मदनमहल किला और रेल में भारतीय संस्कृति से परिचय जबलपुरJabalpur7 Yatra या़त्रा भागPisanhari ki Madia,Balancing Rock, Madan Mehal Qila, Jabalpur Yatra Part 7 नीलम भागी

                 
                                                               


Balancing Rock

Handicraft

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नीलम भागी
सुबह नींद खुली, तो सभी महिलायें व्यस्थ थीं क्योंकि आज हम सबको लौटना था। बाथरूम भी खाली नहीं थे। सब पैकिंग में लगी हुईं थी। तैयार होकर जाते समय वे हमें बोलीं,’’आप जब जायेंगी तो पंखे बंद मत करना, हमारे कपड़े सूख रहें हैं।" वे अपने घर पर एक भी कपड़ा मैला नहीं लेकर गईंं थीं। वे नहा कर कपड़ें साथ ही धोती थीं। हम दोनों की आदत है, देर से सोना और देर से उठना, यहां अपनी इस आदत का हमें फायदा मिला। वे अपना नहाना धोना कर लेतीं हम जम कर सो लेती, अगर जग जाती तो मोबाइल मेंं लग जा ती। उनके जाते ही हम जल्दी से तैयार हुए। मैले कपड़ों के लिये हमारे पास एक बैग होता है, हम उसमें डालते रहते हैं, जो घर लौटने पर धुलते हैं। इसलिये हमारी पैकिंग हमेशा तैयार रहती है।  जल्दी तैयार होकर हमने लॉक किया और नीचे व्यवस्थापक को चाबी देते समय बता दिया कि हमारे अर्पाटमैंट के पंखे चल रहें हैं। अधिवेशन स्थल पर पहुँचे, वहाँ जलपान का समय समाप्त हो गया था। डॉ. शोभा का करवा चौथ का व्रत था। जीजा जी ने मुझे कहा था कि डायबटीज के कारण इन्हें व्रत नहीं रखना है, पर ये तो बिना सरगी खाये आज तक व्रत रखती आईं हैं। अब बड़ी मुश्किल से फलाहार पर राजी हुईं थी। चाय और बिस्कुट यहाँ हमेशा रहती थी। मैंने उसका नाश्ता किया, डॉ. शोभा ने चाय पी और हम हॉल में आकर व्याख्यान सुनने लगे। टी ब्रेक से पहले हमने मुकेश को फोन कर दिया आने के लिए क्योंकि अगले सत्र में सम्मान था। मुकेश के आते ही हम नेता जी सुभाष चंद्रबोस मैडिकल कॉलेज के पास पिसनहारी की मढ़िया की ओर चल पड़े। यह पहाड़ी पर हैं। दिगंबर जैन पंथ का तीर्थस्थल है। यह अपने वास्तुशिल्प और सुन्दरता के लिये प्रसिद्ध है। इसके लिये एक पौराणिक कथा प्रसिद्ध है। लगभग 600 वर्ष पूर्व एक गरीब महिला पवित्र जैन मुनि के प्रवचनों से प्रभावित हो गई और उसने मंदिर बनाने का संकल्प कर लिया। वह हाथ की चक्की से आटा पिसते हुए इतने असम्भव कार्य को करने में लग गई। उसकी लगन और इच्छा शक्ति देख और लोग भी सहयोग को आ गये। जिसका परिणाम एक भव्य पर्यटन स्थल है। उस महिला को श्रद्धांजली स्वरूप इसका नाम ही पिसनहारी की मढ़िया रख दिया गया और उसकी चक्की के पाटों को भी  शिखर पर जड़ दिया। मूल प्रतिमा श्री पार्श्वनाथ की है। इस क्षेत्र में आवास भोजनालय, गुरूकुल, वृद्धाश्रम और औषधालय है। मदन महल किला के रास्ते में बैलेसिंग रॉक है। 1997 में आये भूकम्प में सारा जबलपुर हिल गया था, बैलेसिंग रॉक पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। मदन महल किला से जबलपुर और इसे देखना अच्छा लगता है। अब हम अधिवेशन स्थल की ओर लौटे। हमने मुकेश से कहा कि वह कोशिश करे हमें दूसरे रास्ते से ले जाने की ताकि हम जबलपुर को और देख लें। रास्ते में महिलायें टोकरों में सामान बेच रहीं थीं। एक महिला हाथ की बनाई बहुत सुन्दर टोकरियाँ बेच रही थी। हम पहुँचे तो लंच समय खत्म होने वाला था। डॉ. शोभा को फलाहार के लिये अलग ले गये। लाजवाब भोजन करके हम हॉल में आ गये और साहित्यकारों को सुनने लगे। चार बजे समापन पर कहाकि जिसने रूकना है वो अधिवेशन स्थल पर रात को रूक सकता है। जिसने जाना है वो खाने के पैकिट लेले। बसों गाड़ियों से सबको स्टेशन पहुँचाने की व्यवस्था थी। स्टेशन पर हम एक घण्टा पहले पहुँच गये। साफ  दुर्गन्ध रहित स्टेशन, आँचल कक्ष जहाँ महिलायें बेफिक्री से सो रहीं थीं। गाड़ी में मेरी साइड लोअर सीट थी, डॉ. शोभा की भी लोअर सीट न0 12 था। एक पिता पुत्री आये। वे रात की गाड़ी से दिल्ली से आये थे। दिन में बेटी को परीक्षा दिलवाने, अब लौट रहे थे। सबने उनकी अपर सीट से अपनी चादरें, कम्बल तकिये उठा लिये, ताकि वे सो जायें। वे तो लेटते ही सो गये। दो जबलपुरवासी ऑफिस के काम से ग्वालियर जा रहे थे। सायं सात दस पर गाड़ी चलते ही वे आपस में बोले,’’इस समय चलने का बस एक ही नुकसान है, हम रास्ते में पड़ने वाले,  डिंडोरी के जंगल को नहीं देख पाते।’’मैं तो खिड़की से बाहर डॉ. शोभा के लिये चाँद ढूंढती रही, अचानक चाँद दिखा, जो हमारे साथ ही चल रहा था। जबलपुर वालों ने भी अपनी पत्नियों को चाँद निकलने की फोन पर सूचना दे दी। एसी डिब्बा होने के कारण डॉ. शोभा को अर्घ देने की चिंता सताने लगी, फिर चुपचाप चंदा को हाथ जोड़ दिये। अब सब खाना खाने लगे। हमने पैकिट खोला, उसमें कचौरी मसालेदार आलू की सूखी सब्जी और आचार था। साथ में हमने दो दो कप चाय ले ली। फिर सहयात्री गोष्ठी शुरू हुई। जबलपुरवासी बाले,’’ हमारे जबलपुर में घण्टाघर पर कवि सम्मेलन होता है तो सुबह हो जाती है।’’ कवि सम्मेलन सुनते ही एक कुर्ता पाजामा धारी, सीनियर सीटीजन के अंदर का कवि जाग गया। उन्होंने भारतीय संस्कृति और भारतीय महिला पर कविता सुनाई, जो मुझे बिल्कुल समझ नहीं आई। मैंने पूछा,’’मतलब।’’उन्होंने संक्षेप में बताया कि महिलाओं की पोशाक और हेयर स्टाइल कैसा हो और महिला के बाल खुले होने से कब कब भारतीय संस्कृति में प्रलय आई। मसलन केकई, जब केश खोलकर, कोपभवन में गई


तो राम वनवास गये, राम रावण युद्ध हुआ। द्रोपदी ने केश खोले, तो महाभारत हुआ और भी कई नाम लिये थे जिनके मरने पर उनकी विधवाओं ने केश खोल कर विलाप किया था।कई जगह तो पति के मरने पर पत्नी के बाल काट देते हैं। मैंने बीच में जोड़ा कि बंगाल मेंं विधवा का सिर मुड़ा दिया जाता था। वो खुशी से बोले,"हाँ, हाँ।" मेरे  भी बाल खुले थे और मैंने जींस और लंबा कुर्ता पहन रक्खा था। विदेश में मैं अब तक साड़ी या सलवार कमीज पहनती हूँ। भारत मेरा देश है, मेरा घर है और अपने घर में कोई कैसे भी रहे। मैंने मन में सोचा कि मैं एक साधारण महिला हूँ, जैसी हिन्दी बोलती हूँ, वैसी ही लिख डालती हूँ। मेरे  बाल खुले रहने से कौन सा तीसरा विश्व युद्ध हो गया है। हमारे देश में महिलायें शास्त्रार्थ करती थीं, स्वयंवर में उन्हें वर चुनने की आजादी थी। सत्यवान से सावित्री की शादी, उस जमाने में सावित्री की पसंद की शादी थी। पर्दा प्रथा नहीं थी। इनकी सोच का विषय महिलाओं की पोशाक और हेयर स्टाइल ही थे। मैंने उन बाउजी से पूछा,’’सर आप कहाँ से रिटायर हुए हैं?’’ वे बोले,’’दिल्ली यूनीर्वसीटी से।’’मैंने कहा,’’सर, आप तो धोती कुर्ता पहन के जाते होंगे विश्वविद्यालय।’’उन्होंने जवाब दिया,’’अरे! कहाँ, बसों में धक्का मुक्की में कैसे कोई धोती पहन कर जा सकता है भला।’’’अब मैं कम्बल ओढ़ कर सो गई।



Monday 29 January 2018

maa to maa hi hote h

एक परिवार अपने रेस्टोरेन्ट में नाष्ते की तैयारी कर रहा था। हमने उनसे नाष्ते के लिये कहा। जवाब में उन्होंने कहा कि इतनी जल्दी तो चाय और पोहा बन सकता है। हमने कहा,’’चलेगा।’’ उन्होनें झटपट बनाना षुरू किया। जितनी देर में हमने पोहा खाया और चाय पी उस घर की महिलाओं ने बटाटा और कांधा की भजिया तल दी। हम भजिया का स्वाद ले ही रहे थे कि साथ ही एक साँड का हृदय विदारक विलाप शुरू हो गया। मैं बोली,’’ लगता है साँड आपस में लड़ रहे हैं। कोई इन पर पानी डाल दे तो ये भाग जायेंगे।’’मेरी सलाह सुनते ही, रैस्टोरैंट मालिक बोला,’’ये न गाड़ी के जाते ही यह चुप हो जायेगा।’’मैंने पूछा,’’गाड़ी से इसके रोने का क्या संबंध है?’’उसने बताया कि इसकी माँ यहीं बिजली के खंभे से सींग खुजला रही थी। करंट लगा और वह मर गई। रात भर यह उसकी डैड बॉडी के पास बैठा रहा। सुबह यह कूड़ा उठाने वाली गाड़ी आई और इसकी माँ को ले गई। तब से रोज जब यह गाड़ी यहाँ डस्टबिन से कूड़ा लेने आती है। ये कहीं भी हो गाड़ी के पास आकर ऐसे ही रोता है। जैसे दूध पीता बछड़ा हो। हम नाष्ता कर चुके थे। पेमैंट करके बाहर आये। थोड़ी दूरी पर देखा सफाई  कर्मचारी कूड़ा भर रहे थे। साँड की आँखों से लगातार आँसू बह रहे थे और वह गले से विलाप कर रहा था। बार बार गाड़ी से मुँह लगा रहा था, मानों पूछा रहा हो," मेरी माँ को कहाँ छोड़ आये?" माँ तो माँ ही होती है। बछड़े से साँड होने पर भी जिसे वह भूला नहीं पाया था।

Thursday 11 January 2018

अखिल भारतीय साहित्य परिषद् द्वारा आयोजित शोभा यात्रा और संस्कारधानी जबलपुर से परिचय, मसालेदार लज़ीज छाछ Akhil Bharatiy Sahitya Parishad dwara aayojit Shobha Yatra Jabalpur part 6

  शोभा यात्रा और संस्कारधानी जबलपुर से परिचय, मसालेदार लज़ीज छाछ   भाग 6
                                                             नीलम भागी
कचनार सिटी में शिवजी के दर्शन करके हम पैदल अधिवेशन स्थल की ओर चल पड़े। सड़क में छोटे से गड्डे के कारण मैं गिर पड़ी। पर कहीं चोट नहीं आई। अधिवेशन स्थल पर सभी साहित्यकार केसरिया पगड़ियों में नज़र आये। हमें भी पहनाई गई। लाइन में बसे और गाड़ियाँ खड़ीं थीं। कुछ साहित्यकार अपनी प्रादेशिक वेशभूषा में भी थे। बसों गाड़ियों ने यात्रा स्थल पर पहुँचा दिया। जहाँ अन्य बैण्ड बाजों के साथ जबलपुर की शान श्याम बैण्ड भी था। लोक कलाकार देशभक्ति के गीतों की धुनों पर अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे थे। बग्गियों पर वरिष्ठ साहित्यकार थे। इस पद यात्रा में ही मुझे समझ आ गया कि विनोबा भावे जी ने जबलपुर को संस्कारधानी क्यों कहा! सड़क के दोनो ओर शहरवासी साहित्यकारों के सम्मान में खड़े थे। अविस्मरणीय यात्रा की शोभा अपने मोबाइल में कैद कर रहे थे। अपने अनमोल ग्रंथों को देख श्रद्धा से नमन कर रहे थे। हमारे प्राचीन कवि लेखक के रुप में बच्चे बैठे थे। महिलायें शंखनाद कर रहीं थीं। जगह जगह साहित्यकारों पर पुष्पवर्षा हो रही थी। ठण्डा पानी हर जगह उपलब्ध था। कहीं आइसक्रीम, समोसे आदि इतना सब कुछ खिला रहे थे कि अघा गये थे। पुराना घना बाजार, सामान से भरी हुई दुकाने थीं, जहाँ हर तरह का सामान बिक रहा था। पान की दुकाने थीं और पान के पत्तों को अलग बेचा जा रहा था। गुड़ की बहुत बड़ी बड़ी भेलियाँ थीं, जिन्हें टुकड़ों में करने के लिये बड़ा सुआ था। जिसे बहुत बड़े साफ सुथरे थाल पर सजा रक्खा था और उस पर मक्खी नहीं थी। पक्षियों के पिंजरे की भी दुकान थी। दुकानों में पीतल के भी बड़े बड़े बर्तन सजे हुए थे। ताजे फल सब्जियों की भी भरमार थी जिसे महिलायें भी बेच रहीं थी। अगले दिन करवाचौथ थी इसलिये करवे सजे हुए थे। रंगोली का सामान बिक रहा था। देसी मिठाइयाँ तिलपट्टी, मूँगफलीपट्टी, फेनी आदि भी बिक रहीं थी। मुझे घूमना बहुत अच्छा लग रहा था, मैं लोकनर्तकों के साथ उनका नृत्य देखती आगे चल रही थी। जहाँ वे रुकते मैं किसी भी दुकान के आगे खड़ी होकर देखने लगती, वे झट से मुझे बैठने को स्टूल दे देते। सायं छ बजे सब को गाड़ियों बसों द्वारा अधिवेशन स्थल पर पहुँचाया गया। जहाँ चाय नाश्ता और स्वादिष्ट छाछ थी। छाछ में गजब का स्वाद। मेरे घर में गाय पलती थी। मट्ठे में मैं तरह तरह के मसाले मिला कर, उसमें स्वाद देती थी, पर ऐसा स्वाद छाछ मैंने कभी नहीं पिया था। जब सब सैटल होने लगे, तब मैं छाछ को बघार देने वाले के पास पहुँची और उनसे इस स्वाद का राज जाना। मैं धीरे धीरे एक एक घ्ूँट पीती जा रही थी और उनकी बताई चीजों का स्वाद ले रही थी। उन्होंने बताया कि घी में सरसों डालें जब सरसों फूटफूट कर रोने लगे तब उसमें करी पत्ता, अक्खा लाल मिर्च डालो और इस बघार को छाछ में डाल कर काला नमक मिला दो। मैंने पूछा,’’और कुछ तो नहीं।’’ उन्होंने जवाब दिया,’’न न।’’इतने में मेरे मुँह में पतला सा हरी मिर्च का टुकड़ा आ गया। मैंने उसी समय मुँह से निकाल कर उन्हें दिखाकर उनसे पूछा,’’ये क्या है?’’वे बोले,’’हरी मिर्च’’ और हंसने लगे। मैं बोली कि हरी मिर्च डालनी क्यों नहीं बताई। वो बोले,’’भूल गये।’’मसाले वाली कुरकुरी लइया तो मुझे बहुत ही पसंद आई। सब थके हुए थे इसलिये बैठ कर सांस्कृतिक कार्यक्रम देखने लगे। आदिवासियों का एक नृत्य था जिसके गाने के बोल में माँ नर्मदा का वर्णन था मुझे जो समझ आया वो ये कि नर्मदा जी में ही ब्रह्मा, विष्णु, महेश हैं। श्याम बैण्ड की धुनों ने माहौल बदल दिया। कल जो कवि कविता पाठ नहीं कर पाये थे, आज उनको समय दिया गया। कविता पाठ शुरु हो गया। 120 कवियों ने कविता पाठ किया। 30 कवियों को सुन कर थकान से हमसे बैठा नहीं जा रहा था इसलिये भोजन करके हम डेरे आकर सो गये। क्रमशः