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नीलम भागी
सुबह नींद खुली, तो सभी महिलायें व्यस्थ थीं क्योंकि आज हम सबको लौटना था। बाथरूम भी खाली नहीं थे। सब पैकिंग में लगी हुईं थी। तैयार होकर जाते समय वे हमें बोलीं,’’आप जब जायेंगी तो पंखे बंद मत करना, हमारे कपड़े सूख रहें हैं।" वे अपने घर पर एक भी कपड़ा मैला नहीं लेकर गईंं थीं। वे नहा कर कपड़ें साथ ही धोती थीं। हम दोनों की आदत है, देर से सोना और देर से उठना, यहां अपनी इस आदत का हमें फायदा मिला। वे अपना नहाना धोना कर लेतीं हम जम कर सो लेती, अगर जग जाती तो मोबाइल मेंं लग जा ती। उनके जाते ही हम जल्दी से तैयार हुए। मैले कपड़ों के लिये हमारे पास एक बैग होता है, हम उसमें डालते रहते हैं, जो घर लौटने पर धुलते हैं। इसलिये हमारी पैकिंग हमेशा तैयार रहती है। जल्दी तैयार होकर हमने लॉक किया और नीचे व्यवस्थापक को चाबी देते समय बता दिया कि हमारे अर्पाटमैंट के पंखे चल रहें हैं। अधिवेशन स्थल पर पहुँचे, वहाँ जलपान का समय समाप्त हो गया था। डॉ. शोभा का करवा चौथ का व्रत था। जीजा जी ने मुझे कहा था कि डायबटीज के कारण इन्हें व्रत नहीं रखना है, पर ये तो बिना सरगी खाये आज तक व्रत रखती आईं हैं। अब बड़ी मुश्किल से फलाहार पर राजी हुईं थी। चाय और बिस्कुट यहाँ हमेशा रहती थी। मैंने उसका नाश्ता किया, डॉ. शोभा ने चाय पी और हम हॉल में आकर व्याख्यान सुनने लगे। टी ब्रेक से पहले हमने मुकेश को फोन कर दिया आने के लिए क्योंकि अगले सत्र में सम्मान था। मुकेश के आते ही हम नेता जी सुभाष चंद्रबोस मैडिकल कॉलेज के पास पिसनहारी की मढ़िया की ओर चल पड़े। यह पहाड़ी पर हैं। दिगंबर जैन पंथ का तीर्थस्थल है। यह अपने वास्तुशिल्प और सुन्दरता के लिये प्रसिद्ध है। इसके लिये एक पौराणिक कथा प्रसिद्ध है। लगभग 600 वर्ष पूर्व एक गरीब महिला पवित्र जैन मुनि के प्रवचनों से प्रभावित हो गई और उसने मंदिर बनाने का संकल्प कर लिया। वह हाथ की चक्की से आटा पिसते हुए इतने असम्भव कार्य को करने में लग गई। उसकी लगन और इच्छा शक्ति देख और लोग भी सहयोग को आ गये। जिसका परिणाम एक भव्य पर्यटन स्थल है। उस महिला को श्रद्धांजली स्वरूप इसका नाम ही पिसनहारी की मढ़िया रख दिया गया और उसकी चक्की के पाटों को भी शिखर पर जड़ दिया। मूल प्रतिमा श्री पार्श्वनाथ की है। इस क्षेत्र में आवास भोजनालय, गुरूकुल, वृद्धाश्रम और औषधालय है। मदन महल किला के रास्ते में बैलेसिंग रॉक है। 1997 में आये भूकम्प में सारा जबलपुर हिल गया था, बैलेसिंग रॉक पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। मदन महल किला से जबलपुर और इसे देखना अच्छा लगता है। अब हम अधिवेशन स्थल की ओर लौटे। हमने मुकेश से कहा कि वह कोशिश करे हमें दूसरे रास्ते से ले जाने की ताकि हम जबलपुर को और देख लें। रास्ते में महिलायें टोकरों में सामान बेच रहीं थीं। एक महिला हाथ की बनाई बहुत सुन्दर टोकरियाँ बेच रही थी। हम पहुँचे तो लंच समय खत्म होने वाला था। डॉ. शोभा को फलाहार के लिये अलग ले गये। लाजवाब भोजन करके हम हॉल में आ गये और साहित्यकारों को सुनने लगे। चार बजे समापन पर कहाकि जिसने रूकना है वो अधिवेशन स्थल पर रात को रूक सकता है। जिसने जाना है वो खाने के पैकिट लेले। बसों गाड़ियों से सबको स्टेशन पहुँचाने की व्यवस्था थी। स्टेशन पर हम एक घण्टा पहले पहुँच गये। साफ दुर्गन्ध रहित स्टेशन, आँचल कक्ष जहाँ महिलायें बेफिक्री से सो रहीं थीं। गाड़ी में मेरी साइड लोअर सीट थी, डॉ. शोभा की भी लोअर सीट न0 12 था। एक पिता पुत्री आये। वे रात की गाड़ी से दिल्ली से आये थे। दिन में बेटी को परीक्षा दिलवाने, अब लौट रहे थे। सबने उनकी अपर सीट से अपनी चादरें, कम्बल तकिये उठा लिये, ताकि वे सो जायें। वे तो लेटते ही सो गये। दो जबलपुरवासी ऑफिस के काम से ग्वालियर जा रहे थे। सायं सात दस पर गाड़ी चलते ही वे आपस में बोले,’’इस समय चलने का बस एक ही नुकसान है, हम रास्ते में पड़ने वाले, डिंडोरी के जंगल को नहीं देख पाते।’’मैं तो खिड़की से बाहर डॉ. शोभा के लिये चाँद ढूंढती रही, अचानक चाँद दिखा, जो हमारे साथ ही चल रहा था। जबलपुर वालों ने भी अपनी पत्नियों को चाँद निकलने की फोन पर सूचना दे दी। एसी डिब्बा होने के कारण डॉ. शोभा को अर्घ देने की चिंता सताने लगी, फिर चुपचाप चंदा को हाथ जोड़ दिये। अब सब खाना खाने लगे। हमने पैकिट खोला, उसमें कचौरी मसालेदार आलू की सूखी सब्जी और आचार था। साथ में हमने दो दो कप चाय ले ली। फिर सहयात्री गोष्ठी शुरू हुई। जबलपुरवासी बाले,’’ हमारे जबलपुर में घण्टाघर पर कवि सम्मेलन होता है तो सुबह हो जाती है।’’ कवि सम्मेलन सुनते ही एक कुर्ता पाजामा धारी, सीनियर सीटीजन के अंदर का कवि जाग गया। उन्होंने भारतीय संस्कृति और भारतीय महिला पर कविता सुनाई, जो मुझे बिल्कुल समझ नहीं आई। मैंने पूछा,’’मतलब।’’उन्होंने संक्षेप में बताया कि महिलाओं की पोशाक और हेयर स्टाइल कैसा हो और महिला के बाल खुले होने से कब कब भारतीय संस्कृति में प्रलय आई। मसलन केकई, जब केश खोलकर, कोपभवन में गई
तो राम वनवास गये, राम रावण युद्ध हुआ। द्रोपदी ने केश खोले, तो महाभारत हुआ और भी कई नाम लिये थे जिनके मरने पर उनकी विधवाओं ने केश खोल कर विलाप किया था।कई जगह तो पति के मरने पर पत्नी के बाल काट देते हैं। मैंने बीच में जोड़ा कि बंगाल मेंं विधवा का सिर मुड़ा दिया जाता था। वो खुशी से बोले,"हाँ, हाँ।" मेरे भी बाल खुले थे और मैंने जींस और लंबा कुर्ता पहन रक्खा था। विदेश में मैं अब तक साड़ी या सलवार कमीज पहनती हूँ। भारत मेरा देश है, मेरा घर है और अपने घर में कोई कैसे भी रहे। मैंने मन में सोचा कि मैं एक साधारण महिला हूँ, जैसी हिन्दी बोलती हूँ, वैसी ही लिख डालती हूँ। मेरे बाल खुले रहने से कौन सा तीसरा विश्व युद्ध हो गया है। हमारे देश में महिलायें शास्त्रार्थ करती थीं, स्वयंवर में उन्हें वर चुनने की आजादी थी। सत्यवान से सावित्री की शादी, उस जमाने में सावित्री की पसंद की शादी थी। पर्दा प्रथा नहीं थी। इनकी सोच का विषय महिलाओं की पोशाक और हेयर स्टाइल ही थे। मैंने उन बाउजी से पूछा,’’सर आप कहाँ से रिटायर हुए हैं?’’ वे बोले,’’दिल्ली यूनीर्वसीटी से।’’मैंने कहा,’’सर, आप तो धोती कुर्ता पहन के जाते होंगे विश्वविद्यालय।’’उन्होंने जवाब दिया,’’अरे! कहाँ, बसों में धक्का मुक्की में कैसे कोई धोती पहन कर जा सकता है भला।’’’अब मैं कम्बल ओढ़ कर सो गई।