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Friday, 17 February 2023

सामाजिक कुरीति और उन्मूलन नीलम भागी Neelam Bhagi

’’मैंने जात नहीं पानी मांगा था।’’ये साबरमती आश्रम की पेंटिंग गैलरी में आठ अनोखी पेंटिंग में से एक पर लिखा था।


 ये पढ़ते ही मेरे ज़हन में आने लगा कि जातिगत भेदभाव उस समय की कितनी बड़ी सामाजिक कुरीति थी जो आज भी है पर पहले से कुछ कम और अलग है। शहरों में भी विवाह के समय जाति महत्वपूर्ण सी होने लगती है। वैवाहिक विज्ञापनों में जाति लिखी होती है या जातिबंधन नहीं। यानि जाति शब्द का इस्तेमाल जरुर किया जाता है। कोई सिर्फ धर्म लिख कर विज्ञापन नहीं देता मसलन हिन्दु युवक या युवती। कर्म और व्यवसाय पर आधारित वर्ण व्यवस्था चार भागों में बांटी गई थी। कालान्तर में यह जाति व्यवस्था कहलाने लगी। बच्चे के जन्म लेते ही उसे जाति मिल जाती है। भेदभाव तो विदेशों में भी देखने को मिलता है मसलन रंग भेद श्वेत अश्वेत। लेकिन भारत में ही जाति व्यवस्था की उत्पत्ति क्यों हुई? शायद जिसका कारण जातीय दंभ और आर्थिक रहा होगा। इस व्यवस्था के कारण समाज के एक बहुत बडे़ भाग को विकास के अवसर नहीं दिए गए। समाज में अस्पृश्यता और शोषण का जन्म हुआ  और लोगों की सामुदायिक भावनाएं संकुचित हो गईं, जिससे राष्ट्रीय एकता की राह में बाधाएं उत्पन्न हुईं। बापू जानते थे कि इसे दूर करना बहुत जरुरी है और उन्होंने शुरुवात की।

 


  साबरमती आश्रम में घूमते हुए, वहाँ लिखा पढ़ते हुए जाना कि उस समय बापू ने अपने लेखन और कर्म में जाति, और श्रम जैसे विषयों पर बेबाक टिप्पणियां लिखीं। उन्होंने अपने विचारों से और कार्यों द्वारा सामाजिक समरसता के लिये प्रयास किया। वे धर्मशास्त्रीय आधारों पर भी छुआछूत और जाति व्यवस्था को अस्वीकार करते थे। बापू को तो समानता के सिद्धांत पर महान प्रयोग करना था जो साबरमती में सम्भव  था। चालीस लोगों के साथ सामुदायिक जीवन को विकसित करने के लिये बापू ने 1917 में यह प्रयोगशाला शुरू की यानि साबरमती आश्रम। यहाँ के प्रयोग से विभिन्न जातियों में एकता स्थापित करना, चरखा, खादी ग्रामोद्योग द्वारा सबकी की आर्थिक स्थिति सुधारना और श्रमशील समाज को सम्मान देना था। यहाँ रहने वाले सभी जाति के देशवासी बिना छूआछूत के रहते थे। छूआछूत को सफाई पेशा से जोड़ कर देखा जाता है। महात्मा गांधी इस अति आवश्यक कार्य को निम्न समझे जाने वाले काम कोे और इसे करने वाले समाज को सम्मान प्रदान करते थे। इस सम्मान का उद्देश्य श्रमशील समाज का सम्मान था। वे सभी को सफाई कार्य में अनिवार्य रूप से भागीदार बनाकर, श्रमशील समाज के प्रति संवेदनशील बनाना चाहते थे।  

   नागपुर के हरिजनों ने बापू के विरूद्ध सत्याग्रह किया। उनका तर्क था कि मंत्रीमंडल में एक भी हरिजन मंत्री नहीं था। साबरमती आश्रम वह प्रतिदिन पाँच के जत्थे में आते, चौबीस घंटे बापू की कुटिया के सामने बैठ कर उपवास करते, बापू उनका सत्कार करते थे। उन्होंने बैठने के लिये बा का कमरा चुना, बा ने निसंकोच दे दिया, उनके पानी आदि का भी प्रबंध करतीं क्योंकि वह पूरी तरह बापूमय हो गईं थीं। किसी भी कुरीति को जड़ से खत्म करना बहुत मुश्किल है। लेकिन असंभव नहीं है। बापू समाज में समरसता लाने के लिये शारीरिक और मानसिक श्रम के बीच की खाई को समाप्त करने की बात कहते रहे। इसके लिये साबरमती में, उद्योग भवन को उद्योग मंदिर कहना उचित है! वहाँ जाने पर, देखने और मनन करने पर पता चलेगा, वहाँ जाकर एक अलग भाव पैदा होता है। समाज में फैली व्याप्त कुरितियाँ, जिन्हें दूर करने का प्रयास किया गया है। वह आज भी कहीं न कहीं विद्यमान है।      

  शादी के लिये वैवाहिक विज्ञापन में अपने स्टेटस के साथ लिखा हिन्दू ,जातिबंधन नहीं। बेटी वाले भी जात, गोत्र, जन्मपत्री सब छोड़ कर बस वर के पद को देखते हुए रिश्ते की बात चलातें हैं। अब हमारे सामने पाँचवा वर्ण आ गया है, जिसे अभिजात वर्ण या धनिक वर्ण कहा जा सकता है। जिसे समय ने लाभ या जरुरत के आधार पर बनाया है और इस वर्ण में स्टेटस देखा जाता है। जबकि वेदों में कर्म के आधार पर वर्ण व्यवस्था थी जिसमें समय के साथ कुरीतियां और विकृतियां आ गईं। कुप्रथाओं में जातिगत भेदभाव, छुआछूत आदि की प्रवृति बढ़ती गई। समान वर्ण में आगे जाकर उच्च वर्ग और निम्नवर्ग में भेदभाव शुरू हो गया। उच्च वर्ग तो निम्न वर्ग को हेय दृष्टि से देखता है। इलीट वर्ग में आते ही, वर सम्पन्न और अपने से दो पायदान ऊंचे वर्ण का दामाद बन जाता है। और लाभ के आधार पर बना पांचवा वर्ण जिसमें जातियों और उपजातियों की बातें करना पिछड़ापन समझा जाता है। वर वधू का रिश्ता देखते समय अपने से नीची जात के लखपति करोड़पति या उच्च पद को प्राथमिकता दी जाती है, न कि ऊँची जाति के कौढ़ीपति को। जाति व्यवस्था विवाह के क्षेत्र को सीमित करती है। जाति से बाहर विवाह नहीं कर पाने से बाल विवाह, बेमेल विवाह, कुलीन विवाह एव ंदहेज प्रथा की समस्या पैदा होती है। अस्पृश्यता के कारण कई हिंदु धर्म परिवर्तन कर लेते हैं। 

 जब जनकल्याण की भावना से कोई रीति उपजी थी, तब उसमें न नयापन था न पुराना। बाद में उपयोगिता के आधार या लाभ देखते हुए, आने वाले  समय में वह कुरीति, प्रथा या परंपरा में बदलने लगी।  रीति और कुरीति का पालन करना हमारे ऊपर है, जिसका सुविधा और उपयोगिता के अनुसार, हम इसमें से चुनाव करते हैं। लेकिन व्यर्थ खत्म होना ही चाहिए, जो हुआ भी है जैसे सति प्रथा, पर्दा प्रथा, बाल विवाह, देवदासी आदि। पुरानी कुरीति में नयापन भी तो हुआ है विधवा विवाह को समाज ने स्वीकारा है। 

     जाति भेद के दोष से अलगाव, समरसता का अभाव उत्पन्न होता है। देश के विकास के लिए सामाजिक समरसता की जरूरत होती है। हमारा देश विविधताओं का देश है। भाषा, खानपान, देवी देवता, पंथ संप्रदाय न जाने क्या क्या है? और तो और जाति व्यवस्था में भी विविधता है। आज एक ही वर्ण से सम्बंधित विभिन्न जातियाँ राजनीतिक स्वार्थों के लिए संगठित होकर प्रजातंत्र के स्वस्थ विकास में बाधा पैदा कर रहीं हैं। जिसका राजनीतिक पार्टियाँ अपने फायदे के लिए हमारे बीच वैमनस्यता को बढ़ातीं हैं। हमारी एकता में भी दरार पैदा करने का काम करतीं हैं। राजनीतिज्ञों के कारण सामाजिक कटुता जो समाज में दीमक की तरह लग गई है। इस पर विवाद नहीं, विचार ज्यादा करना है। और आधुनिक विमर्शों को स्वीकार करना है। नवीनता को स्वीकारना, आत्मसात करना हमारे समाज के हित में है। 

 किसी भी पंथ, संप्रदाय, समाज सुधारकों और संतों ने मनुष्यों के बीच भेदभाव का सर्मथन नहीं किया। इसलिये धर्मगुरूओं के अनुयायी सभी जातियों के होते हैं। वे कभी अपने गुरू की जाति नहीं जानना चाहते, वेे गुरूमुख, गुरूबहन, गुरूभाई होते हैं। 

जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान।

मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान।

यानि योग्यता के आधार पर विवाह करना चाहिए न कि जाति के आधार पर। इसके उन्मूलन के लिए अर्न्तजातीय विवाह को खुले मन से स्वीकारना होगा। इसमें महिलाओं को अपनी सोच बदलनी होगी क्योंकि वे परिवार की दूरी हैं। विवाह के बाद दूसरी जाति की लड़की आपके परिवार में आती है या आपकी बेटी जाती है तो हर लड़की अपनी जाति में होने वाले रिवाज़ बचपन से देखती मनाती और जानती है। वो आपके घर में तो नहीं पली न। ये मान कर चलो कि जो लड़की शिक्षित, आत्मनिर्भर है वो कुछ समय में सब जान जायेगी। हर जाति कि कुछ न कुछ विशेषता होती है। हमें उसे भी लेना है। अपना लादना नहीं है। कुछ शिक्षित महिलाएं तो इतनी ज्ञानी हैं कि वे अपनी बहू की जाति पूछने पर बंगालन, मद्रासन, पंजाबन, भइयन, बिहारन आदि बताती हैं। लेकिन बात बात पर कान्यकुब्ज ब्राह्मणी, अपनी बंगाली ब्राह्मण बहू को ताना मारने से बाज नहीं आती। अगर जाति भी अलग होगी तो हम सोच ही सकते हैं। फिर इन लक्षणों से तो मनमुटाव ही पैदा होगा और बाद में दोष जाति को दिया जाता है। अर्न्तजातिय विवाह करने वालों को सोचना होगा कि अपनी जाति में भी तो परिवार में ऐसा होता है। बस कहा ये जाता है ’’तुम्हारे यहाँ ऐसा होता है! हमारे यहाँ तो नहीं।’’ सैंकड़ों साल से चलने वाली किसी परंपरा को कम समय में दूर कर लेना भी आसान नहीं है। लेकिन जातिविहीन समाज का बीज बोया जा चुका है। 

प्रेरणा शोध संस्थान से प्रकाशित केशव संवाद के फरवरी अंक में यह लेख प्रकाशित हुआ है।