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Monday, 26 November 2018

इन कुत्तों का तो नामकरण भी नहीं हुआ था!! नीलम भागी

इन कुत्तों का नामकरण भी नहीं हुआ था!!
                                                नीलम भागी
     मेरे ब्लॉक के तीन कुत्ते मेन गेट पर घुसते ही सब का स्वागत करने के लिए हमेशा तैयार रहते थे। अगर आप पैदल हैं तो आपको काट कर स्वागत करेंगे। कार में हैं तो कार के पीछे दौड़ते आयेंगे जिस घर के आगे आपकी गाड़ी खड़ी होगी, वहाँ वे खड़े होकर आपके निकलने का इंतजार करेंगे ताकि वे आपको काटें। टू विलर वालों को वो देख कर बहुत खुश होते थे। वे टाँग पकड़ने के लिए वे साथ साथ भागने लगते थे। गार्ड उन्हें डांटता था, तो वे पार्क में जा कर चुपचाप बैठ जाते थे। अकेला कोई पार्क में जाये तो उसे काट लेते थे। हमारे घरों में डण्डी रहती थी। जाते हुए हम ले जाते थे और गार्ड के पास रख देते थे। लौटते हुए गार्ड के पास से छड़ी उठा लेते थे। अगर आपका गेट खुला रह गया तो ये एक एक चप्पल उठा कर पार्क में ले जाते थे और उसके टुकड़े टुकड़े कर देते थे। जूता जोड़े से नहीं, जो इनका दिल करेगा यानि आपके तीन जोड़े खराब। गाड़ी पर रात को यदि आपने कवर चढ़ा दिया तो सुबह वो चिथड़ों में तब्दील मिलेगा। बाइयों का कहना है कि ये पचास लोगो को काट चुके हैं। मेरी दोनो मेड को ये काट चुके थे। इनकी वजह से हमारे ब्लॉक में बाइयों को असाधारण दुलार मिलता है क्योंकि अगर वो काम छोड़ देगी तो दूसरी बाई से काम की बात करो तो उसका जवाब होता ’’कुत्तों के ब्लॉक में मैं काम नहीं करेगी।’’नवरात्र में हमारे ब्लॉक में बाजपेयी परिवार ने कीर्तन का आयोजन किया तो महिलाओं को कहा गया कि हाथ में डण्डी लेकर आयें। रावण के पुतले को दशहरे तक इन कुत्तों से बचाना, बच्चों के लिये आसान न था!                                   
      पार्क में रावण का पुतला एक बजे खड़ा कर दिया था। उसके बराबर में स्टूल पर हाथ में डण्डा पकड़े एक लड़का धूप में बैठा था। तीन लड़के पेड़ की छाया में डण्डे लिये बैंच पर बैठे थे। धूप में बैठने की शिफ्ट बदलती रहती थी। यह देख मेरे मन में एक प्रश्न बार बार उठ खड़ा हो रहा था। भला 12 फुट के रावण को कौन चुरायेगा! मैं चल दी पूछने। जाने पर पता चला कि वे रावण के पुतले को कुत्तों से बचाने के लिये रखवाली कर रहें थे। यहाँ के कुत्ते गाड़ी का कवर फाड़ देते हैं। इसलिये वे रावण को भी फाड़ने की फिराक में थे। ये रावण बच्चों की कड़ी मेहनत से तैयार हुआ था। रावण दहन तो सायं 7.30 था। सर्दी आ गई। आंगन में पेड़ छायें हुए हैं। मैं धूप के कारण पेड़ नहीं छटवाना चाहती। कारण धूप तो सिर्फ दो महीने सेकी जाती है। गर्मी आठ महीने झेलनी पड़ती है। 93 साल की अम्मा को धूप चाहिए। सामने पार्क में कुत्तों की वजह से नहीं बिठा सकती थी। कई बार इन्हें पकड़ने वाले आये। इन्होंने छिपने के ठिकाने ढूंढ रखें थे। रैंप के नीचे नाली में छिप कर बैठ जाते थे। वे थक कर चले जाते तो उनके जाने के बाद निकल कर उत्पात मचाते। हाई जम्प में ये बेमिसाल थे। जिनकी बाउण्ड्री वॉल पर ग्रिल नहीं है। कुत्ते पकड़ने की गाड़ी देखते ही ये उन घरों में कूद जाते और छत पर छिप कर बैठ जाते। मैंने एक छोटा सा मिट्टी का बर्तन गेट से बाहर जानवरों के पानी पीने के लिये रक्खा है। एक दिन बहुत गर्मी थी। मुझे लगा बाहर कोई गेट खोलने की कोशिश कर रहा है। मैं बाहर आई देखा ये गेट से अपने को रगड़ रहें हैं। मुझे देखते ही चुपचाप खड़े होकर, मुझे देखने लगे। मैंने देखा बर्तन में पानी खत्म हो गया था। मुझे न जाने क्या सूझा मैंने बर्फ का ठंडा पानी बनाया। पानी के बर्तन में बर्फ का टुकड़ा डाला और उसमें गेट के अंदर से ही एक गिलास पानी डाला। मैं पानी डालती गई तीनों ने क्रम से पानी पिया। शाम को मैं किसी काम से बाहर जाने लगी, ये मुझे देखते ही पार्क में चले गये। मैंने भी डण्डी फैंक दी। जब बाहर से लौटी फिर ये मुझे देखते ही पार्क में चले गये। बड़ी मेहनत से ये पकड़े गये। इनसे पहले ब्लॉक के कुत्तो के नाम उनके रंग के अनुसार होते थे जैसे कालू, भूरे, चिंकी आदि। ये इतने दुष्ट थे कि किसी ने इनका नाम भी नहीं रक्खा था। इन्हें कुत्ते नाम से ही पुकारा गया। इनके जाने से सभी प्रसन्न थे। कुछ दिनों बाद ये बिल्कुल शरीफ़ होकर लौटे हैं। काटने की आदत भी छोड़ आए हैं।

Thursday, 22 November 2018

mainaisikyunhoon: बेल्ट की कौनू आवश्यकता नहीं है यहाँ! चरखा पार्क, ब...

mainaisikyunhoon: बेल्ट की कौनू आवश्यकता नहीं है यहाँ! चरखा पार्क, ब...: बेल्ट की कौनू आवश्यकता नहीं है यहाँ! चरखा पार्क बापूधाम मोतीहारी Bihar yatra बिहार यात्रा 3                                     नीलम भागी मोतीहारी...

बेल्ट की कौनू आवश्यकता नहीं है यहाँ! चरखा पार्क, बापूधाम मोतीहारी,Bihar Yatra बिहार यात्रा 3 नीलम भागी

बेल्ट की कौनू आवश्यकता नहीं है यहाँ! चरखा पार्क बापूधाम मोतीहारी  बिहार यात्रा 3
                                    नीलम भागी
मोतीहारी स्टेशन पर कदम रखते ही दीवारों पर बापू और उस समय चम्पारण सत्याग्रह 1917 में उनके मार्गदर्शन में किए गये कार्यो को दर्शाते चित्र, पेंटिंग, मूर्तियां देख कर मेरी मन स्थिति वैसी ही हो गई, जैसी साबरमती आश्रम में जाने पर हुई थी यानि बापूमय। स्टेशन पर गंदगी बिल्कुल नहीं थी। 15 अप्रैल 1917 को बापू यहाँ पर आये थे तो युवा थे इसलिये अधिकतर इन चित्रों में वे युवा हैं। स्टेशन से बाहर उस समय का रेल के डिब्बे का दृश्य है, जिस वेश भूषा में वे आये थे, वैसी ही बापू की मूर्ति पर पोशाक दर्शाई गई है। गैस्ट हाउस जाने के लिए गाड़ी पर बैठते ही मैं सीट बैल्ट लगाने लगी। तो ड्राइवर साहेब भीम सिंह बोले,’’ बेल्ट की कौनू आवश्यकता नहीं है यहाँ! ’’मैंने पूछा ,’’ यहाँ सीट बैल्ट न बांधने पर जुर्माना नहीं है।’’ उसने जबाब दिया कि कुछ नहीं होगा। सायं 4.30 हम गैस्ट हाउस पहुंचे वहाँ खाना तैयार था। खाते ही अपने कमरे में जाकर थोड़ा आराम किया और चाय पी कर हम गांधी स्मारक संग्रहालय गये। वहाँ श्री बृजकिशोर जी पूर्व स्वास्थ्य मंत्री बिहार सरकार , सचिव गांधी स्मारक संग्रहालय से भेंट हुई। मैंने उन्हें अपना परिचय दिया। सुनकर गांधी विचारधारा के वे वयोवृद्ध सज्जन बोल,"मुझे तो तुम कस्तूरबा लग रही हो ।" सुनकर मेरा गला भर गया। बा जैसा असाधारण व्यक्तित्व !! अंधेरा हो गया था। उन्होंने किसी के साथ हमें चरखा र्पाक देखने भेजा और उन्होंने उससे कहा कि इन्हें लाइट जला कर अच्छे से दिखाना। वो हमें छोड़ कर आ गया। शायद उसकी ड्यूटी ऑफ हुए काफी समय हो चुका था इसलिये। यहाँ के चौराहे को भी चरखा चौराहा कहते हैं। यहाँ के गेट पर बाहर हाइ मास्ट लाइट लगी थी। उसकी रोशनी में सब दिख रहा था। बस तस्वीरें साफ नहीं आ रहीं थी। पत्थरों पर बा और बापू की तस्वीरें उभारी गईं थी। ऊँचाई पर एक बहुत बड़ा चरखा है। खादी कमीशन द्वारा यह विशाल चरखा लगाया गया है। बैठने के लिये भी स्थान है। इन पत्थरों पर सत्याग्रह के समय के दृश्य भी दर्शाए गए थे। काफी समय हमने चरखा पार्क में बिताया। मुझे तो यहाँ फिर से दिन की रोशनी में संग्रहालय देखने आना था फिर हम गैस्ट हाउस लौटे। रास्ते में दुर्गा विसर्जन का भी जुलूस दिखा.आते ही मैं सो गई। सुबह नौ बजे हमें चम्पारण बापू की  कर्मभूमि को देखने के लिए निकलना था। नाश्ता करके हम सुबह नौ बजे निकले। हमारे गाइड थे अभिषेक। चम्पा के पेड़ों के आरण्य से इस जगह का नाम चम्पारण है। सड़क के दोनो ओर पेड़ ,बागमती, गंडक नदियों के कारण यहाँ की भूमि बहुत उपजाऊ है। पूर्वी चंपारण की सीमा नेपाल से मिलती है। उत्तम कोटि के बासमती चावल और गन्ने की उपज के कारण यह जिला  मशहूर है। शायद इसलिये यहाँ जनसंख्या का घनत्व भी सबसे अधिक है। हर जगह घनी हरियाली देखने को मिल रही थी। पौराणिक दृष्टि से भी यह जगह पवित्र है। भक्त ध्रुव ने यहाँ घोर तपस्या कर ज्ञान प्राप्त किया था। देवी सीता की शरणस्थली भी यहाँ की पवित्र भूमि है। राजा जनक के समय यह मिथिला प्रदेश का अंग था। भगवान बुद्ध ने भी यहाँ उपदेश दिया था। भारत में बापू का स्वतंत्रता संग्राम का पहला सफल सत्याग्रह भी चंपारण सत्याग्रह है। इतनी उपजाऊ भूमि के किसान नील की तीन कठिया खेती के कारण बेहाल थे। राज कुमार शुक्ल ने गांधी जी को यहाँ की स्थिति से अवगत करवाया और उनसे चम्पारण चलने का आग्रह किया। पूरी जानकारी प्राप्त कर बापू 10 अप्रैल 1917 को कलकत्ता से पटना होते हुए बापू मुजफ्फरपुर पहुँचे थे फिर बापूधाम। अपने सत्याग्रह के बल पर यहाँ के किसानों को तीनकठिया से मुक्ति दिलाई। आज मैं भी इस हरीतमा पवित्रभूमि पर हूँ। मेरे दिमाग मेंं वही प्रश्न फिर खड़ा हो गया कि ऐसी भूमि के लोग प्रवासी क्यों हैं?








Thursday, 15 November 2018

हम अपने बच्चे को वह सब देंगे जो हमें.... नीलम भागी Neelam Bhagi नीलम भागी E se Imali E se EEkh


 
हम अपने बच्चों को वो सब देंगे जो हमें नहीं मिला है। ये लाइने मुझे अकसर सुनने को मिलती हैं। अपने आस पास के समाज को देखती हूँ तो मुझे माँ बाप संतान को हैसियत से ज्यादा देते हुए ही दिखते हैं। हमें भी हमारे अम्मा पिता जी ने दिया है और उन्हें भी उनके माँ बाप ने दिया होगा। ये इनसान की फितरत में शामिल है कि औलाद के भविष्य को बनाने के लिए आस पास की दुनिया से बेखबर होकर जुट जाना। सभी चाहते हैं कि उसकी संतान उससे कई सोपान ऊपर हो। झुग्गी झोपड़ी के अनपढ़ लोगो के बच्चों को मैंने पच्चीस साल पढ़ाया। मैंने देखा जिसने भी अपने बच्चे को स्कूल भेजना बंद किया, उसका मुख्य कारण आर्थिक ही था। पापा की फैक्टरी में ताला बंदी हो गई. खायें कहाँ से? गाँव वापिस लौटना मजबूरी है। बाइयों को अगर किसी के घर से फल या मिठाई मिलती, वह स्वयं न खाकर, स्कूल के आसपास मंडराती रहती किसी बच्चे को देखते ही इशारे से बुला कर, ,खाने का सामान अपने बच्चे के लिए भिजवाती। सबसे ज्यादा मैं उन बाइयों का सम्मान करती जो झाड़ू, पोचा बर्तन करने के लिए अपनी बच्चियों को साथ न ले जाकर उन्हें पढ़ने भेजतीं क्योंकि वे भी अपनी बच्चियों को अपनी मैडम की तरह देखना चाहती थीं। इतने सालो में सिर्फ एक बच्चा ओबीराम को मैं आज तक नहीं भूली, पढ़ने का बेहद शौकीन, हैण्डराइटिंग उसकी बहुत ही सुंदर!ने स्कूल आना बंद कर दिया। मैंने उसके साथी बच्चों से स्कूल न आने का कारण पूछा, उन्होंने बताया कि वह पॉलिथिन बिनने जाने लगा है। घर का पता तो इनका यही होता था आठ, नौ, पाँच सेक्टर झुग्गी और पिता का नाम। मैंने उसके पड़ोसियों  से उसके माता पिता को बात करने के लिए बुलवाया। पता चला कि वे झुग्गी बेच कर कहीं और चले गए हैं क्योंकि उसका पिता मंहगा नशा करता है इसलिये ओबीराम का पन्नी बिनना बहुत जरूरी है। एक मशहूर टी.वी. शो में बाल दिवस के कारण सप्ताह बच्चों के लिए रखा गया। एक बच्चे से पहला प्रश्न पूछा गया कि इनमें से किसका स्वाद खट्टा मीठा है। चार विकल्प थे जिसमें इमली भी था। मेधावी बच्चे को नहीं पता था। उसने लाइफ लाइन का ऑडियंस के लिए इस्तेमाल किया। ऑडियंस भी बच्चे थे। 99 से ज्यादा प्रतिशत बच्चों का उत्तर था इमली। यह सुन कर एंकर भी बहुत हैरान हुए, जब बच्चे ने कहा कि उसने कभी इमली को देखा ही नहीं। एंकर ने शो में कई बार उस लायक बच्चे को कहा कि घर जाकर इमली जरूर  खाना। किसी भी प्रश्न का वह तुरंत जवाब देता। जब उससे गुलिवर की यात्रा का साधारण प्रश्न पूछा, उसने लाइफ लाइन का इस्तेमाल किया। यानि माता पिता ने उसे असाधारण बनाने के लिए साधारण से दूर रक्खा। शायद शुरू के चार या पाँच प्रश्नों में सबसे सरल दो प्रश्नों में वह दो लाइफ लाइन इस्तेमाल कर चुका था। अगर उस बच्चे से सरल की जगह मुश्किल प्रश्न पूछे जाते तो वह निश्चय ही जवाब देता। जिस व्यंजन में इमली जो स्वाद देगी, वो अमचूर या अनारदाने का पाउडर नहीं देगा। मैं, अनिल, अंजना भाई बहन मेरठ मेंं के. वी. डोगरा लाइनस में पढ़ते थे। हम सबके दोस्त एक ग्रुप में पैदल घर से स्कूल आते जाते थे। कैंट एरिया है। आज की तरह स्कूल का गेट अलग नहीं था। कहीं से भी आते जाते थे। इमली, कैथा, अमरक, अमरूद, जामुन, चिलबिल, जंगल जलेबी, बेल पत्थर, अमरक न जाने क्या क्या जो भी उस एरिया में पेड़ होते उसके फल तोड़ना अपना अधिकार समझते थे। लड़के पेड़ पर चढ़ते थे। हम कैच करते थे। कोई डर भय नहीं होता था। नवीं कक्षा में आते ही ये कर्म अपने आप छोड़ देते थे। हमारे देश की धरती ने हमें जो भी वनस्पति खाने को दी है उससे अपने बच्चों को सर्मथ अनुसार परिचित कराया है और बाल साहित्य पढ़ाया है। वे भी अपने बच्चों को ऐसे ही पाल रहें हैं ताकि उनके बच्चों को इ से इमली और ई से ईख का स्वाद पता हो और वे उनकी तरह पंचतंत्र की कहानियों का रस ले। सिंगापुर रेया और अमेरिका से गीता आई। मेरे भाई यशपाल ने दोनों को कटोरी में करोंदे नमक लगाकर दिए। नमक लगा लगा कर वे उसे खा रहीं थीं और उनको वह याद करा रहा था करौंदा करौंदा। अपने बच्चों को वो जरूर दें जो उन्हें उनके माता पिता से मिला है मसलन गन्ने की गनेरियां भी। बाद में तो उनके लिए पूरी दुनिया के रास्ते खुले हैं।






Saturday, 10 November 2018

मनचली गाड़ी का सफ़र!! कुछ नहीं कहने को है, खड़ी रही तो..........बिहार यात्रा Bihar yatra भाग 2 नीलम भागी

 कुछ नहीं कहने को है, खड़ी रही तो..........बिहार यात्रा भाग 2
                                    नीलम भागी
मैंने एक कर्मचारी से पूछा,’’गाड़ी के मोतीहारी कब तक पहुँचने का अनुमान है?’’उसने जवाब दिया,’’कुछ नहीं कहने को है, खड़ी रही तो, यहीं आधा घण्टा खड़ी रहेगी।’’उसका उत्तर सुन कर लगा कि गाड़ी है या मनचली! जब दिल करेगा चलेगी, जब दिल करेगा रूकेगी। खैर डिब्बा बहुत साफ सुथरा और सुन्दर था। बढ़िया डस्टबिन भी रक्खा हुआ था। जिसे भरने पर खाली भी किया जा रहा था। फर्श और टॉयलेट भी साफ थे और उसमें टॉयलेट पेपर भी रक्खा हुआ था। शायद गाड़ी नई थी, अगर उसमें गुटका, पान मसाला या तंबाकू थूका न गया तो बहुत सुन्दर रहेगी। सामने सीट की अत्यंत सुन्दर युवती का नाम इन्नमा था। उसे लखनऊ उतरना था। समय रात 9 बजे पहुंचने का था पर रेलवा के लक्षण देखकर नहीं लग रहा था कि वो रात दो बजे तक लखनऊ पहुँचेगें। उसके पति ने डॉ0 संजीव से कहा कि वे इन्नमा को अपनी लोअर सीट दे दें और उसकी मिडिल सीट ले लें क्योंकि वह प्रैगनेंट है। डॉ0 संजीव तुरंत सीट छोड़ कर उसके पति के पास जाकर बैठ गये। मैंने उसे कहा ,’’ तुम लेट जाओ।’’ वो बोली,’’मैं सात बजे नहीं सोती।’’ मैंने कहा कि मैं तुम्हें सोने को नहीं, लेटने को कह रहीं हूं। जब से घर से निकली हो, गाड़ी के इंतजार में बैठी या खडी रही हो। वो चादर ओढ़ कर लेट गई। मायके जा रही थी, बार बार उसके अम्मी अब्बू के फोन आ रहे थे। मैं और वो बतियाने लगे। नौ बजे सबने बिस्तर लगाया और सोने लगे। साइड सीट पर दो लड़कियां अपने ग्रुप से आकर सो गई। मैं भी मोबाइल में लग गई। बिहारी श्रमिकों ने वहीं अपनी सीट के पास ही कपडे बदले। पहले उतारे गए नये कपड़े, कच्छा बनियान पहने पहने ही कपड़े घड़ी करके (तह लगा कर)रक्खे फिर नये र्शाट्स और नई टी र्शट्स पहनी और सो गए। मैं बीच बीच में सो भी जाती। सुबह हुई अभी हम यूपी में ही थे। बड़े इंतजार के बाद गोरखपुर आया। इस समय दोनो साइड सीट की लड़कियां उठ कर बैठ चुकी थीं। उन्होंने मेकअप भी लगा लिया था। सीट न06 पर उनका एक साथी युवक आकर बैठ गया और वो आपस में बतियाने लगे। तमीज़दार  भाषा और अच्छी हिन्दी सुनने को मिल रही थी। लड़कियां जो भी खाने को देखती डिमांड करती, युवक उन्हें दिलवा देता साथ ही पहले खिलाये व्यंजनों को गिनवा देता। सुनकर वे खी खी कर हंस देतीं। वे कुछ भी खाने से पहले उस युवक से कहतीं,’’लीजिए, आप भी खाइए न।’’वह युवक बड़ी विनम्रता से जवाब देता,’’आप ही खा लीजिए, हमें कुछ भी खाते लैट्रिन लग जायेगी।’’ लड़कियां जवाब देतीं,’’लैट्रिन तो बिल्कुल साफ है।’’ उसने जवाब दिया कि उसमें पानी नहीं है। उनमें से एक लड़की ने कहाकि उसमें टॉयलेट पेपर तो हैं न। ये तो उनके लिए बहुत बड़ा मजाक बन गया। जिस पर वह हंसते हंसते लोट पोट हो गये। गाड़ी बघा पर रूकी तो चलने का नाम न ले। चली तो जाकर चमुआ पर तो अड़ ही गई। राह के स्टेशन साफ थे। कई जगह देखा कि सफाई कर्मचारी झाड़ू लगाते हुए कचरा इक्ट्ठा करने की बजाय रेल पटरी पर ही फैला रहे थे। शायद उनकी ड्यूटी में स्टेशन साफ करना होगा, पटरी साफ करना नहीं। नरकटिया के बाद बेतिया बड़ी देर में आया। एक सीन मुझे बहुत हैरान कर रहा था वह यह कि बीच में किसी भी जगह गाड़ी रूकती तो छोटे छोटे लड़के गले और हाथों में गुटके की पुड़ियों की माला लटकाये बेचने को आते। न कि चाय पकौड़े। पटरी के दोनो ओर फैली हरियाली मन को मोह रही थी। जमीन ऐसी कि मिट्टी दिखाई नहीं दे रही थी। किसी भी वनस्पति ने धरा को ढक रक्खा था। मोतिहारी से काफी पहले सुगौली स्टेशन पर, लगेज लेकर ए.सी. से बाहर आकर दोनो दरवाजों के बीच  ताजी़ हवा में मैं खड़ी हो गई। दोनो दरवाजों से दूर दूर तक हरियाली ही दिख रही थी। साथ ही मेरे दिमाग में ये प्रश्न भी खड़ा हो गया कि जहाँ की धरती
 इतनी उपजाऊ हो, वहाँ के लोग क्यों प्रवासी बनने को मजबूर हैं? और अब मैं मोतिहारी बापूधाम स्टेशन पर वही लोकगीत गुनगुनाते उतरी ’रेलिया बैरन, पिया को देरी से लाये रे।   
 


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Sunday, 4 November 2018

रेलिया बैरन, पिया को लिये जाये रे Bihar Yatra बिहार यात्रा भाग 1 नीलम भागी


हमसफर गाड़ी पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन से दोपहर 1.45 पर चलनी थी। बारह बजे मैं घर से निकली, रास्ते में मैसेज़ आया, गाड़ी तीन घण्टे लेट थी। दशहरे का दिन था। जाम मिलने का डर था इसलिये स्टेशन पर बैठ कर इंतजार करना ही उचित समझा। और मैं घर नहीं लौटी। मेरी बिहार की यह पहली यात्रा थी। बताए गए प्लेटर्फाम पर और भी दूर दूर से आई सवारियाँ इंतजार कर रहीं थीं। कुछ सवारियों के चेहरे पर रेलवे के प्रति गुस्सा, आक्रोश था , ये वो लोग थे, जिन्हें रास्ते में बिहार से पहले उतरना था। कुछ सवारियां ऐसी थीं जिनके चेहरे पर महात्मा बुद्ध की तरह शान्ति थी। बात करने पर पता चला कि ये बिहार जाने वाले लोग हैं। उन्हें कोई रेलवे से  शिकवा शिकायत नहीं है। मैंने कुछ लोगो से पूछा कि ये गाड़ी हमेशा लेट होती हैं। उनका मुस्कुराते हुए जवाब था कि ये तीन घण्टे तो कुछ भी नहीं है, यहाँ की गाड़ियों का तो 8-10 घण्टे  विलंब से होना आम बात है। लेकिन राजधानी समय से रहती है। मैंने पूछा,’’ऐसा क्यों?’’ उनका जवाब था कि उसमें ’व्ही. आइ. पी VIP सफ़र करते हैं न इसलिए।’ मैंने भगवान का शुक्र किया कि मेरा वापसी का टिकट पटना से राजधानी का था। अब खाली गाड़ी के इंतजार में बैठी हूँ तो मेरे दिमाग में तरह तरह के प्रश्न उठ खड़े हो रहें हैं। मसलन अगर मुझे इस बैंच पर बैठने की जगह न मिलती तो!! क्योंकि मुझे डॉक्टर ने जमींन पर बैठने और पालथी मार कर बैठने को मना कर रक्खा है। तब तो मैं तीन घण्टे खड़े रहने की सजा भुगतती न। अब बैठने को  जगह जो मिल गई है, तो दिमाग तो चलेगा ही न। अब मेरा रेलवे के प्रति ज्ञान में और इजाफा हुआ। वो ये कि  अगर बताये हुए समय पर गाड़ी चल जाये तो भी गनीमत है। मैं बोली,’’ ऐसा भी होता है।’’ जवाब ,’’बिहार की गाड़ियों में ऐसा होना, आम बात है।’’जो अकेली सवारियाँ जिन्हें घर से निकले कई घण्टे बीत चुके हैं। वे प्राकृतिक क्रिया से फारिग होने कैसे जा सकते हैं ?  न तो गंदे टॉयलेट में सामान ले कर जा सकते हैं, न ही प्लेटर्फाम पर छोड़ कर जा सकते हैं। सबसे बड़ा संकट सीट भरने का था। उस सिचुएशन में ये बहुत बड़ी समस्या थी। इसलिए अकेली सवारी, सू सू आने के डर से, चाय पानी भी नहीं पी रही थी। खैर 5 बजे  गाड़ी आई। मेरी सीट न0 1 थी। रात को सोने का तो सवाल ही पैदा नहीं था। गाड़ी में मुझे वैसे ही कम नींद आती है। अब वाशरूम आने वाले धाड़ धाड़ दरवाजा खोले और बंद करेंगे और मेरी नींद टूटती रहेगी। सबसे पहले बैठते ही मैंने पानी पिया, फिर लगेज़ सैट किया। अपने आस पास देखा, मेरे सामने 4 न0 सीट पर डॉ0 संजीव थे और एक लखनऊ जाने वाला बहुत खूबसूरत युवा जोड़ा था और अब मैं चल दी, डिब्बे का मुआयना करने। मैंने देखा कि ज्यादातर सवारियाँ प्रवासियों की थी। जो घर जा रहीं थी। बहुत कम सपरिवार थे। जो अकेले थे, उनमें से कइयों का बैग कपड़े सब कुछ नये नये थे। उन पर कीमत के स्टिकर भी चिपके थे। और मेरी स्मृति में इलाहाबाद, जौनपुर में बिताया बचपन, उस समय वहाँ का सुना लोक गीत याद आया ’रिलिया बैरन पिया को लिये जाये रे’। ये परिवार के कमाऊ बेटा, भाई या पति घर लौट रहे थे । 5.15 पर रेलवा हिली फिर रूकी रही और 5.30 पर चली। रेलवा का पहला स्टॉपेज कानपुर था। पर इस रेलवा ने तो जगह जगह रूकने की ठान रक्खी थी। कहीं भी रूक जाती। मसलन साहिबाबाद में 6.10 पर अड़ गई। मुझे बापूधाम मोतिहारी उतरना था। समय 8.53 सुबह है। रेलवा के लच्छन देख कर मैं समझ गई कि शाम तक बापूधाम पहुँचूगीं। इसलिये मैंने समय देखना बंद कर दिया। मेरी सीट पर तीन बिना गिलाफ के तकिए थे। मैंने परिचारक से गिलाफ चढ़ाने को कहा, आधे घण्टे बाद वो मेरे पास एक गिलाफ रख कर बोला,’’लीजिए, चढ़ा लीजिए न।’’मैंने पूछा बाकि के दो का गिलाफ! उसने बड़ी नम्रता से जवाब दिया,’’जो लेंगे वो चढ़ाएंगे न, आप क्यों हलकान हो रहीं हैं।’’ मैं उस बिचारे को और परेशान न कर स्वयं ही दो चादरे ले आई। कंबल मुझे कहीं दिखाई नहीं दिया। वो मैंने उससे मांगा ,उसने कहा कि वह काम सिस्टमवा से कर रहा है। सबको चादर तकिया देकर कम्बलवा देगा।" सिस्टमवा के तहत मेरे पास किनारी उधड़ा न जाने किसी सवारी की तीखी इत्र की गंध वाला कंबल एक घण्टे बाद मेरे पास आया। तीन तकिए लगा और कंबल की तस्वीर ले, उसके नीचे चादर लगा के मैं अधलेटी सी बैठ गई। बाहर अंधेरा था। हां चाय बहुत बढ़िया थी।       क्रमशः