Search This Blog

Friday 28 December 2018

mainaisikyunhoon: बापूधाम मोतिहारी की मोती झील Moti Jheel Motihari...

mainaisikyunhoon: बापूधाम मोतिहारी की मोती झील Moti Jheel Motihari...:  मोतीहारी झील                 नीलम भागी  रात को जब मैं चरखा पार्क देखकर लौट रही थी तो ऑटो वाले ने अपना बायां हाथ घूमाकर बताया था कि वो ...

Thursday 27 December 2018

बापूधाम मोतिहारी की मोती झील Moti Jheel Motihari Bihar yatra बिहार यात्रा भाग 7 नीलम भागी

 मोतीहारी झील
                नीलम भागी
 रात को जब मैं चरखा पार्क देखकर लौट रही थी तो ऑटो वाले ने अपना बायां हाथ घूमाकर बताया था कि वो मोती झील है। मैंने उसके हाथ की दिशा में देखा तो मुझे झील तो नहीं दिखीं हाँ, अस्थाई दुकाने नज़र आई। उस समय मैंने सोच लिया था कि दिन के समय जब गांधी संग्राहलय देखने  आउंगी तो झील भी देख लूंगी। मोती झील के नाम पर ही इस शहर का नाम मोतीहारी पड़ा। इस तीन सौ दो एकड़ की झील में कहते हैं कि पहले मोती की खेती होती थी इसलिए झील का नाम मोती झील पड़ा। धीरे धीरे इसमें जलकुंभी फैलने से, खरपतवार, अतिक्रमण और गंदगी होने से ये झील अपनी नैसर्गिक सुन्दरता खोने लगी। मछलियों का उत्पादन भी बहुत घट गया। इसके किनारों पर गंदगी और मच्छरों का प्रकोप बढ़ गया। जो लोग झील की र्दुदशा के बारे में सोचते थे। उन्होंने लोगो से मिल कर इसके लिए लोक संवाद शुरू किया। अब सबको झील की चिंता सताने लगी। वे झील बचाओ आंदोलन से जुड़ने लगे। अब जल सत्याग्रह शुरू हो गया। तब नेता भी जागे। बिहार के पर्यटन मंत्री प्रमोद कुमार, कृषिमंत्री और भारतीय कृषि अनुसंधान के प्रयास से 15 अप्रैल 2017 से झील का पुर्नरूद्धार शुरू हो गया। वैज्ञानिको के दिशा निर्देशन में मानव श्रम, ट्रैक्टर और जेसीबी की मदद से 30 नवम्बर 2017 को सात महीने के अथक प्रयास से यह झील अपने असली रूप में आई। मछली पालन के लिए मतस्य बीज डाले गये और बत्तख पालन भी शुरू किया जाने लगा है। कतला, रोहू, जेंगा, टेगड़ा, मंगुर, सिंधी, नैनी, रेवा, पोटिका, शउरी, पटिया, बोआरी की प्रजातियों का पालन हो रहा है। 170 से 180 टन इनका उत्पादन है। वैज्ञानिकों का कहना है कि ये उत्पादन 1000 टन तक बढ़ सकता है। जिससे तेरह करोड़ अतिरिक्त आय हो सकती है। झील का नवजीवन अन्य प्रांतों के लिए उदाहरण है। इस मोतीहारी झील का ऐतिहासिक महत्व भी है। गांधी जी जब चंपारण सत्याग्रह के लिए यहाँ रूके थे तो उन्होंने मोतीहारी की शान, इस झील की प्रशंसा की थी। समय के साथ जो इसकी शान फीकी पड़ी थी उसे पुनः प्राप्त कर लिया गया है। अब भी जो हिस्सा झील का सड़क के साथ है। वहाँ अस्थाई मार्किट है। मैं इन दुकानों के पीछे गई। वहाँ लोगो ने मलमूत्र का विर्सजन किया हुआ था। झील की तस्वीरें लेने के लिए पैर बचा बचा कर रखना पड़ रहा था। बड़ी सावधानी से मैं कदम रख रही थी। ड्राइवर साहेब बोले,’’लाइए, फोटू हम लेते हैं, आप सिर्फ नज़रें नीची रखिए वर्ना आपके सेंडिल में पखाना लग जायेगा। फिर आप हमें नहीं कहिएगा कि हमने आपको सावधान नहीं किया।’’ अभी तक मैं सूखे पेशाब की गंध के कारण मुंह बंद कर, सांस रोक कर खड़ी थी। उसकी चेतावनी से मेरी हंसी छूट गई। फिर उसने बड़े दुख से कहा कि कुछ घरों ने तो अपने घर का पखाना भी झील में खोल दिया है। मैं भी उसकी बात से लोगों की ऐसी मानसिकता से दुखी हुई। सड़क की तरफ से तो झील दर्शनीय होनी चाहिए, जिससे जब पर्यटक वहाँ से गुजरे तो रूकने को मजबूर हो जाये।। बिहार पर्यटन मंत्री प्रमोद कुमार जी लाजवाब वक्ता हैं। मैंने उन्हें सुना है और उनके व्याख्यान से मैं बहुत प्रभावित हुई। झील के सौन्दर्यीकरण के लिये वे लगे हुए हैं। कुछ ऐसा प्रयास हो कि गंदगी फैलाने वाले लोग सुधरें।


Sunday 23 December 2018

सोमेश्वर नाथ मंदिर, तुरकौलिया, अहुना मटन, Bihar Yatra बिहार यात्रा भाग 6 नीलम भागी

सोमेश्वर नाथ मंदिर, तुरकौलिया, अहुना मटन,
                                       नीलम भागी
उत्तर बिहार का ऐतिहासिक अरेराजा का सोमेश्वर नाथ प्राचीन मंदिर है। यह तीर्थस्थल मोतिहारी से 28 किलोमीटर की दूरी पर गंडक नदी के पास स्थित है। यहाँ सावन के महीने में बहुत बड़ा मेला लगता है। नेपाल से भी बड़ी संख्या में श्रद्धालू यहाँ पूजा अर्चना करने आते हैं। हम जब गये तो त्यौहार के बिना भी दर्शनार्थियों की वहाँ भीड़ थी। सीढ़ियां उतर कर मैं ऐसी जगह खड़ी हो गई, जहाँ मैं किसी की पूजा में रूकावट नहीं बन रही थी। जमीन पर मुझे डॉक्टर ने बैठने को मना किया है। वहीं खड़े खड़े मैंने अपने कंठस्थ शिव स्तुति को मन ही मन दोहराया। मुझे वहाँ बहुत अच्छा लग रहा था। शायद लोगों की आस्था और श्रद्धा के कारण वहाँ अलग सा भाव था। भक्त एक सीढ़ियों से आते, जल्दी पूजा करते और दूसरी सीढ़ियों से वापिस निकलते जाते। इतने प्रसिद्ध मंदिर में बढ़िया सफाई की व्यवस्था न देख अच्छा नहीं लगा। जूता चप्पल रखने का भी कोई इंतजाम नहीं था।
 यहाँ से हम तुरकौलिया के ऐतिहासिक नीम के पेड़ को देखने गये। ये पेड़ किसानों पर हुए अत्याचारों का गवाह है। इस पेड़ से बांध कर उन किसानों पर कोड़े बरसाये जाते थे, जो नील की खेती करने को मना करते थे। इसके नीचे बैठ कर कर बापू ने निलहों से पीड़ित किसानों से उन पर हुए अत्याचारों की दास्तां को सुना था। बापू ने एक आयोग बना कर डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, रामनवमी प्रसाद बाबू  धरनीधर बाबू के द्वारा गरीब किसानो के बयान दर्ज करवाये। 29 नवम्बर 1917 को मि. मौड़ ने चंपारण एग्रेरियन बिल अंग्रेजी अदालत में पेश किया, जिसे अंग्रेजी हकूमत ने स्वीकृत कर लिया। यह बिल तीनकठिया प्रथा हटाने एवं बेसी टैक्स को कम करने से संबंधित थी। अब बापू तो पिता तुल्य हो गये थे।
हम जिस भी राह जाते, हमें इकड़ी जिसे कहीं कहीं पर भुआ भी कहते हैं दिखती है। हल्की हवा में उसके रेशे पानी की लहर की तरह लहराते बहुत अच्छे लगते। कहीं कहीं महिलायें उसके बंडल सिर पर रक्खे जाते देख, मैंने पूछा कि यह किस काम आती है? पता चला कि यह पैट्रोल से तेज जलती है। झोपड़ी की छत भी बनाने के काम आती है। सामने तुरकौलिया तालाब था। अभिषेक ने बताया कि इसकी मछलियाँ बहुत प्रसिद्ध हैं। मैं ड्राइवर के बराबर की सीट पर बैठी थी। मैंने देखा कि वहाँ हाइवे पर तो किनारे पर और साइड रोड पर तो सड़क पर ही बकरियाँ घूमती रहतीं थी बिना गडरिये के। एक ही रंग आकार की कई कई बकरियाँ देख, मैंने ड्राइवर साहेब से पूछा कि लोग अपनी अपनी बकरियों को कैसे पहचानते होंगे? उन्होंने मेरी ओर ऐसे देखा मानो मैंने बहुत ही बचकाना प्रश्न किया हो फिर जीनियस की अदा से बोले,’’ ये साली बहुत ही बदमास होती हैं, शाम होते ही अपने अपने घर चली जातीं हैं। घर वालों को नहीं ले जाने की परेशानी उठानी पड़ती।’’ रास्ते में हरी सब्जी की र्नसरी देखी जहाँ पर लगभग सब किस्म की हरी सब्जियों की पौध थी। इस इलाके से ठेकेदार बाल मजदूर ले जाते थे। अब कुछ संस्थाएं ऐसी हैं जो इस काम को रोक रहीं हैं ताकि बिना रजीस्ट्रेशन के कोई न जाये।
 चम्पारन का अहुना मटन बहुत प्रसिद्ध है। यह मिट्टीहांडी में कच्चे कोयले( लकड़ी के कोयला) पर धीमी आँच  पर पकाया जाता है। अब ये चम्पारन मीट दूर दूर तक प्रसिद्ध है। इसे बनाने की विधि नेपाल से आई है। पूर्वी चम्पारण के घोड़ाहसन में इसमें कुछ परिवर्तन किया गया। उन्होंने हण्डिया को सील करना शुरू किया। बिना औटाये यह 45 से 50 मिनट में पक जाता है। घोड़ाहसन के अहुना मीट बनाने वालों की पटना और मोतीहारी में काफी मांग है। इसमें तेल मसाले और मटन सब एक साथ हाण्डी में डाल कर उसे गूंधे आटे से सील कर दिया जाता है। बस बीच बीच में हाण्डी को बिना खोले हिला दिया जाता है। मिट्टी की हांडी के कारण ये काफी समय तक गरम रहता है। अंकुरित चाट के खोमचे कहीं भी दिख जाते और गन्ने के रस के ठेले इफरात में थे।   क्रमशः







Friday 21 December 2018

मैंने क्या जुल्म किया आप ख़फा़ हो बैठे Meine Kya Julm Kiya aap khafa ho baithe Neelam Bhagi नीलम भागी

                                                                                               
                                      नीलम भागी
हुआ यूं कि मेरे घर और मार्किट जहाँ हमारी दुकान है वहाँ सड़क के किनारे एक विद्यालय की बाउण्ड्री वॉल है। पुरूष समूह ने दीवार के थोड़े से हिस्से को मू़त्रालय में तब्दील कर दिया था। वहां हमेशा कोई न कोई मूत्र विसर्जन करता रहता था। बहुत चलती हुई सड़क है। जिससे महिलाओं को वहाँ से गुजरने में असुविधा होती थी। बाकि दीवार के साथ साथ अस्थायी दुकाने लग गई हैं। दीवार मूत्रालय के बारे में मैंने कई बार संवाद में लिखा था कि मूत्रगंध के कारण वहाँ से निकलना दुश्वार है। अब एक दिन मैं जब वहाँ से दोपहर को गुजर रही थी तो मूत्रगंध के बजाय कुछ तलने की खूशबू आ रही थी पर उधर  देखने की तो आदत ही नहीं थी इसलिये नहीं देखा। अब रोज  गुजरती तो खाने की महक से वह जगह महकती। कुछ दिन बाद पता चला कि वहाँ परांठे का ठेला, सुबह नौ बजे से तीन बजे तक लग गया है। अगले दिन मैंने देखा कि एक महिला परांठे बना रही है। मंदी आंच पर सिंके लाल परांठे, दो आदमी खा रहें हैं। साथ में बूंदी के रायते का गिलास था। ठेले के एक हिस्से में उनका छ या सात महीने का बच्चा गहरी नींद में सड़क के शोरगुल से बेखबर सो रहा था। उसका सेहतमंद पति स्टूल पर बैठा ग्राहक अटैण्ड कर रहा था। मैं उसी समय समझ गई कि इस महिला के परांठों का स्वाद, ग्राहकों को खींच कर लायेगा। इसका भी एक कारण था। दिल्ली नौएडा सड़क किनारे परांठे वालों को मैंने जब भी परांठे बनाते देखा है। वे तेज आंच पर काले चकत्ते वाले जल्दी जल्दी परांठे बना रहे होते हैं। उनका घी परांठे में कम धूंए में ज्यादा तब्दील होता है। ये महिला राजरानी आसपास की दुनिया से बेख़बर, बड़ी लगन से परांठा सेक रही होती हैं। कुछ दिन बाद उसके पति सेवाराम ने एक लड़का परांठे बेलने के लिए रख दिया। ग्राहक बड़ गये तो राजरानी ने दो तवे लगा लिए पर परांठा उसी प्रीत से सेकती। सेवाराम सेल पर और बेटे राजकुमार का ध्यान रखता। जब मैं उनके ठेले के आगे से निकलती, वे मुझे अभिवादन में ’’दीदी, रामराम जी ’’ कहना नहीं भूलते। अपने बड़े परिवार के सबसे छोटे बच्चे की वॉकर, प्रैम मैं राजकुमार के लिए ले आई। वह बैठा खाने वालों को और काम करते माँ बाप को देखता रहता और खुश होता रहता है। तीन बजते ही सेवाराम हाथ में चार सौ रूपये ताश के पत्तों की तरह पकड़ कर खुशी से कूदता हुआ, हमारी मार्किट में आता है। मैं सोचती कि ये कल के लिये सामान लेने आता है। राजरानी इतनी देर में वहाँ बरतन साफ कर लेती। सफाई कर लेती। क्योंकि उसके बाद उस जगह पर किसी साउथ इंडियन का डोसे का ठेला लगता है। सेवाराम के आते ही ये अपने घर चल पड़ते। एक दिन सेवाराम उसी स्टाइल में नोट पकड़े चला आ रहा था। मैंने दिनेश मकैनिक से पूछा कि ये नोट ऐसे पकड़ कर क्यों आता है? उसने जवाब दिया,’’दीदी, इसको तो पीने को थैली भी नसीब नहीं होती थी, अब परांठे मशहूर हो गये हैं तो ये अंग्रेजी पीता है। इससे अपनी खुशी नहीं संभलती। देखना, ये बोतल हाथ में लेकर सबसे बतियाता, दिखाता आयेगा।’’ हमारे बाजू की दुकान ही तो इंगलिश वाइन शॉप है। वहाँ पीने की मनाही है। वरांडे में हमने टैंपरेरी दीवार लगा रक्खी है। ताकि उस तरफ का कुछ न दिखे। जब मैंने ध्यान दिया, सेवाराम हाथ में बोतल पकड़े दुकान के आगे से गुजरा, मेरी आँखे उसका पीछा करती रहीं। वह बोतल दिखाता, रेड़ी ठेले वालों से दुआ सलाम करता, उनके पास रूक रूक कर जा रहा था। ये देखते ही मेरे दिमाग में कुछ प्रश्न खड़े हो गये हो गये, जिसका जवाब राजरानी ही दे सकती थी पर सेवाराम तो उसके सिर पर हमेशा सवार रहता है। अगले दिन जैसे ही दूर से नोट पकड़े सेवाराम आता दिखा। मैंने जगदीश से कहा,’’दुकान का ध्यान रखना, मैं अभी आई।’’ राजरानी के पास जाकर मैंने उसकी दिनचर्या पूछी, उसने बताया कि लौटते हुए वे कल के लिए सामान खरीद लेते हैं। घर पहुंच कर वह घर के काम निपटाती है। सेवाराम बच्चे को देखता है। मैं जल्दी रात का खाना बना लेती हूं। फिर मैं राजकुमार को संभाल लेती हूं। ये आराम से अपना पीना खाना कर लेते हैं। सुबह मैं जल्दी उठ कर आटा गूदंना, पराठों का मसाला तैयार करना, रायता बनाना करती हूं। तब तक इनका नशा टूट जाता है और ये उठ जाते हैं। इनके लिए चाय नाश्ता तैयार करती हूं। ये तैयार हो जाते हैं फिर मैं राजकुमार की तैयारी करती हूं। मैंने पूछा कि ये दारू क्यों पीता है? जवाब में वह बोली,’’दीदी, इनका दिमाग बहुत थक जाते हैं, पैसे गिनना, परांठे गिनना हिसाब रखना और इनको बहुत टैंशन है।’’मैंने पूछा,’’क्या टैंशन है?’’वो बोली,’’दीदी, फटाफट महीना बीत जाता है। कोठरी का किराया देना पड़ता है। मीटर चलता जाता है, बिजली का बिल बढ़ता जाता है। इनका दिल है राजकुमार को अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाने का, इसकी भी टैंशन।’’वो तो इतनी टैंशन बता रही थी कि मैं उस पर थिसिस लिख सकती थी। दिल तो किया कि इसे कहूं कि तूं भी तो दिन भर खटती है। तूं भी टैंशन की दवा पी लिया कर। पर उसी समय मुझे शौक़ बहराइची की लाइन याद आ गई ’र्बबाद गुलिस्तां करने को बस एक ही उल्लू काफ़ी था’ न जाने कब से सेवा राम पीछे खड़ा हमारी बातें सुन रहा था। उसे देखते ही मैं दुकान पर चल दी। अगले दिन से मैं ठेले के आगे से गुजरी, उन्होंने मुझे रामराम जी करना बंद कर दिया है। मैंने किया तो मुहं फेर लिया। मैं ऐसी क्यूं हूं?  जब पुरानी मार्केट मेंं हलवाई के लिए एलौट दुकान मेंं अंग्रेजी शराब की दुकान खुलेगी, तो यही सब देखने को तो मिलेगा न।   
  बहुमत मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ से एक साथ प्रकाशित समाचार पत्र में यह लेख प्रकाशित हुआ।


Tuesday 18 December 2018

गांधी स्मारक चंद्रहिया, केसरिया का बौध स्तूप, बाबा केशरनाथ महादेव मंदिर, लौरिया नन्दनगढ़,Bihar yatra बिहार यात्रा 5नीलम भागी


चंद्रहिया गांधी उद्यान विशाल भूखंड पर है जिसमें काम चल रहा था। तरह तरह के पेड़ लगे थे। निर्माण के साथ साथ पौधों को देखभाल की भी जरूरत है। वहाँ बकरी भी पौधे खा रही थी। माननीय मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार जी के पौधे से पत्ते गायब थे। वहाँ एक डण्डी थी। शायद उस पौधे के पत्ते बकरी खा गई होगी। लेकिन माननीय पूर्व उपमुख्यमंत्री श्री तेजस्वी प्रताप यादव जी का पौधा हरे हरे पत्तों के साथ था। जबकी दोनों पौधों के साथ र्बोड लगा हुआ है। बकरी तो जानवर है उसे क्या कह सकते हैं। हम अब बहुत सुन्दर रास्ते से केसरिया की ओर चल पड़े। जो मोतिहारी से 35 किलोमीटर दूर साहेब चकिया र्माग पर लाल छपरा चौक पर केसरिया में बौद्ध स्तूप स्थित है। 1998 में पुरातत्ववेता के अनुसार यह बौद्ध स्तूप दुनिया का सबसे ऊँचा स्तूप है। यह पटना से 120 किमी और वैशाली से 30 किमी दूर है। उनके अनुमान के द्वारा से मूल रूप से इसकी ऊँचाई 150 फीट थी। 1934 में आये भूकंप से 123 फीट है। भारतीय पुरातत्व के अनुसार यह विश्व का सबसे ऊँचा बौद्ध स्तूप है। जो 14000 फीट में फैला है।
जावा का बोरेबुदूर स्तूप 103 फीट है। जबकि  केसरिया 104 फीट है। दोनों ही स्तूप छह तल्ले वाला है। विश्व धरोवर में शामिल सांची के स्तूप की 77.50 फीट ऊँचाई है।  दुनियाभर के पर्यटक यहाँ आते हैं।भगवान बुद्ध जब महापरिनिर्वाण ग्रहण करने कुशीनगर जा रहे थे। तो वे एक दिन के लिए केसरिया ठहरे थे। जिस स्थान पर वे ठहरे थे। उसी स्थान पर कुछ समय बाद सम्राट अशोक ने इस स्तूप का निर्माण करवाया था।
  बाबा केशरनाथ महादेव मंदिर भी पूर्वी चंपारण में स्थित है। यह शिवलिंग 1969ई0 में नहर की खुदाई के दौरान मिला था। श्रावण मास के सोमवार और शुक्रवार को यहाँ मेला लगता है। नेपाल से भी बड़ी संख्या में लोग पूजा अर्चना करने यहाँ आते हैं।
लौरिया गाँव जो अरेराजा अनुमंडल में स्तंभ है। वह 36.5 फीट ऊँचा स्तंभ है। जो बलूआ पत्थर से बना है। कहते हैं 249 ईसा पूर्व सम्राट अशोक ने इसे बनवाया था। इस पर सम्राट अशोक ने अपने छह आदेश लिखवायें हैं। आधार का व्यास 41.8 इंच है और शिखर का 37.6 इंच, जमीन से वजन लगभग 34 टन है। और कुल वजन 40 टन है। इन सब स्थानों पर जाने के रास्ते हरियाली से भरे हुए हैं। सड़क के दोनो ओर छाया दार पेड हैं और अच्छी बन रही सड़कें हैं। जिससे इन स्थानों पर जाना बहुत अच्छा लग रहा था।़









Monday 17 December 2018

नर्सिंग रुम और चेंजिंग स्टेशन की खोज Nursing room aur Changing station ke khoj नीलम भागी

नर्सिंग रुम और चेंजिंग स्टेशन की खोज
नीलम भागी
    इतने बड़े मॉल में चुम्मू और गीता के सामान की खरीदारी के लिए हम घूम रहे थे। खूब भीड़ थी। इतने में चुम्मू ने पू कर दी। मैं उसकी नैपी बदलने के लिए चेंजिंग स्टेशन ढूँढ रहा था, जो कहीं नहीं मिल रहा था। लेडीज,़ जैंट्स टॉयलेट थे पर बच्चों के बारे में किसी ने सोचा ही नहीं। जब बच्चों का सामान बिकता है, तो उनकी  नैपी बदलने की जगह भी तो होनी चाहिए। पू की बदबू के कारण नैपी तो तुरंत बदलनी थी न। पी पी से नैपी गीली होती और र्दुगंध नहीं होती, इसलिए थोड़ा इंतजार भी कर लेता। पर अब तो मजबूरी थी। जिन पाठकों के बच्चे छोटे हैं, उनके सामने भी मेरी तरह, इस तरह की परेशानी आई होगी। मैं तो चुम्मू के बैग में उसका पैड भी लेकर गया था क्योंकि बच्चों का कोई भरोसा नहीं कब पू कर दें। तो मैं पैड पर लिटा कर उसकी नैपी ठीक तरह से बदल सकूँ। पर पैड कहाँ बिछा कर चुम्मू को लिटाऊँ और उसकी नैपी बदलूं? समस्या तो ये थी न! उसके लिए चेंजिंग स्टेशन तो होना ही चाहिए। अभी एक समस्या तो खत्म हुई नहीं, दुसरी शुरु, गीता को भूख लग गई। श्रीमती जी गीता को फीड कराने नर्सिंग रुम की खोज में चल दी।
     काफी खोजबीन के बाद पता चला कि लेडिज़ टॉयलेट में ही चेजिंग स्टेशन है। इस जानकारी के बाद मुझे बहुत गुस्सा आया कि जैंनट्स टॉयलेट में चेंजिंग स्टेशन क्यों नहीं है?  या जैसे लेडीज़ और जैंट्स टॉयलेट बनाये हैं, वैसे ही एक बच्चे के लिए चेंजिंग स्टेशन बनाना चाहिए। जिसमें मम्मी ,पापा कोई भी जाकर बच्चे की नैपी बदल दे। जब हम घर में बच्चे की नैपी बदलते हैं, तो बाहर क्यों नहीं बदल सकते? किसी ने बताया कि लेडिज़ टॉयलेट में चेंजिंग बोर्ड लगा हुआ है। चुम्मू को गोद में लेकर मैं लेडिज़ टॉयलेट में जाने लगा, तो महिलाएँ कोरस में दहाड़ी,’’ ये लेडिज़ टॉयलेट है। ये लेडिज टॉयलेट है।’’ मैंने उन्हें शान्ति से अपनी समस्या बताई। उन्होंने  मुझे चुम्मू की नैपी बदलने की परमीशन दे दी। मैंने र्बोड पर पैड बिछाया। उस पर चुम्मू को लिटाया और सधे हुए हाथों से उसे साफ करने का काम कर रहा था। तो, मुझे एक बात समझ नहीं आई। जितनी देर मैं चुम्मू को साफ करता रहा और उसकी नैपी बदलने का काम करता रहा , उस समय जो भी महिला आ रही थी या जा रही थी। उसे मुझे देखकर  हंसी बहुत आ रही थी। बताइए भला, इसमें हंसने की क्या बात है?

Sunday 16 December 2018

लाइन में लगना तो मेरी इगो के रिवर्स है Line mein lagna meri ego k reverse hai Neelam Bhagi नीलम भागी

 लाइन में लगना तो मेरी इगो के रिवर्स है Line mein lagna to meri ego k Reverse hai
                                                 नीलम भागी                आप अगर मेरे चेहरे को ध्यान से देखेंगे, तो उस पर ये फिल्मी डॉयलाग कहीं भी फिट नहीं होता कि ’हम जहाँ पर खड़े होते हैं, लाइन वहीं से शुरू होती है।़’ क्योंकि मुझे लगता है कि मैं एक बहुत समझदार महिला हूँ और मेरी सारी समझदारी इसमें लगी रहती है कि मैं कैसी तरकीब लगाऊँगी कि मेरा काम भी बन जाये और मुझे लाइन में भी न लगना पड़े। मसलन जैसे मैं किसी काम से गई, वहाँ लंबी छोटी जैसी भी लाइन हो सबसे पहले मैं लाइन में लगती हूँ जब मेरे पीछे लाइन में कोई लग जाता है तो मैं अपने आगे वाले से कहती हूँ कि ’एक्सक्यूज मी, आपके पीछे मेरा नंबर है, और पीछे वाले से कहती हूँ कि आपसे पहले मेरा नंबर है, मैं अभी आती हूँ। सुनते ही दोनों कोरस में बोलते हैं कोई बात नहीं। अब मैं चल देती हूँ, अपने आगे लगे लोगो का मुआइना करने और बेमतलब बोलने कि लाइन तो लम्बी है पर नंबर सब का आ जायेगा। आगे अगर कोई पहचान का दिख जाये तो उससे बातें करते, चलने लगती हूँ। खड़ी मैं ऐसे होती हूँ कि काउंटर पर काम करने वाला, काम से जब भी नज़र उठाये, उसे मैं दिखूँ। इसका एक फायदा है कि वो मुझे लाइन में लगा समझेगा। अब मैं खिड़की के पास खड़ी होकर दिशा निर्देश देने लगती हूँ।’लाइन सीधी रखिए, बीच में मत लगिये, सबका नम्बर आयेगा आदि आदि।’ और पता नहीं कब मेरा हाथ खिड़की में चला जाता है और मेरा काम हो जाता है। जब मैं अपनी इस कोशिश में कामयाब होती हूँ ,तो उस समय मेरे चेहरे पर जो चमक आती है, वो देखने लायक होती है मुझे ऐसा लगता है। ऐसा मैं इसलिये महसूस करती हूँ क्योंकि अपनी इस फतह से मेरे अंदर जितनी खुशी होती है, उसी अनुपात में Utkarshini उत्कर्षिनी के चेहरे पर क्रोध होता है, वह मुझे घूर रही होती है और सभ्य लोगों की तरह लाइन में लगी रहती है। लगी रहे मेरी बला से।
  आज मेरा हृदय परिवर्तन हो गया है। हुआ यूं कि हांग कांग में बिग बुद्धा के दर्शन के लिये केबल कार में जाने के लिये 3 घण्टे लाइन में लगी। दुनिया भर से सैलानी आये थे। हर उम्र के लोग चुपचाप लाइन में लगे थे। गीता को हमने प्रैम में बिठा रक्खा था। जब बूढ़े भी खूबसूरत स्टिक के सहारे खड़े देखे, तो मैं भी खड़ी रही। लौटते समय ढाई घण्टे में नंबर आ रहा था रात हो गई थी केबल कार खाली आ रही थी शायद इसलिये। कोई भी लाइन से निकलता कॉफी पी आता और आकर अपनी जगह लग जाता। ठण्ड से हॉल में डोरियाँ बंध गई सब उसमें चल रहे थे दूर से देखने में भीड़ थी पर थी, अनुशाषित लाइन। कहते हैं कि आदत तो चिता के साथ ही जाती है पर मेरी ये आदत पहले ही चली गई। पता नहीं परदेश के कारण या आने जाने के कुल साढ़े पाँच घण्टे लाइन में लगने से और जहाँ भी गई लाइन में लगी। यहाँ तक कि टैक्सी स्टैण्ड में भी टैक्सी के लिए भी लाइन में लगी। वहाँ कोई भी लाइन तोड़ने की गलती नहीं करता। वहाँ मैं अपनी बुरी आदत को अब छोड़ आई हूँ।     

Monday 10 December 2018

गरीब आदमी के लिए लड़ाई Garib Aadmi K Liye Ladai नीलम भागी

 गरीब आदमी के लिए लड़ाई Garib aadmi k liye ladai
नीलम भागी

अपना स्टॉप आने से पहले मैं बस की सीट छोड़ कर उतरने के लिए खड़ी हो गई। मेरे आगे सिर्फ एक सवारी थी। बस रुकते ही आगे वाला आदमी बस के गेट से एक सीढ़ी ही उतरा, शायद इरादा बदलने से वैसे ही बैक गियर लगा, कर बस में चढ़ा। उसके जूते की एड़ी से मेरे पैर का अंगूठा दब गया। उस सवारी ने पीछे मुड़ कर देखा, सॉरी बोला, मुझे रास्ता दिया। भयानक र्दद सहती, मैं बस से उतरी। बस स्टैण्ड की सीट पर बैठ कर पैर का मुआयना किया। उस पर से सवारी के जूते की लगी गन्दगी को रुमाल से साफ किया। र्दद ज्यादा था, लेकिन ज़ख्म मामूली सा था, जो ध्यान से देखने पर ही दिखाई देता था। शाम तक वह भी दिखना बंद हो गया। अब अंगूठा दबाने पर ही र्दद होता था। कुछ दिन बाद नाखून के नीचे पस पड़ गई। डॉक्टर को दिखाया, उसने दवा दी मैंने खाई। दवा का कोर्स ख़त्म और अंगूठा भी ठीक हो गया। अब कुछ दिन बाद फिर से अंगूठे में र्दद शुरु हो गया। मैं फिर से डॉक्टर के पास गई। उसने फिर दवा का कोर्स लिखा। मैंने खाया, अंगूठा ठीक हो गया। कुछ दिनों बाद फिर अंगूठा पक गया। अब मैंने दूसरे डॉक्टर को दिखाया उसने भी दवा दी, मैंने खायी फिर अंगूठा ठीक हो गया। दवा बंद करने के कुछ दिन बाद अंगूठा फिर पक गया। यह सिलसिला तीन महीने तक चला। अब मैंने डॉक्टर बदलना बंद कर दिया। दवा खा-खाकर, र्दद से मैं तंग आ गई थी। डॉक्टर ने मुझे कहा,’’ नाखून निकलवाना होगा। कब की डेट दूँ?’’मैंने जवाब दिया,’’कल।’’
 
   अगले दिन ऑपरेशन हो गया। छुट्टी मिलते ही, अंजना को बाहर कोई भी ऑटो, टैक्सी नहीं मिली। वह मैनुअल रिक्शा ले आई। रिक्शा पर बैठने से पहले, मैंने रिक्शावाले को ध्यान से और धीरे रिक्शा चलाने की नसीहत दी। उसने भी गर्दन हिला कर हामी भरी कि वह मेरी नसीहत का पालन करेगा। अब मैं रिक्शा पर बैठ गई। मेरा ध्यान पैर पर था। कुछ दूरी पर दो लड़के, खड़ी बाइक के पास बतिया रहे थे। खड़ी बाइक से हमारी रिक्शा टकराई। बाइक वाला चिल्लाया, ’’देख कर नहीं चला सकता, खड़ी बाइक पर टक्कर मार दी।’’मैं उससे भी जोर से अपने पैर पर बँधी पट्टी दिखा कर, उस पर चिल्लाई कि तुमने घर से बाहर बाइक क्यों खड़ी की? वे चुप हो गये। रिक्शावाला चुप रहा। वह तो गलती कर ही नहीं सकता था क्योंकि उसको तो मैं नसीहत दे ही चुकी थी।
   घर के रास्ते में जितनी भी लाल बत्ती आई। प्रत्येक लाल बत्ती पर, लाल बत्ती होने पर, हमारा रिक्शा जे़ब्रा क्रॉसिंग से आगे ही होता। जैसे ही रिक्शा रुकती, दूसरी ओर की गाड़ियाँ रिक्शा को लगभग छूती हुई निकलती और मैं 3 महीने और उस दिन के भोगे हुए कष्ट के कारण, गाड़ी वालों को कोसती जा रही थी। जब तक रिक्शावाला उतर कर रिक्शा पीछे करता, उसके पीछे वाहनों की लाइन लगी होती। अब हरी बत्ती का इन्तजार, ऊपर वाले का जाप करते हुए और अपने पैर को देखते हुए गुजारती। लेकिन दिमाग में डॉ. की कही बात घूमती कि नया नाखून आने में एक महीना लगेगा। उस समय दिमाग में एक ही प्रश्न उठ खड़ा होता कि अगर किसी वाहन से टकराकर रिक्शा पलट गई तो मेरे पैर का क्या होगा?
    अपने ब्लॉक में रिक्शा पहुँचा, मुझे सकून आया। मेरे घर का न0 24 है। अपने गेट से पहले ही, मैं चिल्लायी,’’रोको  भइया, रोको।’’रिक्शा रुका, मगर न0 30 पर। रिक्शावाला कूद कर उतरा, पैदल खींचते हुए रिक्शा मेरे गेट के अन्दर लाया। मैंने पूछा,’’तुम्हें यहाँ रोकने को कहा, तुम रिक्शा वहाँ क्यों ले गये?’’ उसने जवाब दिया,’’इसमें हमारा कौनों कसूर नाहिं, रिस्का का बिरेक फैल है।’’ मैंने पूछा कि तुम ब्रेक ठीक क्यों नहीं करवाते। उसने शांति से जवाब दिया,’’जब सवारी ढोने से र्फुसत मिलेगी, जभी तो ठीक करवाऊँगा न।’’वो तो पैसे लेकर ये जा वो जा। और मैं उस गरीब आदमी के लिये सबसे लड़ती आई। 

Tuesday 4 December 2018

चंद्रहिया, चंपारण सत्याग्रह, यहाँ गांधी जी सबके प्रिय बापू कहलाये Bihar Yatra बिहार यात्रा भाग 4 नीलम भागी


धुंध के कारण रास्ते की तस्वीरें साफ नहीं आ रहीं थीं। यह देख कर और उन दिनों दिल्ली और नोएडा में हवा में पॉल्यूशन का स्तर बहुत बढ़ने से दोपहर तक फॉग रहता था। यहाँ धुंध देख कर और अभी तो सर्दी दस्तक ही दे रही थी। मैंने ड्राइवर साहेब से सुबह के सवा नौ बजे पूछा कि यहाँ भी धुंध रहती है! ड्राहवर साहेब बोले,’’ऐसे ही कोहरा है, कुछ ही देर में फ्रेश हो जायेंगे।’’ अच्छी बनी सड़क पर जिसके दोनो ओर दूर तक हरियाली ही दिख रही थी। साइड रोड पर अंदर चंद्रहिया गाँव में चंद्रिहया गाँधी स्मारक है। अभी 15 अप्रैल 1917 को जब बापू मोतिहारी पहुँचे तो उसी रात को उन्हें पता चला कि गाँव जसौली पटटी में किसानों पर बहुत अत्याचार किया जा रहा है। जिसका कारण नील की खेती था। बेतिया राज पतन पर था। अंग्रेजों ने उनसे पट्टे पर जमीन लेकर नील की खेती करवानी शुरू कर दी। मजदूरों को न के बराबर मजदूरी देते थे। एक बीघे में तीन कट्टे नील की खेती करना जरूरी था यानि तिनकटिया मतलब पंद्रहा प्रतिशत भूमि। अपनी जमीन पर अपनी मरजी से फसल भी नहीं पैदा कर सकते थे। बाबू लोमराज सिंह जसौला पट्टी के जमींदार थे। जगीरहां कोठी के जमादार थे। किसानों पर नीलहों के अत्याचार के कारण उन्होंने निल्हों की नौकरी को लात मार दी। अपने अदम्य साहस और जुझारूपन के गुणों कारण उन्होंने वहाँ किसानों को निल्हों के खिलाफ इक्ट्ठा करना शुरू किया। तिरकोलिया और पिपराकोठी में भी पीड़ितों को जोड़ा। ये काम आसान नहीं था। कोटक गांव के मिठुआवर के पास एक बड़ी सभा करने में वे कामयाब रहे। वे लगभग सात सौ किसानों के हस्ताक्षर  इस विरोध के लिए ले चुके थे। जसौली पट्टी में सत्याग्रह का बीजारोपण हो चुका था। इस काम को मुकाम तक पहुँचाना, उनके लिये आसान नहीं था। अंग्रेज साहब मि0 एमन के दमन के शिकार पं0राजकुमार शुक्ल ने भी विरोध का झंडा उठा लिया तो उसमें बाबू लोमराज की सिंह की शक्ति भी जुड़ गई। वकील बाबू गोरख प्रसाद की सलाह भी इसमें शामिल हो गई। गोरखप्रसाद जी ने इन्हें और इनके साथियों को बापू के द्वारा दक्षिण अफ्रीका में उनके द्वारा किए गये कार्यों को बताया और कहा कि अगर बापू आ जाये तो इस दमन, शोषण के विरूद्ध हमने जो शुरूवात की है। उसमें हमारी सफलता  निश्चित है। राजकुमार शुक्ला ऐसे समय बापू को लेकर आये। नामी वकीलों के साथ और गोरख प्रसाद जी, बाबू रामनवमी प्रसाद, धरनी बाबू के साथ वे हाथी पर बैठ कर जसौला पट्टी की ओर चल पड़े। चंद्रहिया पर यहाँ उन्हें अंग्रेज दरोगा ने गांधी जी को चंपारण  कलेक्टर डब्लू बी हेकॉक का नोटिस दिया। जिसमें कहा गया कि वो चंपारण छोड़ दें। गांधी जी ने कहा कि मैं सत्य को जाने बिना यहाँ से नहीं जाउँगा। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें वापिस मोतिहारी लाया गया। अगले दिन उन्हें अदालत में पेश किया गया। बाबू लोमराज सिंह की लोकप्रियता और जनशक्ति  इस कदर थी कि उनके साथ 10 हजार लोगों  की भीड़  थाने जेल और कचहरी के सामने जमा हो गई। सरकार ने बापू को छोड़ने का आदेश दिया। बापू ने कानून के अनुसार अपने लिये सजा की माँग की। गांधी जी ने इसके खिलाफ एसडी एम की अदालत में कानूनी लड़ाई, सत्य के आधार पर लड़ी। एक साल यह सत्याग्रह चला। किसानों के हक में डॉ0 अनुग्रह नारायण सिन्हा, बाबू राजेन्द्र प्रसाद, रामनवमी प्रसाद, आचार्य जे. बी. कृपलानी, महादेव देसाई, नरहरि पारीख सत्याग्रह के साथ वहाँ के लोगो में आत्मविश्वास जगाते, उनको साफ सफाई का महत्व समझाते हुए, उनको शिक्षित करने के लिये योजनायें बनाने लगे। संत राउत ने यहाँ गांधी जी को बापू कहा। वे यहाँ सबके बापू हो गये। क्रमशः