मैं उठने की कोशिश कर रही थी, पर उठा ही नहीं जा रहा था। आस पास कोई दिख नहीं रहा था। देखा कुछ दूरी पर खड़ा एक मुस्लिम परिवार मेरी ओर देख रहा था। उनमें से एक आदमी मेरी ओर दौड़ता आ रहा था। उसने मुझे उठाने में मदद की और बोला,’’थोड़ा चलिए, अगर न चला जाए तो जबरदस्ती नहीं चलना।’’सहनीय र्दद था, मैं चल ली। तेजी से जाते हुए वह बोल गया,’’शुक्र है हड्डी नहीं टूटी।’’भार उठाना न पड़े इसलिए मैंने ज्यादा ही गर्म कपड़े पहन रखे थे। शायद इसलिए हड्डी टूटने से बच गई। गाड़ी भी कुछ ज्यादा समय के लिए रूकी, अक्षय जी भी आ गए। हम प्लेटर्फाम की ओर चल दिए। तीनों वेटिंगरूम भरे हुए थे। बैंचों पर भी हमारे ही लोग थे। एक बैंच पर विनोद बब्बर जी और संजीव सिन्हा बैठे थे। हम भी बैठ गए। एक गाड़ी कुछ साहित्यकारों को लेकर गई हुई थी। बस अड्डा, एयरपोर्ट और रेलवेस्टेशन पर आयोजकों ने व्यवस्थापकों को खड़ा कर रखा था। यहां प्रवीण सर देख रहे थे। उन्होंने कहाकि इस समय ज्यादा प्रतिनिधि हैं। बस पहुंचने वाली है। जब तक सब रिसेप्शन पर पहुंचे बस आ गई।
पहले उन्होंने हमारा सामान रखा। फिर हम बैठे। बस के चलते ही अन्दर भजन शुरू हो गए। समवेत स्वर गाए भजनों को सुनना बहुत अच्छा लग रहा था और बाहर हरदोई धीरे धीरे जाग रहा था। जैसे ही उजाला होने लगा, हमारी बस पक्की सड़क पर चल रही थी। जिसके दोनों ओर पीले सरसों के फूलों से भरे खेत थे। हरा और पीला रंग ही नज़र आ रहा था। कभी आम के बाग आ जाते हैं। बस के दरवाजे़ खिड़कियां बंद होने पर भी अंदर ताज़गी थी। अल्लीपुर हरदोई से 16 कि.मी. दूर था। मेरी तो आंखें बाहर से नहीं हट रहीं थीं। परिसर से 4 कि.मी. पहले से ही स्वागत द्वार बनाया हुआ था। बस #डॉ. राम मनोहर लोहिया महाविद्यालय अल्लीपुर हरदोई उत्तर प्रदेश पर रूकी। विशाल सुन्दर महाविद्यालय का भवन, जिसके चारों ओर हरियाली!! यानि ऑक्सीजन चैम्बर में महाविद्यालय। परिसर में प्रवेश करते ही मैं हैरान रह गई! प्रांगण जिसमें भारत का आदर्श गांव बनाया हुआ था। उसमें देश भर से भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों के आने से अब वह प्राचीन आदर्श गांव भारत की छवि लग रहा था। मैं अभी खड़ी सोच ही रही थी कि इसे तैयार करने में दो महीने तो लगे ही होंगे। किसी ने मेरे हाथ से लगेज़ लिया और कहा कि पहले आप चाय या कॉफी पीजिये। कुल्हड़ और डिस्पोज़ेबिल दोनों थे। कुल्हड़ से चाय का पहला घूंट भरते ही अपनी पाली हुई गाय गंगा यमुना के दूध की चाय का स्वाद आया। चाय पीने के बाद मैं अलाव के पास बैठ गई।
उससे दर्द को बहुत आराम मिल रहा था। 11 बजे से उदघाटन सत्र था। आठ बजे से नाश्ता लगना था। फीकी मीठी चाय, कॉफी और कुछ खाने को हर समय रहता था। पैकेट बंद नहीं था। सब कुछ वहीं ताज़ा तैयार होता था। भुना चना और गुड़ कभी नहीं हटा। 24 दिसम्बर को जो प्रतिनिधि आए थे। पर्ण कुटी सब उनसे भर गईं थीं। उसमें चारपाई के साथ लाल टेन भी थी। अब मैं बताए कमरे की ओर चल दी। वहां तक पहुंची भी नहीं कि एक हॉल में झांका। प्रो. नीलम राठी ने देखते ही कहा,’’आप उस बीच वाले बैड पर आ जाओ, आपको ठंड भी नहीं लगेगी। सफेद कवर की रजाई और फर्श पर कालीन बिछा था। 12वीं महिला उसमें मैं थी। अब यहां और जगह नहीं थी। सब तैयार भी हो रहीं थीं और बतिया भी रहीं थीं। मैं नाश्ते के लिए आई। तला, भुना, उबला, अंकुरित सब तरह का खाने को था और साथ में धूप का आनन्द। फीकी चाय के साथ मुझे गुड़ खाना बहुत अच्छा लग रहा था। क्रमशः
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