जन मानस से जुड़ी लीला तो घरो में दिवाली के अगले दिन मनाया जाने वाला गोवर्धन पूजा का उत्सव है, जिसे दुनिया के किसी भी देश में रहने वाला कृष्ण प्रेमी मनाता है। यह उत्सव पर्यावरण और समतावाद का संदेश भी देता है। मेरी में सोच में, कन्हैया बड़े हो रहें हैं। अब वे बात बात पर प्रश्न और तर्क करते हैं। पूजा की तैयारी और पकवान बन रहे थे। बाल कृष्ण नंद से प्रश्न पूछने लगे,’’किसकी पूजा, क्यों पूजा?’’ नंद ने कहा,’’ये पूजा इंद्र को प्रसन्न करने के लिए की जाती है। वह वर्षा करता है।’’ कन्हैया ने सुन कर जवाब दिया कि हरे भरे गोवर्धन की पूजा करनी चाहिए। उस पर गौए चरती हैं। जब बहुत वर्षा होती है। तो हम सब अपना गोधन लेकर, गोवर्धन की कंदराओं में शरण लेते हैं। इसकी पेड़ों की जड़े वर्षा का पानी सोख कर उसे हरा भरा रखती हैं। बादलों को रोकता है। अपनी कंदराओं में जल संचित कर, झरनों के रूप में देता है। इस बार पूजा गोवर्धन की करनी चाहिए। सबको कन्हैया की बात ठीक लगी। प्रक्ति ने ग्रामीणों को जो दिया था, सब लाए। बाजरा की भी उन्हीं दिनों फसल आई थी, उसकी भी खिचड़ी बनी। दूध दहीं मक्खन मिश्री से बने पकवान, जिसके पास जो भी था, वह उसे लेकर गोवर्धन पूजा के सामूहिक भोज में अपना योगदान देने पहुंचा। गोधन, गिरिराज जी की पूजा की। प्रकृति की गोद में सबने मिलकर भोजन प्रशाद खाया और कन्हैया ने बंसी बजाई। हर्षोल्लास से इस तरह मिल जुल कर खाना, बजाना के साथ, अन्नकूट का उत्सव संपन्न हुआ।
यम द्वितीया भाई बहन का त्यौहार भइया दूज कहलाता है। भाई बहन के घर जाता है। बहन भाई का खूब आदर सत्कार करती है। भोजन कराती है। भाई बहन को उपहार देता है। ब्रजभूमि में बहन भाई यमुना जी में नहा कर मनाते हैं। देश विदेश में काम के सिलसिले में परिवार से दूर रहने वाले, घर के सदस्यों को अन्नकूट के 56 भोग और भैया दूज का उत्सव बुलाता है और परिवारों में समरसता पैदा करता है।
उत्सव ऐसा आयोजन है जो आमतौर पर एक समुदाय द्वारा मनाया जाता है और उसके धर्म या संस्कृतियों के कुछ विशिष्ट पहलू पर केन्द्रित होता है।
मैं छठ से पहले दस दिन बिहार यात्रा पर थी। जिस भी कैब में बैठती ड्राइवर छठ के गीत लगाता, उन गीतों को सुनते ही अलग सा भाव पैदा हो जाता था। चार दिवसीय छठ पर्व मनाया जाता है और यहां इसकी जगह जगह तैयारी दिख रही थी। ये देख कर मुझे पक्का यकीन हो गया कि बिहारी से बिहार दूर हो सकता है पर जहां भी रहता है, वहां छठ से दूर नहीं रह सकता। वे मिल जुल कर घाट बना लेते हैं। सादगी, पवित्रता, लोकजीवन की मिठास के पर्व ’छठ’ में वहां के लोग भी बड़ी श्रद्धा से शामिल होते हैं। मैं भी जो घाट मेरे घर के पास होता है, वहां डूबते सूरज और उगते सूरज की आराधना करने पहंुंच जाती हूं।
उत्सव परिवारों को जोड़ता है। छठ और गोर्वधन पूजा सब परिवार एक साथ मनाता है।
मेरी दादी बेस्वाद आंवला खिलाते समय पंजाबी में कहती,’’स्याने दा केया, ते औले दा खादा बाद च पता चलदा’ मतलब विद्वान का कथन और आंवले का स्वाद या लाभ बाद में पता चलता है। हम आंवला चबा कर ऊपर से पानी पीते तो वह मीठा लगता और दादी ठीक लगती। बिमारियों से बचाने वाले आंवला लाभ के लिए खाने लगते। तभी तो आंवला नवमीं के दिन सपरिवार आंवला के पेड़ की पूजा की जाती है जिसमें पेड़ की 108 परिक्रमा की जाती हैं। महानगरों के फ्लैट्स में पेड़ न होने पर भी बाजार से आंवला लगी टहनी खरीद कर पूजा की जाती है। उत्सव यानि पर्व या त्यौहार का हमारी संस्कृति में विशेष स्थान है। साल भर कोई न कोई उत्सव चलता ही रहता है। हर ऋतु में हर महीने में कम से कम एक प्रमुख त्यौहार अवश्य मनाया जाता है। अक्टूबर से जनवरी वह समय होता है जब पूरे देश को उत्सवमय देखा जा सकता है। रेल विभाग को अतिरिक्त गाड़ियां चलानी पड़ती हैं। हवाई टिकट मंहगी होती है। कुछ उत्सव किसी अंचल में मनाए जाते हैं। कुछ देश भर में, भले ही नाम अलग अलग हों। जैसे दक्षिण भारत में भी कार्तिक मास के पावन अवसर पर काकड़ आरती का प्रारंभ परम्परानुसार शरदपूर्णिमा के दूसरे दिन से होता हैं। देवउठनी एकादशी के अवसर पर काकड़ आरती को भव्य स्वरूप दिया जाता है। तुलसी सालिगराम का विवाह उत्सव मनाया जाता है। वारकरी सम्प्रदाय के बुजुर्ग बताते हैं कि संत हिरामन वाताजी महाराज ने 365 वर्ष पहले काकड़ आरती की शुरुआत की थी। आरती में शामिल होने के लिए श्रद्धालु प्रातः 5 बजे विटठल मंदिर में आते हैं और भजन मंडलियां पकवाद, झांज, मंजीरों एवं झंडियों के साथ नगर भ्रमण करती है। जगह जगह चाय, कॉफी, दूध एव ंनाश्ते की व्यवस्था श्रद्धालुओं द्वारा रहती है। प्रत्येक मंदिर में सामुहिक काकड़ा जलाकर काकड़ आरती प्रातः 7 बजे तक प्रशाद वितरण के साथ सम्पन्न होती है। उत्तर भारत में प्रभात फेरी निकाली जाती है।
कार्तिक पूर्णिमा को त्रिपुरारी पूणर््िामा भी कहते हैं। त्रिपुरास राक्षस पर शिव की विजय का उत्सव है। इसे देव दीपावली के रूप में मनाते हैं।
गुरू नानक जयंती और जैनों के धार्मिक दिवस है। तीर्थस्थान पर स्नान करते हैं। धर्म और लोककथाओं के बाद उत्सव की एक महत्वपूर्ण उत्पत्ति कृषि है। धार्मिक स्मरणोत्सव और अच्छी फसल के लिए धन्यवाद दिया जाता है। रवि की फसल की बुआई सितम्बर से नवम्बर तक हो जाती है। बड़ी श्रद्धा और उत्साह से उत्सव मनाते हैं। इन सभी उत्सवों में प्रकृति वनस्पति और जल है।
विद्वानों का मानना है जो जनजातियां नाचती गाती नहीं-उनकी संस्कृति मर जाती है।
नृत्य, गायन उत्सवों की शुरूआत भारत के मंदिरों में हुई थी। लेकिन अब देश विदेश से इन उत्सवों को देखने पर्यटक आते हैं।
दिसबंर में आयोजित उत्सव सनबर्न फेस्टिवल (गोवा) संगीत नृत्य
संगीत प्रेमियों के लिए, माउंट आबू विंटर फैस्टिवल (राजस्थान) लोकनृत्य, संगीत घूमर, गैर और धाप, डांडिया, शामें कव्वाली,
रण उत्सव(गुजरात) रेगिस्तान में सांस्कृतिक कार्यक्रम गरबा लोक संस्कृति आदि।
श्री क्षेत्र उत्सव पुरी की परंपराओं को जीवित करती रेत की कला,
ममल्लपुरम डांस फेस्टिवल(चेन्नई) खुले आकाश के नीचे, नृत्य संगीत, शास्त्रीय और लोक नृत्य,
हॉर्नबिल उत्सव(नागालैंड) ये पक्षी के नाम पर है जिसके पंख सिर पर लगाते हैं। धार्मिक अनुष्ठान किए जाते हैं। बहादुर नायकों की प्रशंसा के गीत गाए जाते हैं।
दादी हमेशा किसी भी उत्सव की पूजा करते समय परिवार को बिठा कर उसकी बड़ी रोचक कथा सुनाती थी। गणेश चतुर्थी जिसे वह सकट बोलती थी। उसमें गणेश जी की चार कथाएं एक साथ सुनाती और हर कथा के बाद एक तिल का लड्डू देती। कड़ाके की ठंड में हम चारों लड्डू खा जाते। अब अम्मा 92 साल की दादी की तरह कथा सुनातीं हैं। हमेशा हमें 31 दिसम्बर को कहतीं हैं कि हमारा नया साल तो चैत्र प्रतिप्रदा को होता हैं, तब सबको नए साल की बधाई देना। अब अम्मा की बात तो माननी है न। यही मौसम के अनुसार हमारे उत्सवों की मिठास और परम्परा है।
केशव संवाद के दिसंबर अंक में प्रकाशित हुआ
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