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Monday, 2 September 2024

उत्सव की हरियाली, अपनों के संग! नीलम भागी

  

मवेशियों का उपकार मानना, हमारी भारतीय संस्कृति में अलग अलग रूपों में दिखाई देता है। मसलन पोला महोत्सव(2सितम्बर) महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, कर्नाटक के किसानों द्वारा मनाया जाता है। इस त्यौहार की तैयारी में बैलों को नहलाकर, उनकी तेल से मालिश करना, सींगों को रंग कर, नई लगाम और रस्सियाँ बदली जाती हैं। उन्हें शॉल, घंटियों और फूलों से सजाया जाता है। संगीत और नृत्य के साथ जुलूस के रूप में सब मवेशी गाँव के मैदान में ले जाये जाते हैं। सबसे पहले मैदान से बाहर जाने वाला एक बूढ़ा बैल होता है, उसके सींगों पर लकड़ी का फ्रेम(माखर) बंधा होता है। दो खंबों के बीच आम के पत्तों की रस्सी का बंधा तोरण होता है। वह माखर से इस तोरण को तोड़ता है। उसके पीछे सब मवेशी चलते हैं। कुछ की टांगों में घुंघरू भी बंधे होते हैं। जब जुलूस से मवेशी वापस आते हैं। तो परिवार उनकी पूजा की तैयार थाली, जिसमें घी का दिया, कुमकुम, पानी और मिठाई, पूरनपोली के साथ स्वागत करता है। गऊ माता को भी पूजता है। पोला के दिन किसान अपने बैलों से खेतों में काम नहीं करवाते। उन्हें बाजरे की खिचड़ी खिलाते हैं। किसान परिवार के साथ खेतों में मवेशियों ने भी बुआई, सिंचाई में मेहनत की है। किसान धूमधाम से ’बैल पोला’ उत्सव मना कर उनका धन्यवाद करते हैं। 
उत्तर भारत में महिलाओं का उत्सव हरतालिका तीज और दक्षिण भारत में इस व्रत को’’गौरी हब्बा’’(6 सितम्बर) के नाम से जाना जाता है। इस त्यौहार में प्रकृति ने हरियाली की चादर ओढ़ी होती है। इस दिन को भोलेनाथ और माता पार्वती के पुनर्मिलन का दिन माना जाता है। हरे भरे पेड़ो पर झूले पड़ जाते हैं। कहीं कहीं यह उत्सव तीन दिन तक मनाया जाता है। पहले दिन मायके से सिंधारा में घेवर मिठाई, मेहंदी, चूड़ियां आदि सुहाग की चीजे आतीं हैं। दूसरे दिन मेहंदी हाथ पैरों में लगाई जाती है। अगले दिन सौभाग्यवती महिलाएं निर्जला व्रत कर, पकवान बनाती हैं और हरी पोशाक पहने, श्रृंगार करके पति की लंबी आयु के लिए शिव पार्वती की पूजा कर, सास को बायना देती हैं। नई बहू को पहली तीज में मैके भेज दिया जाता है। तीज पर ससुराल से बहू के लिए सिंधारा जाता है। हमारे लोकगीतों में भी हरियाली, झूले, रिमझिम वर्षा की फुहारों में झूलती गाती सखियां होती हैं। पहले छोटी आयु में बेटियों की शादी हो जाती थी। पहला तीज उत्सव वह पुरानी सखियों के साथ मना जातीं है। हिंदू धर्म की बहुत बड़ी विशेषता है कि वह सबको धारण ही नहीं करता है, सबके योग्य नियमों की लचीली व्यवस्था भी करता है। महानगरों की कामकाजी महिलाएं छुट्टी न होने से परिवार में नहीं जा पातीं, इसलिए जहां तीज महोत्सव का आयोजन किया जाता है, वहां पहुंच कर सखियों से मिल कर नाच गा भी लेती हैं।




   गौरी हब्बा गणेश चतुर्थी से एक दिन पूर्व मनाया जाता है। यह माना जाता है कि इस दिन गौरां, इस तरह घर में आती है, जिस तरह कोई साधारण स्त्री अपने माता पिता के घर आती है। अगले दिन उनके पुत्र गणपति ऐसे आते हैं जैसे अपनी मां पार्वती को कैलाश पर्वत ले जाने आए हों। 

लेह लद्दाख महोत्सव(1से 7 सितम्बर) का मुख्य उद्देश्य लदृदाख की समृद्ध संास्कृतिक, विरासत और परंपरा को पुर्नजीवित कर देश दुनिया के सामने लाना है। सात दिवसीय यह उत्सव जम्मू-कश्मीर पर्यटन, स्थानीय समुदायों जिला प्रशासन के सहयोग से आयोजित किया जाता है। लेह के विभिन्न क्षेत्रों से मंडलियां, स्थानीय नेता, स्कूली बच्चे और नर्तक पारंपरिक पोशाक में शामिल होते है। सब धुनों पर नृत्य करते चलते हैं। इस त्यौहार के मुख्य आर्कषण हैं संगीत, रंगमंच, पोलो, तीरंदाजी, मुखौटा और स्थानीय कला और शिल्प आदि। लोक नृत्य और अंतरराष्ट्रीय व्यंजनों के साथ लद्दाखी भोजन, स्थानीय व्यंजन मसलन सेल रोटी, खंबीर, मामोज, खंपा का देश दुनिया के लोग आनन्द उठाते हैं।

      दक्षिण भारत में ओणम केरल का प्राचीन पारंपरिक, धार्मिक, सांस्कृतिक उत्सव हैं, जिसे दुनियाभर में मलयाली समाज मनाता है। 5 सितम्बर से शुरु होकर 17 सितम्बर को इसका समापन होगा। केरल में चार दिन की छुट्टी होती हैं। ऐसी मान्यता है कि इस दिन प्रत्येक वर्ष राजा महाबलि पाताल लोक से धरती पर अपनी प्रजा को आर्शीवाद देने आते हैं और नई फसल आने की खुशी भी होती है। ओणम उत्सव अपनी सांस्कृतिक प्रथाओं में नाव दौड़, नृत्य रुपों, फूलों, रंगीन कला, भोजन और पारंपरिक कपड़ों से लेकर ओनसद्या यानि भोज है, जिसमें केले के पत्ते पर 29 शाकाहारी व्यंजन परोसे जाते हैं। तिरुवोनम, दसवें दिन अपने घरों के प्रवेश द्वार पर आटे के घोल से अल्पना सजाते हैं। नये कपड़े पहनते हैं। ऐसा मानना है कि इस दिन राजा महाबली हर घर जाते हैं और परिवार को आर्शीवाद देते हैं और परिवार दावत के लिए इक्ट्ठा होता है। 




गणेशोत्सव(7 से 16 सितम्बर) दस दिन महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, तमिलनाडु गणपतिमय रहता है। बप्पा के आवाहन से लेकर विर्सजन तक श्रद्धालु, आरती, पूजा, सांस्कृतिक कार्यक्रमों में, लगभग सभी उपस्थित रहते हैं। घरों में भी गणपति 1,3,5,7,9 दिन बिठाते हैं। इसमें गौरी पूजन, दो दिन महालक्ष्मी पूजन, छप्पन भोग हैं।


त्यौहार के बीच में बेटियां भी गणपति से मिलने मायके आती हैं और बहुएं भी मायके जाती हैं। मुंबई में मैंने देखा, सामने फ्लैट में एक परिवार ने गणपति बिठाए तो उनके तीनों भाइयों के परिवार, दूसरे शहरों से वहीं आ जाते हैं। पूजा तो हर समय नहीं होती, बच्चे आपस में घुल मिल जाते हैं। महिलाओं पुरुषों की अपनी गोष्ठियां चलती हैं। अष्टमी को ऐसा माना जाता है कि इस दिन गौंरा अपने गणपति से मिलने आती हैं। उपवास रखकर, कुल्हड़ गुड़ियों के रुप में गौरी को पूजते हैं और सबको भोजन कराते हैं। दक्षिणा उपहार देते हैं पर उस दिन नियम है कुछ भी, जूठन(सभ्य लोग हैं जूठा नहीं छोड़ते) तक नहीं फेंकते। यहां तक कि पान खिलाया तो उसका कागज भी दहलीज से बाहर नहीं डालते। अगले दिन दक्षिणा उपहार ले जा सकते हैं। शाम को आरती के बाद कीर्तन होता है। मंगलकारी बप्पा साल में एक बार तो आते हैं इसलिए उनके सत्कार में कोई कमी न रह जाए। अपनी सामर्थ्य के अनुसार मोदक, लड्डू के साथ तरह तरह के व्यंजनों का भोग लगाते हैं। जो सब मिल जुल कर, प्रशाद में खाते हैं। थोड़ी सी जगह में संबंधियों, मित्रों के साथ आनंद पूर्वक नाच भी लेते हैं। सोसाइटी के गणपति उत्सव में सबकी भागेदारी होती है।

     आनंद चर्तुदशी(16 सितम्बर) के दिन गणपति विर्सजन होता है। नाचते हुए गणपति से विनती करते हुए कहते हैं कि अगले बरस तूं जल्दी आ और विर्सजन जूलूस में जाते हैं।  


   गणपति की कथाएं बड़ी रोचक हैं। महर्षि वेदव्यास महाभारत की कथा लिखना चाह रहे थे पर उनके विचार प्रवाह की रफ्तार से, कलम साथ नहीं दे रही थी। उन्होंने गणपति से लिखने को कहा। उन्होंने लिखना स्वीकार किया पर पहले तय कर लिया कि वे लगातार लिखेंगे, जैसे ही उनका सुनाना बंद होगा, वह आगे नहीं लिखेंगे। महर्षि ने भी गणपति से प्रार्थना कर, उन्हें कहा,’’ आप भी एडिटिंग साथ साथ करेंगे।’’ गणपति ने स्वीकार कर लिया। जहां गणपति करेक्शन के लिए सोच विचार करने लगते, तब तक महर्षि अगले प्रसंग की तैयारी कर लेते। वे लगातार कथा सुना रहे थे। दसवें दिन जब महर्षि ने आखें खोलीं तो पाया कि गणपति के शरीर का ताप बढ़ गया है। उन्होंने तुरंत पास के जलकुंड से जल लाकर उनके शरीर पर प्रवाहित किया। उस दिन भाद्रपद की चतुर्दशी थी। इसी कारण प्रतिमा का विर्सजन चतुर्दशी को किया जाता है। महाराष्ट्र इसे मंगलकारी देवता के रूप में व मंगलपूर्ति के नाम से पूजता है। 

   गणपति उत्सव की शुरूवात, सांस्कृतिक राजधानी पुणे से हुई थी। शिवाजी के बचपन में उनकी मां जीजाबाई ने पुणे के ग्रामदेवता कस्बा में गणपति की स्थापना की थी। तिलक ने जब सार्वजनिक गणेश पूजन का आयोजन किया था तो उनका मकसद सभी जातियों धर्मों को एक साझा मंच देना था। पहला मौका था, जब सबने देव दर्शन कर चरण छुए थे। उत्सव के बाद प्रतिमा को वापस मंदिर में हमेशा की तरह स्थापित किया जाने लगा तो एक वर्ग ने इसका विरोध किया कि ये मूर्ति सबके द्वारा छुई गई है। उसी समय निर्णय लिया गया कि इसे सागर में विसर्जित किया जाए। दोनों पक्षों की बात रह गई। तब से गणपति विर्सजन शुरु हो गया। हर प्रांत के लोग गणपति उत्सव मनाते हैं क्योंकि दक्षिण भारत के कला शिरोमणि गणपति तो सबके हैं। तिलक ने गणेश उत्सव द्वारा, अंग्रेजों के विरुद्ध सबको संगठित किया था। आज देश विदेश में भारतवासी इसे मिलजुल कर ही मनाते हैं। 

    लोकमान्य तिलक के लगाए पौधे की शाखाएं देशभर में फैल गईं हैं। आनंद चतुर्दशी को गणपति विर्सजन होता है और जहां रामलीला होती है, उस स्थान का भूमि पूजन होता है।

राधाष्टमी(11सितम्बर) का त्योहार परंपरागत रूप से ब्रज, बरसाना, मथुरा वृंदावन के आसपास के क्षेत्र के साथ उत्तर भारत में मनाते हैं। मंदिरों में कीर्तन का आयोजन किया जाता है। महान शास्त्रीय संगीतकार, संगीतज्ञों के आराध्य, ध्रु्रपद के जनक, स्वामी हरिदास का जन्म भी इसी दिन हुआ था। बैजू बावरा, तानसेन जेैसे दिग्गज संगीतज्ञ उनके शिष्य थे। इनके जन्मोत्सव पर विश्वभर के शास्त्रीय संगीतज्ञ उन्हें भावांजलि देने, स्वामी हरिदास संगीत एवं नृत्य महोत्सव में आते हैं।

     हिन्दू धर्म में पितृ पक्ष(17 सितम्बर से 2 अक्तूबर) का विशेष महत्व है। मान्यता है कि यमराज श्राद्ध पक्ष में पितरों को मुक्त कर देते हैं ताकि वे स्वजनों के यहां जाकर तर्पण ग्रहण कर सकें। पितरों के निमित्त किए गए तर्पण से पितर, तृप्त होकर वंशजों को आर्शीवाद देते हैं। जिससे जीवन में सुख समृद्धि प्राप्त होती है। अमावस को पितृ विर्सजन करते हैं। भारत की धरती से बौद्धधर्म का प्रसार दक्षिण पूर्व एशिया में दूर दूर तक, जहाँ भी बौद्ध धर्म(इसमें सनातन धर्म की परंपराएं भी मिश्रित हैं) का प्रभाव है वहाँ पूर्वजों को बहुत सम्मान दिया जाता है। वहाँ भी मान्यता है कि पूर्वजों की आत्मा साल में एक बार धरती पर आती है। इसे ओबोन कहते हैं। इस दिन शाकाहारी भोजन बना कर घर के बाहर या मंदिरों के बाहर रखते हैं।

  हंगरी घोस्ट फैस्टिवल सातवें महीने की 15वीं रात को होता है। इस महीने को घोस्ट मंथ कहते हैं। इन दिनों स्वर्ग, नर्क के दरवाजे 15 दिन के लिए़ खुलते हैं। पूर्वजों की आत्मायें एशिया के देशों में बसे परिजनों के यहाँ धरती पर पधारती हैं। अतः इस फैस्टिवल का आयोजन आत्माओं को शांत करना है। बौद्ध टोइस्टी धर्म एवं अनेक देश जैसे कोरिया जापान में भी इसे हंगरी घोस्ट फैस्टिवल कहते हैं।

   मैंने सिंगापुर में देखा, इसकी तैयारी एक हफ्ते पहले से शुरू हो जाती है। घर का रास्ता दिखाने के लिए घर के बाहर पेपर लैंप जलाये जाते हैं। वहाँ विभिन्न साउथ ईस्ट देशों के खाने के रैस्टोरैंट हैं। प्रवेश द्वार एवं स्टेज़ पर बहुत सुंदर सजावट की गई थी। बड़े मंजीरे, ड्रम एवं अनेक वाद्य यंत्रों से सुंदर संगीत का समा बंधा था। लोग कुर्सियों पर शांति से बैठे थे। पता चला फैस्टिवल ऑफ डेथ की शुरूवात है। इस आयोजन को देख कर मैंने भी प्रणाम किया। भारत में पितृ अमावस को पितृ विर्सजन किया जाता है। यहाँ भी पूर्वजों का सत्कार करने के बाद उन्हें सम्मान से विदा भी किया जाता है। रात के समय पूर्वजों को राह दिखाने के लिए पानी में कागज की नाव पर मोमबत्ती जला कर प्रवाहित करते हैं। अनगिनत नावें तैरती हैं। आकाश में टिमटिमाते तारे नीचे कागज की नावों में जलती मोमबत्तियाँ!! मुख्य चीन में छींग मिंग-उनका परंपरागत त्योहार है। इस दिन पूर्वजों को याद किया जाता है। चीनी अपने दिवंगत लोगों की समाधि पर जाकर उसे साफ कर फूल मालाएँ अर्पित कर स्वादिष्ट खाना रख कर प्रार्थना करते हैं। इसके बाद परिवार का मुखिया उनके पीछे क्रम से परिवार के सदस्य समाधि के चक्कर लगा कर पूर्वजों को गर्म खाना परोस कर, खुद ठंडा खाना खाते हैं। इसलिए इसे ठंडे भोजन का दिन भी कहा जाता है। भारत में प्राचीन परंपरा है जिसमे पितृ ऋण, सबसे बड़ा ऋण माना जाता है ताकि संतान अपने पूर्वजों को सदैव याद रखे।       

   सृजन, निर्माण, वास्तुकला, औजार, शिल्पकला, मूर्तिकला एवं वाहनों के देवता विश्वकर्मा की जयंती (17 सितम्बर) को मनाई जायेगी। कारीगरों का यह उत्सव का दिन है। सब एक जगह इक्कट्ठा होकर पूजा करते हैं और फिर मूर्ति का विर्सजन करते हैं।

आभानेरी महोत्सव(17 से 19 सितम्बर) में कालबेलिया नृत्य, लंगा नृत्य, कच्छी घोड़ी नृत्य, भवाई नृत्य, रास लीला, कठपुतली शो का आनन्द उठाते हुए हम राजस्थान की जातीय कलाकृतिया और हस्तशिल्प खरीद सकते हैं। ऊँट गाड़ी की सवारी करते हुए फूलों और रंगोली की सजावट देखने लायक होती है। जयपुर से 80 किमी. दूर आभानेरी गाँव में चांद बावड़ी और हर्षत माता मंदिर के बीच में मनाया जाता है।

पांग ल्हबसोल(18 सितम्बर) सिक्कमियों की एकता का प्रतीक उत्सव है। यह लेप्चा, भूटिया और नेपालियों के बीच भाईचारे की संधि का स्मरण कराता है। राज्य के पर्वत देवता कंचनजंगा को यह उत्सव समर्पित है।

नीलमपेरूर पदायनी(29 और 30 सितम्बर) अलपुझा जिले में खूबसूरत गांव नीलमपेरूर में पल्ली भगवती मंदिर को उत्सव मनाने के लिए खूब सजाया जाता है। ओणम के महीने में होने से यह केरल में बहुत लोकप्रिय है। जिसमें पुतले लेकर एक जलूस निकाला जाता है। और......

हमारे यहाँ एक कहावत है ’तीज त्यौहारों के बीज बो जाती है।’’ 

यह लेख प्रेरणा शोध संस्थान से प्रकाशित प्रेरणा विचार पत्रिका के  सितंबर अंक में प्रकाशित हुआ है।






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