मेरी अदृश्य शत्रु कोरोना से जंग चल रही थी। मैं और कोई बिमारीे न हो इसलिए बड़ी एतियात बरत रही थी। मसलन मच्छरों से बचाव के लिए, मच्छरदानी में रहती। खाना एक दम ताज़ा गर्म अपने बर्तनों में थोड़ा डलवाती। किसी तरह निगल कर तुरंत बर्तन साफ करके रखती। कपड़े रोज बदलती पर नहाने का रिस्क नहीं लिया। मैंने अपनी तरफ से पूरी तरह कोरोना को हराने के लिए फोकस किया हुआ था। जब टैम्परेचर कम होता तो पसंद का गाना, बहुत कम वोलयूम पर लगा लेती, बुखार में नींद लग जाती, कभी मोबाइल अपने आप ऑफ हो जाता। स्टिकर चिपकाने के बाद तो कोई घर के आगे से भी नहीं गुजरता था। सुबह दस बजे तक फल सब्जी के ठेले निकलते। अगर कुछ खरीदना हो तो वे रुकते। बाकि दिन भर सन्नाटा! बस नारियल वाले का मुझे इंतजा़र रहता क्योंकि वह बंधा हुआ था अगर हमारे यहां आने से पहले उसे 100रु वाले ज्यादा ग्राहक मिल गये तो वह बंधे वाले के लिए नहीं बचायेगा। इसलिये उसका ठेला देखते ही मैं खुश हो जाती। आज उसके ठेले पर एक ही नारियल था। इसलिए उसने नारियल देने के साथ हमें खूब भाग्यशाली भी बताया कि हमारी किस्मत अच्छी है जो एक नारियल बच गया। क्योंकि आज रामनवमीं के कारण कई लोगों ने पूजा में पानी वाला नारियल ही रख दिया। क्या करें जब दूसरा नहीं मिलेगा तो! कोई मुझे दिन, त्यौहार और तारीख नहीं पता न ही मोबाइल में गाना लगाते समय मैं देखती। बस दवा देखती की कितने दिन की रह गई है जब खत्म हो जायेगीं तो डोज़ पूरी हो जायेगी तब मैं ठीक हो जाउंगी।
आज भाभी ने आवाज़ दी,’’दीदी जरा सा दुर्गा नवमी का प्रशाद ले लो। उनके जाते ही मास्क लगा कर दरवाजा खोला, देखा स्टूल पर प्लेट में एक चम्मच हलवा छोल और कलावा , नाश्ते का दूध दलिया रक्खा है। साथ में मेरे अच्छे नसीब का फिटमारा सा नारियल और स्ट्रा रखा है। कलावा भगवान जी के आगे रखा। प्रशाद और दलिया खाया, कुछ देर बाद गोलियां खाकर सो गई। अनिल की आवाज़ सुनकर नींद खुल गई। छोटी भाभी ने भी नवमीं का प्रशाद भेजा था। उसने झोला गेट पर टांग दिया और बाहर खड़ा ऊंची आवाज़ में मुझसे पूछ रहा,’’बुखार उतर गया, गरारे किए, भाप ली।’’मैंने फोन पर जवाब दिया। अनिल चिंतित सा चला गया।़ अब मैंने उस बद्सूरत नारियल में चक्कू से छेद कर स्ट्रा लगा कर पिया वो मुझे आज अच्छा नहीं लगा। ये सोचकर कि अच्छा तो कुछ भी नहीं लगता था पर पी गई। अभी लेटी ही थी एकदम प्रैशर लगा तुरंत टॉयलेट की ओर पूरी ताकत से दौड़ी। अपने पर कोई कंट्रोल नही, कपड़े खराब, पेट में जैसे कुछ बचा ही नहीं। उस समय पता नहीं कहां से हिम्मत आ गई। सफाई की, कपडे़ धोए। बैड पर आई तो चक्कर से आने लगे। फटाफट ओआरएस गिलास भर कर पिया और लेट गई। तबियत संभलने लगी। अपने पर बड़ी दया और शर्मिंदगी आने लगी। दोनों बंद दरवाजों की ओर देखा और सोचने लगी अगर उस समय कोई अंदर आ जाता तो देख कर क्या सोचता? इतनी बड़ी होकर बच्चों जैसा काम किया है। फिर याद आया अरे मुझे तो कोरोना है अंदर आने के लिए मैंने सबको मना किया है। इसमें रोगी अकेला पड़ जाता है। अब मेरे विचार बनने लगे कि सोशल डिस्टैंंिसंग नहीं, शारीरिक दूरी बनाएं। अपनी आदत के अनुसार हर बात में अच्छाई ढूंढना। यहां भी ढंूढी कि अच्छा हुआ उल्टी तो नहीं आई। अचानक याद आया इतनी सफाई की, कोई दुर्गंध नहीं आई। अगर दुर्गंध भी होती तो सफाई करते समय शायद उल्टी भी लग जाती। कोरोना ऐसे दिमाग पर छाया है कि आज पता चला कि मुझे तो किसी चीज़ की गंध ही नहीं आती। मैंने कुछ नियम बनाए जब तक बुखार नहीं उतरता, तब तक आग में पका ही गर्म खाउंगी, पिउंगी। इसलिए फल नहीं, सब्ज़ियां खाउंगी। कोई खट्टा डकार नहीं, पेट में गड़गड़ नहीं। न ही दोबारा गई, जो कुछ हुआ, सब एक बार में हुआ। इसे लिखने से पहले मैंने पौटी घटना के बारे में अंकुर को फोन पर सुना कर पूछा कि इसे लिखना चाहिए? उसका जवाब था कि आज परिवार को पता चला की कभी ऐसा भी होता है। पर आप घबराई नहीं। अपने अनुभव को जैसे का तैसा लिखो। और मैंने लिख दिया। नीलम भागी क्रमशः