Search This Blog

Wednesday, 21 September 2016

इको फ्रैंडली जन्मदिन कूर्ग यात्रा Coorg Yatra भाग 8 नीलम भागी

      कूर्ग यात्रा भाग 8                  




इको फ्रैंडली जन्मदिन  कूर्ग यात्रा#Coorg भाग 8
                                                      नीलम भागी
वाॅक से थकी हुई थी, चिंता थी कि कल निशानी जा पाऊँगी या नहीं। थोड़ी देर पारदर्शी दीवार से बाहर हरियाली देखती हुई लेटी, तो सो गई। आँख खुलने पर बाहर अंधेरा छा गया था। डिनर के लिये ’दा ग्रिल’ जाना था। तैयार हुए बारिश हो रही थी। बग्गी से हम जा रहे थे और उसकी रोशनी तो बारिश और पौधों की सुन्दरता को और बढ़ा रही थी। दा ग्रिल में हम तीनों एक लाइन में बाहर की ओर मुंह करके बैठे क्योंकि बाहर के बरसाती खूबसूरत नज़ारे को हम एक पल के लिये भी खोना नहीं चाहते थे और गीता हमारे सामने हमारी ओर मुंह करके बैठी। वहाँ का स्टाफ गीता को बहुत अच्छे से अटैण्ड कर रहा था। मजबूरी में गीता के दो मनपसंद गेम हैं जो हम उसे करने देते हैं। पहला उसको चीनी दे दो, जिसे वह जाॅनी( जाॅनी जाॅनी यस पापा.....) कहती है और उसका एक एक दाना उठा उठा कर खाती रहती है। जब उससे बोर हो जाती है, तब दो गिलास में थोड़ा पानी दे दो जिसे वह एक दूसरे में पलटती रहती है। मेरे लिये वेज़ और अपने नानवेज़ लेकिन कूर्ग विशेष ही आर्डर किया गया। मैं अपना वेज़ वाह वाह करके खा रही थी, वे नानवेज। दोनों ने मेरा वेज चखा उनके मुँह से एक साथ निकला, लाज़वाब!! उत्तकर्षिणी राजीव ने मुझे बहुत जोर दिया,’’ माँ एक बार नानवेज़ चख के तो देखो, आप अभी से नानवेज़ खाना शुरु कर दोगी। पर बचपन से पड़े शाकाहारी ब्राहमण संस्कार कैसे छोड़ सकती हूँ!! डिनर सम्पन्न होते ही जिस शेफ ने बनाया था, वो मिलने आये, उत्तकर्षिणी राजीव ने तो खूब तारीफ़ की, लेकिन मैं तो इतनी प्रसन्न थी कि मेरे पास तो प्रशंसा के लिये शब्द ही नहीं थे। लौटते ही मैंने पैरों के फफोलों पर दवा लगाई ताकि सुबह निशानी जा सकूँ और रात पैर भी मैंने नहीं ढके ताकि नींद में फफोले न फूट जायें। सुबह सात बजे जाना था। जल्दी उठी, देखा पैर जूते पहनने लायक नहीं थे। मन को समझाया कि कोई बात नहीं, मेरा कौन सा अंतिम समय आ गया है। इस बार नहीं तो अगली बार सही।    
यहाँ का तो चप्पा चप्पा घूमने लायक है। ऐसी जगह में पैदल चलने और बग्गी से गुजरने में फर्क होता है। गीता मेरे साथ पैदल चल दी। थोड़ा घूमने के बाद मैंने सोचा कि गीता कभी फैमली मैम्बर के बिना नहीं रही, ज्यादा पैदल चलने से, ये थक जायेगी तो मुझे भी बग्गी में घूमना पड़ेगा। क्यों न इसे क्रेच में छोड़ू? ट्रायल भी हो जायेगा। पास से जो बग्गी गुजरी उसमें बैठ कर हम क्रेच गये। अंदर जाते ही मैम ने उसे बुलाया, वो तो मेरी अंगुली छोड़, झट से मैम के पास फिर मैम को छोड़ कर वहाँ रखे बच्चों की पसंद के खिलौनों, झूलों में लग गई। गीता की मेरी तरफ पीठ थी। मैं दरवाजा बंद कर बाहर आ गई। कान मेरे क्रेच की ओर लगे रहे कि गीता रोयेगी तो ले आउँगी। दो घण्टे बाद जब मैं घूम कर थक गई तो गीता को लेने गई तो वह मजे से खेल रही थी। उसकी नैपी भी बदली हुई थी क्योंकि उसने पाॅटी कर ली थी। मैं तो बिना तैयारी केे अचानक मन बना तो, क्रेच गई थी। गीता वहाँ से आने को तैयार नहीं थी, स्वीमिंग का लालच देकर उसे लाई। खा के सो के हम सब लेवल 6 लाॅबी गये।      अनन्त में अनन्त, वहाँ से कूर्ग के नज़ारों को वर्णन करने की तो मेरी औकात ही नहीं है। विस्मय विमुग्ध से खड़े हैं। खड़े खड़े थक गये तो बैठ गये। कभी इनफीनटी पूल में स्वीमिंग करते लोगों की किलकारियाँ आनंदित करती, कभी गीता की। प्राकृतिक सौन्दर्य तो था ही। गीता ने मछलियाँ देख लीं, वो तो उनमें मस्त हो गई। अंधेरा होने पर लौटे। विला में प्रवेश करते ही खुशी चौगुनी हो गई. उत्तकर्षिणी के जन्मदिन की सजावट देख कर। वहाँ पाये जाने वाले फर्न से विश किया गया था, बुके, केक के साथ, कूर्ग की काॅफी उपहार में। जब तक काॅफी खत्म नहीं हुई। कूर्ग में मनाया जन्मदिन हमारे साथ रहा। क्रमशः 

Sunday, 4 September 2016

क से कबूतर, ख से खतूतर, ग से गतूतर ,ल से लतूतर........ नीलम भागी Neelam Bhagi




     केशव संवाद, बहुमत समाचार पत्र जो मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ से प्रकाशित होता है उसमें भी यह लेख प्रकाशित हुआ है ।                                                   कमली हमारे घर में झाड़ू पोचा बरतन करने आती थी। कमली जब कभी काजल को काम पर हमारे घर लाती, तो मेरी अम्मा बहुत खुश होती। काजल को देखते ही अम्मा कमली से कहती,’’ कमली तू औरों के घर के काम निपटा आ। मैं काजल से काम करवा लूँगी।’’ कमली चल देती और अम्मा उससे दबा के काम लेती। एक दिन छुट्टी थी, कमली काजल को ले आई। अम्मा काजल से फर्श इस कद़र साफ करवा रही थी जैसे शीशा हो। मैं पढ़ रही थी, मेरी पढ़ाई खराब न हो इसलिए धीरे बोल रही थी और काजल को भी हिदायत दे रक्खी थी कि शांति से काम करे जिससे दीदी की पढ़ाई खराब न हो। जब पोचा लगाते हुए काजल ने मुझे धीरे से पैर ऊपर करने को कहा, ताकि मेरे पैरों के नीचे की जगह गन्दी न रह जाये। मैंने गुस्से से अम्मा से पूछा,’’ ये पोचा क्यों लगा रही है? कमली क्यों नहीं लगा रही है?’’ अम्मा ने बड़ी शांति से जवाब दिया,’’ बेटी ये कमली से अच्छा काम करती है। क्योंकि काजल बच्ची है, जैसा कहो वैसा करती जाती है।’’अम्मा का जवाब सुनते ही मुझे गुस्सा आ गया मैं बोली,’’आपको शर्म नहीं आती, बच्ची से काम करवाते। आपकी बेटी पढ़े तो आपको खुशी मिलती है। दूसरे की बेटी पढ़ने लिखने की उम्र में आपका का काम, आपके अनुसार करे तो आपको अच्छा लगता है। कमली से कह कर इसे स्कूल क्यों नहीं पढ़ने भेजती।’’ अम्मा की एक ही बात ने मुझे चुप करा दिया। र्म नहीं आती, माँ से इस तरह बात करते।मैं चुप हो गई। अम्मा जानती हैं ,युवा आर्दशवादी होता है। अम्मा ने उसी समय काजल से काम लेना बंद कर, उसे कमली को बुलवाने भेज दिया।
   कमली के आते ही अम्मा ने उस पर प्रश्नो की बौछार करते हुए पूछा,’’ तू काजल को काम पर क्यों लाती है?’’ कमली ने जवाब दिया,’’दीदी हमारी झुग्गियों का माहौल बच्चियों के लिए ठीक नहीं है। सुबह औरते तो घरों में काम करने निकल जाती हैं। ज्यादातर आदमी भी मेहनत मजदूरी करने चले जाते हैं। अकेली बच्ची को झुग्गी में देखकर कोई भी घुस कर मुहँ काला करने की हिम्मत कर जाता है।’’ अम्मा ने अगला प्रश्न दागा,’’इसके तीनों भाई कहाँ होते हैं?’’ कमली बोली,’’ भईया स्कूल जाते हैं न।’’ अम्मा ने पूछा,’’ काजल को स्कूल क्यों नही भेजती?’’ कमली ने कहा,’’इसके पापा ने मना किया है।’’ अम्मा ने कमली से कहाकि शाम को इसके पापा को मेरे पास भेजना।
    कमली भी प्रत्येक माँ की तरह अपनी बेटी को पढ़ाना चाहती थी। इसलिए शाम होते ही अपने पति मुन्नालाल को लेकर अम्मा के पास आ गई। अम्मा ने अब मुन्नालाल की क्लास लेनी शुरु की। छूटते ही उसे कहा कि कल से काजल को स्कूल भेजना। वह बोला,’’ काजल पढ़ कर क्या करेगी? करना तो वही है जो इसकी माँ कर रही है झाड़ू, पोचा, बर्तन। इस काम में भला पढ़ाई की क्या जरुरत? और पढ़ कर इसका दिमाग न चढ़ जायेगा।’’ अम्मा ने पूछा,’’तो इसके भाइयों को स्कूल क्यों भेजते हो? जैसे तुम अनपढ़ मजदूर हो वैसे ही वे तीनों बन जायेंगे।’’ उसने दुखी होकर जवाब दिया,’’ हममें और बोझा ढोनवाले पशु में क्या फर्क है? चाहता हूँ कि ये ससुरे इंसान बन जाये, तभी तो इन्हें पढा रहा हूँं।’’ अम्मा बोली,’’ मैं ज्यादा पढ़ी नहीं हूँ इसलिए नौकरी नहीं करती, सिर्फ घर सम्भालती हूँ, और ये भी मेरी ओर इशारा करके कहाकि बड़ी होकर घर सम्भालेगी तो मैं इसे क्यों पढ़ाऊँ? मैं तो ऐसा नहीं सोचती। पर मैं तो अपनी बेटी को खूब पढ़ाऊँगी, ये सोचकर की ये हमसे अच्छी जिन्दगी जिये।’’ कमली ने अम्मा की बात का सर्मथन करते हुए कहाकि हमारी माँ हमें पढ़ाती, तो हम कामवाली थोड़ी बनती। मैं अपनी बिटिया को कामवाली न बनाऊँगी।’’अब मुन्नालाल भी राजी हो गया और नौ साल की काजल का नाम दसवें साल में पहली कक्षा में लिखवाने को तैयार  हो गया।
   मुन्नालाल अगले दिन अपनी दिहाड़ी का नुकसान करके काज़ल का नाम स्कूल में लिखवाने गया। मास्टर जी ने काजल का जन्म प्रमाण पत्र माँगा। जो उसने बनवाया ही नहीं था। कमली दौड़ती हुई अम्मा के पास आई। अम्मा उसके साथ स्कूल गई। मास्टर जी बहुत भले थे. उन पर सरकार के नारे सब पढ़ें, सब बढ़ेंका प्रभाव था. वे चाहते थे कि बच्ची पढ़े और आगे बढ़े। इसलिए उन्होंने बताया कि इसका एफीडैविट बनवा लाओ। पाँच साल उम्र लिखवा कर उसका उसका एफीडेविट बनवाया और स्कूल में नाम लिखवाया। सरकारी स्कूल था वर्दी, किताब कापी सब कुछ मुफ्त में मिला। दसवें साल में लगी काजल, कक्षा में छात्रा कम टीचर की सहायिका ज्यादा थी इसलिए माॅनिटर बना दी गई। साठ साल की टीचर, इस उम्र में घुटनों में वैसे ही तकलीफ़ थी। वह बार-बार कैसे उठती भला! गरीब घरों के गंदे, गाली बकने वाले बच्चे, इनसान बनने आए थे। काजल तो टीचर के लिए वरदान साबित हुई। भाग दौड़ के सारे काम माॅनिटर के जिम्मे थे। मसलन बच्चों को लाइन बना के प्रार्थना में ले जाना और प्रार्थना से कक्षा में लाना, मिड डे मील बाँटना, कक्षा कंट्रोल करना, मैडम बोलती,’’परशोतम तुम्हारे मुहँ पर तमाचा मारुँगी।’’ काजल तुरंत जाकर परशोतम के गाल पर चाँटा जड़ आती। सर्दी में टीचर के जोड़ों में र्दद रहता है और जोड़ों के र्दद के लिए धूप बहुत मुफ़ीद होती है। काजल सब बच्चों को धूप में लाइन से बिठाती। मैडम की मेज कुर्सी बाहर लगाती। ये सब काम माॅनिटर ही तो देखेगा न।
     मिड डे मील तक बच्चों की संख्या का ध्यान रखना पढ़ाने से ज्यादा जरुरी था ताकि मिड डे मील बच्चों को कम न पड़ जाये। बच्चो को स्कूल आने की तैयारी का तो झंझट ही नहीं था। जो मिला खा लिया, जैसे सोय थे वैसे ही उठ कर, बस्ता उठाया और  चल दिये। लघुशंका और पाॅटी जहाँ लगी वहाँ कर ली। जब से मिड डे मील शुरु हुआ तब से हाजिरी बहुत जरुरी हो गई है। प्रार्थना बहुत देर तक चलती है। ख़त्म होने तक सब टीचर भी पहुँच जाते हैं।  अब प्रार्थना के बाद से ही बच्चो को मिड डे मील की चिंता हो जाती, न जाने आज क्या मिलेगा? जो भूखे आते वे मिड डे मील का ख्वाब देखते रहते और सुस्त बैठे रहते। मिड डे मील मिलते ही कुछ बच्चो में गज़ब की ऊर्जा का संचार होता, वे पढ़ाई के नाम पर कक्षा में कई घंटे घिरे हुए बैठना नहीं पसन्द करते इसलिए वे स्कूल से भाग जाते। बाकि बचे बच्चों को टीचर समझाती कि वे जो भाग गये हैं, उनके भाग्य में पढ़ना नहीं है। जिनके भाग्य में पढना था, वे छुट्टी तक कक्षा में बैठे रहते।
     टीचर उम्र के साथ-साथ अनुभवी भी बहुत थी। उसका कहना था कि नीव मजबूत हो तो उस पर इमारत टिकी रहती है। किसी तरह अक्षरों की पहचान अच्छे से हो जाये तो, किताब पढ़ना कोई मुश्किल नहीं है। इसलिये वह अक्षर ज्ञान पर बहुत जोर देती थी। मैडम जी मेज पर किताब खोल कर रख, कुर्सी पर बैठ कर अक्षर ज्ञान सिखा रहीं थी। बच्चे भी किताब खोलकर, मैडम जो अक्षर बोल रही थी, उस पर अंगुली रख कर दोहरा रहे थे। काजल डण्डी लेकर खड़ी देख रही थी कि सब बच्चे मैडम जी के पीछे बोले और अंगुली ठीक अक्षर पर खिसकाते जायें। सब बच्चे ऐसा कर रहे थे। यदि कोई बच्चा ऐसा नहीं करता, तो काजल मैडम जी से कहती और मैडम जी जितने डण्डे कहती, काजल उस बच्चे को उसकी सीट पर जाकर लगाकर आती। मैडम जी को कई सालों से एक ही किताब पढ़ाते हुए याद हो गई थी। वे किताब की बजाय बाहर बरामदे में देखते हुए पढ़ा रहीं थी। जैसे ही क तक पहुँची, वे बोली क से कबूतर, इतने में शैला जी नई साड़ी पहने उनकी कक्षा के आगे से निकली, मैडम जी ने किताब काजल के हाथ में पकड़ाई और चल दी शैला जी की साड़ी की इनक्वायरी करने। आगे का मोर्चा काजल ने सम्भाला। क से कबूतर, ख से खतूतर, ग से गतूतर घ से घतूतर ल से लतूतर........समवेत स्वर में तूतर तूतर तूतर का कोरस बहुत अच्छा लग रहा था। मैडम जी जब आई तो बच्चों को उधम न मचाते देख बहुत खुश हुई और काजल को शाबाशी भी दी।
   कक्षा में जो भी पढ़ाया, जाता काजल तुरंत याद कर लेती। अब ठ से ठठेरा या ठग भला कितनी बार बोलती या लिखती। मैडम काम तो उससे सारे करवाती लेकिन पढ़ाती वही जो पहली के कोर्स में था। दूसरी कक्षा में जाने का समय आ गया जिसे कोर्स आया वो भी पास जिसे नहीं आया वो भी पास। घर में कमली काजल से काम नहीं करवाती थी। उसे कहती तूँ बस मेरे सामने बैठ कर पढ़। काजल परेशान रहती कि वो क्या पढ़े? अब काजल भी मिड डे मील के बाद इधर उधर घूमने लग गई। क्योंकि अगली कक्षाओं में उसे जवान मास्टर मास्टरनियाँ मिले, जिन्हें काजल की सेवा की जरुरत नहीं थी। काजल का अब कक्षा में जरा मन नहीं लगता था अब तो पढ़ने में भी नहीं लगता था इसलिये अब वह घूमती ज्यादा थी।
 सर्दियों में कोई एन.जी.ओ. कंबल बाँट जाता तो कोई स्वेटर, कोई बढि़या भोजन करा जाता, फल दे जाता। बाल दिवस पर तो बच्चे घर से झोला लेकर आये क्योंकि न जाने कौन कौन सी समितियों से लोग चिल्ड्रन डे मनाने और मनाते हुए फोटो खिंचवाने आये थे। सब कुछ मिला पर दसवें साल में पढ़ने गई काजल को ढंग से शिक्षा ही नहीं मिली। चौदह साल की काजल तो अपना नाम भी लिख लेती थी। कुछ लड़कियाँ तो अपना नाम भी नहीं लिख पाती थीं। इसमें क़सूर बच्चियों का नहीं था उनके घरवालों का था जिन्होंने उनके मुश्किल नाम रखे जैसे शकुन्तला, उर्मिला, कौशल्या आदि। कमली को काजल के घूमने का पता चला। उसने उसे खूब पीटा और स्कूल भेजना बंद कर के अपने साथ काम पर लाने लगी।  

नेचर वॉक, सैक्रेड ग्रोव Nature Walk, Sacred Grove Coorg Yatra कूर्ग यात्रा 7 नीलम भागी

a




 नेचर वॉक, सैक्रेड ग्रोव         कूर्ग यात्रा 7
                                                    नीलम भागी
बकायदा प्रमाण के साथ महेश हमें बहुत मनोरंजक पेड़ों और कुछ पक्षियों की कहानियाँ सुनाते चल रहे थे। इस वॉक में बारिश नहीं आई। लेकिन सुबह से हो रही थी। महेश को घेरे हम सब चल रहे थे। रुद्राक्ष के पेड़ के नीचे से हम रुद्राक्ष उठाते, वो हमें पहचान बताते एक मुखी......आदि। परजीवी पौधों में अमरबेल आदि पता था मुझे, लेकिन यहाँ बहुत विचित्रता देखने को मिली। घनी वनस्पितियों से गुजरते हुए हमेशा की तरह एक ही प्रश्न मेरे मन उठ रहा था कि क्या ये जंगल ऐसे ही रहेंगे? क्योंकि घूमने के बाद मैंने अपने परिवार और मित्रों को जब भी उस घूमी हुई जगह की हरियाली का वर्णन किया, तो वे कुछ सालों बाद या अपनी सुविधानुसार जब वहाँ जाते हैं, तो लौटने पर मुझे कहते हैं,’’अब वहाँ पर इतनी हरियाली तो नहीं है, जैसा आप ने बताया था। सुन कर दुख होता है कि पेड़ कम हो गये हैं। लेकिन यहाँ ऐसा कभी नहीं होगा। हमारे पूर्वज पेड़ों का महत्व समझते थे। जहाँ हम खड़े थे वहाँ मेला लगता है। मंदिर है और पास में ही एक बोर्ड लगा था जिस पर कन्नड में कुछ लिखा था और दो शब्द इंगलिश के थे "सैक्रेड ग्रोव". उस स्थान से कोई भी पेड़ तो क्या टहनी भी नहीं तोड़ता है। इतने में किसी ने अपना ज्ञान बघारा कि मरे हुए पेड़ की लकड़ियाँ तो ले जाते होंगे! जिसके जबाब में महेश हमें एक मरे पड़े के पास ले गये, जिसके तने पर कई वनस्पतियों का जन्म हुआ था। यह सब देख कर कुर्गी लोगो के प्रति मन श्रद्धा से भर गया। अब मैं पूरे विश्वास  से सबसे कह सकती हूँ कि घने जंगलों को देखना है तो कूर्ग जायें।
कहते हैं न, जहाँ चाह, वहाँ राह। यात्रा संपन्न होने से पहले एक टहनी पर छोटे छोटे, खूबसूरत गहरे लाल रंग के छ काफी बीन्स नज़र आ गये। देख तो मैंने लिये थे बाकि लोग भी देख रहे थे। लेकिन मेरे तस्वीर लेने से पहले ही एक व्यक्ति ने झट से उन्हें तोड़ कर मसल दिया और सूंघते हुए बोले,’’हाँ, देखो!मेरी अंगुलियों से कॉफी की महक भी आ रही है।’’किसी को भी उनकी अंगुलियाँ सूंघने का शौक नहीं था। वो स्वयं ही अपनी अंगुलियाँ सूंघ कर खुश होते रहे। लेकिन मैं मन ही मन क्रोधित होती रही। बे मौसम के फल हमें देखने को मिले, अगर वे तोड़े न जाते तो, कुछ दिन और पौधों की शोभा बढ़ाते। हमारे जैसे और भी लोग आते, उन्हें देखते और उन्हें तस्वीरों में कैद कर  लेते। लेकिन उनकी वजह से ऐसा नहीं हुआ। एक दीवार पर बहुत प्यारा फूल था, नाम मुझे याद नहीं आ रहा है लेकिन उसकी तस्वीर मैंने ले ली थी। आप भी चित्र देख सकते हैं। अब हमारी यात्रा को विश्राम मिला। जैसे ही मैंने ज़़ुराबे उतारी, मेरे पैरों में मोटे मोटे छाले थे। पर वे फूटे नहीं थे। विस्मय विमुग्ध करने वाली इस यात्रा में मुझे दर्द महसूस ही नहीं हुआ। अब मेरे फफोले र्दद कर रहे थे। अगले दिन सुबह सात बजे हमें निशानी जाना था। मैंने महेश से पूछा कि कल मैं निशानी चप्पलों में जा सकती हूँ। वो बोले,’’नहीं।’’मैं अपने साथ कॉटन की मोटी जुराबे और दो तीन जोड़ी "पेवर इंग्लैंण्ड" की चप्पलें अपने पैरों को सूट करती हुई रखती हूँ। और जहाँ भी जाती हूँ, वहाँ खूब घूमती हूँ। अब मुझे अपने आप पर गुस्सा आ रहा था कि मुझे अपने पैरों के बारे में पता है इसलिये अपनी जुराबें साथ ले कर जाना चाहिये था। विला में लौटते ही उत्कर्षिणी राजीव का ध्यान मेरे पैरों पर गया। दोनों का एक ही प्रश्न," ऐसे पैरों से, चलीं कैसे!!" जवाब,’’प्राकृतिक सौन्दर्य।’’उत्कर्षिणी ने मुझे गर्मागर्म कॉफ़ी दी। पता नहीं क्यों मुझे आज कॉफी का स्वाद विशेष लगा।
क्रमशः