नेचर वॉक, सैक्रेड ग्रोव कूर्ग यात्रा 7
नीलम भागी
बकायदा प्रमाण के साथ महेश हमें बहुत मनोरंजक पेड़ों और कुछ पक्षियों की कहानियाँ सुनाते चल रहे थे। इस वॉक में बारिश नहीं आई। लेकिन सुबह से हो रही थी। महेश को घेरे हम सब चल रहे थे। रुद्राक्ष के पेड़ के नीचे से हम रुद्राक्ष उठाते, वो हमें पहचान बताते एक मुखी......आदि। परजीवी पौधों में अमरबेल आदि पता था मुझे, लेकिन यहाँ बहुत विचित्रता देखने को मिली। घनी वनस्पितियों से गुजरते हुए हमेशा की तरह एक ही प्रश्न मेरे मन उठ रहा था कि क्या ये जंगल ऐसे ही रहेंगे? क्योंकि घूमने के बाद मैंने अपने परिवार और मित्रों को जब भी उस घूमी हुई जगह की हरियाली का वर्णन किया, तो वे कुछ सालों बाद या अपनी सुविधानुसार जब वहाँ जाते हैं, तो लौटने पर मुझे कहते हैं,’’अब वहाँ पर इतनी हरियाली तो नहीं है, जैसा आप ने बताया था। सुन कर दुख होता है कि पेड़ कम हो गये हैं। लेकिन यहाँ ऐसा कभी नहीं होगा। हमारे पूर्वज पेड़ों का महत्व समझते थे। जहाँ हम खड़े थे वहाँ मेला लगता है। मंदिर है और पास में ही एक बोर्ड लगा था जिस पर कन्नड में कुछ लिखा था और दो शब्द इंगलिश के थे "सैक्रेड ग्रोव". उस स्थान से कोई भी पेड़ तो क्या टहनी भी नहीं तोड़ता है। इतने में किसी ने अपना ज्ञान बघारा कि मरे हुए पेड़ की लकड़ियाँ तो ले जाते होंगे! जिसके जबाब में महेश हमें एक मरे पड़े के पास ले गये, जिसके तने पर कई वनस्पतियों का जन्म हुआ था। यह सब देख कर कुर्गी लोगो के प्रति मन श्रद्धा से भर गया। अब मैं पूरे विश्वास से सबसे कह सकती हूँ कि घने जंगलों को देखना है तो कूर्ग जायें।
कहते हैं न, जहाँ चाह, वहाँ राह। यात्रा संपन्न होने से पहले एक टहनी पर छोटे छोटे, खूबसूरत गहरे लाल रंग के छ काफी बीन्स नज़र आ गये। देख तो मैंने लिये थे बाकि लोग भी देख रहे थे। लेकिन मेरे तस्वीर लेने से पहले ही एक व्यक्ति ने झट से उन्हें तोड़ कर मसल दिया और सूंघते हुए बोले,’’हाँ, देखो!मेरी अंगुलियों से कॉफी की महक भी आ रही है।’’किसी को भी उनकी अंगुलियाँ सूंघने का शौक नहीं था। वो स्वयं ही अपनी अंगुलियाँ सूंघ कर खुश होते रहे। लेकिन मैं मन ही मन क्रोधित होती रही। बे मौसम के फल हमें देखने को मिले, अगर वे तोड़े न जाते तो, कुछ दिन और पौधों की शोभा बढ़ाते। हमारे जैसे और भी लोग आते, उन्हें देखते और उन्हें तस्वीरों में कैद कर लेते। लेकिन उनकी वजह से ऐसा नहीं हुआ। एक दीवार पर बहुत प्यारा फूल था, नाम मुझे याद नहीं आ रहा है लेकिन उसकी तस्वीर मैंने ले ली थी। आप भी चित्र देख सकते हैं। अब हमारी यात्रा को विश्राम मिला। जैसे ही मैंने ज़़ुराबे उतारी, मेरे पैरों में मोटे मोटे छाले थे। पर वे फूटे नहीं थे। विस्मय विमुग्ध करने वाली इस यात्रा में मुझे दर्द महसूस ही नहीं हुआ। अब मेरे फफोले र्दद कर रहे थे। अगले दिन सुबह सात बजे हमें निशानी जाना था। मैंने महेश से पूछा कि कल मैं निशानी चप्पलों में जा सकती हूँ। वो बोले,’’नहीं।’’मैं अपने साथ कॉटन की मोटी जुराबे और दो तीन जोड़ी "पेवर इंग्लैंण्ड" की चप्पलें अपने पैरों को सूट करती हुई रखती हूँ। और जहाँ भी जाती हूँ, वहाँ खूब घूमती हूँ। अब मुझे अपने आप पर गुस्सा आ रहा था कि मुझे अपने पैरों के बारे में पता है इसलिये अपनी जुराबें साथ ले कर जाना चाहिये था। विला में लौटते ही उत्कर्षिणी राजीव का ध्यान मेरे पैरों पर गया। दोनों का एक ही प्रश्न," ऐसे पैरों से, चलीं कैसे!!" जवाब,’’प्राकृतिक सौन्दर्य।’’उत्कर्षिणी ने मुझे गर्मागर्म कॉफ़ी दी। पता नहीं क्यों मुझे आज कॉफी का स्वाद विशेष लगा।
क्रमशः
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