चलते चलते रास्ते में जब पानी खत्म हो जाता, मैं डर जाती कि अब तो मेरी मौत प्यास से ही होगी, तो पानी मिल जाता। हम आबशार भर लेते। जो लौट रहे थे, उनके चेहरे पर थकान की जगह खुशी थी। वे जाने वालों को कहते,’’बमबम भोले।’’इधर से जवाब मिलता’’हर हर महादेव।" मैं समझी कि चढ़ाई से घबरा कर ये बिना दर्शन किये लौट रहे हैं इसलिये मैंने एक श्रद्धालु को पूछा,’’आप क्यों लौट रहे हो?’’वो बोला,’’हम कल वहीं रूक गये थे न. वो इसलिए कि बाबा के सुबह भी दर्शन करके जायेंगे।’’जय भोले कहता हुआ वो चल पड़ा। अब मुझे अच्छा लगा कि पास ही होगा, जो लोग जाकर लौट रहें हैं। हमारी बस का कोई न कोई साथी, मेरे लिये रूक जाता। पीछे से आने वाला कोई न कोई श्रद्धालू कुछ दूरी तक, मेरे साथ बतियाते हुए चलता फिर मेरी स्पीड देखकर आगे बढ़ जाता, तब तक कोई और पीछे से आ जाता। एक लौटने वाले ने मुझे अपनी डण्डी दे दी और स्वयं दूसरी टहनी तोड़ ली। अब मेरे लिये चलना आसान हो गया। चलते चलते एक जगह बाबा ने कढ़ी चावल का भण्डारा लगा रक्खा था। जब हम वहाँ पहुँचे तो खानदान कढ़ी चावल खा चुका था, पानी पी कर वे खुशी खुशी मुझे ’जय भोले’ बोल कर चल दिया। मन किया कि उनसे पूँछू कि जब मैंने पूछा था बाबा कहाँ हैं? तुमने कहा था," वहाँ। अरे कहाँ है? तुम्हारा वहाँं।" मैं बेहाल सी खड़ी थी। जो महाराज भण्डारा चलाते हैं, उन्होंने मुझे बहुत स्नेह से कहा,’’बैठो, कढ़ी चावल खाओ।’’ मैं उनके पास बैठ गई। कढ़ी चावल मुझे बहुत पसंद हैं पर मैं बोली,’’नहीं खाऊँगी।’’वे बोले,’’अच्छा, तो पानी पी लो।" ठण्डा, स्वाद पानी मैंने खूब पिया। वे मुझे चुपचाप देखते रहे। फिर बोले,’’प्रशाद ले लो।’’ एक कौर से कम कढ़ी चावल माथे से लगा कर, मुंह में रक्खे। अब मैं रूआंसी सी बोली,’’महाराज, अपने आपको यहाँ तक लाने में ,मेरा बुरा हाल हो गया और आप इतनी ऊँचाई पर भण्डारा वितरित कर रहें हैं, मैं हैरान हूँ! कैसे समान लाते हैं? मैं इसलिये नहीं खा रही हूँ। हम अच्छी तरह नाश्ता करके चले हैं। जिन्हें इस समय इसकी आवश्यकता है, वे इसका आनन्द उठा ही रहें हैं।’’जवाब में महाराज ने आकाश की ओर इशारा करके हाथ जोड़ दिये। अब मैने पूछा,’’महाराज, नीलकंठ महादेव कब पहुँचेंगे? सच सच बताना, वहाँ की तरह इशारा मत करना।" सुनकर महाराज मुस्कुराये और बोले,’’जिस चाल से तुम चलती आ रही हो यानि कछुए जैसी, उससे तुम तीन बजे तक पहुँच जाओगी।’’मैंने घड़ी देखी, उस समय पौने ग्यारह बजे थे। मेरा जी किया कि मैं बुक्का फाड़ के रोऊं। महाराज बोले,’’घर लौट कर इस यात्रा को याद करके तुम्हें बहुत खुशी मिलेगी।’’ उन्हें प्रणाम करके डण्डा पकड़ के मैं चल दी। अब मैंने घड़ी देखना बंद कर दिया। बस चलती जा रही थी, अचानक पानी खत्म हो गया। मैं तो पानी पी पी कर ही चल रही थी। यहाँ जंगल में कहाँ पानी? अब ये सोच कर चल पड़ी, जब तक चला जायेगा, चलूँगी पर प्यासी नहीं मरूँगी। यहाँ से गंगा जी में कूद कर ठंडा ठंडा गंगाजल पी कर ही स्वर्ग जाऊँगी और मैं विस्मय विमुग्ध सी प्राकृतिक सौन्दर्य को निहारने लगी। बच्चे आगे चल रहे थे। शायद मेरे लिये पानी की खोज में, उत्तकर्षिनी सबसे आगे चल रही थी। दूर से चिल्ला कर बोली,’’माँ पानी मिल गया है।’’सब पानी की जगह पहुँच कर, बैठ कर मेरा इंतजार करने लगे। मैं भी अपने आप को लेकर, वहाँ पहुँचते ही धम्म से बैठ गई। वहाँ एक चट्टान से फैलता हुआ थोड़ा थोड़ा पानी आ रहा था। जिस पर किसी ने एक पत्ता चिपका दिया था। पत्ते की नोक से पानी की तेज बूँदों ने एक पतली धार की शक्ल अख्तियार करली थी। हमारा आबशार भर रहा था। थोड़ा पानी इक्ट्ठा होते ही हम पी लेते, सबके पीने के बाद, पानी भर कर हमने चलना था। मैने बैग में हाथ डाला, उसमें अम्मा का दिया डिब्बा था। खोला उसमें हलुआ!!! उस समय उस हलुए के स्वाद का मैं वर्णन नहीं कर सकती, परम्परा के हलुए ने मेरे अदंर जान डाल दी। मैं सबसे पहले चल पड़ी। बाकि बैठे रहे पानी भरने के इंतजार में। उस समय मुझे पता नहीं था कि मैं वापिस लौटूँगी और कभी इस यात्रा को लिखूँगी। वर्ना मैं उन सब सहयोगी साथियों के नाम और शहर के नाम, उनकी बताई बातों के साथ शामिल करती। एक आदमी मेरे साथ बतियाते हुए चल रहा था, उसने बताया कि वह घूमने का बहुत शौकीन है। पैसा बचाते हुए, घूमने का मजा ही कुछ और है। वह अपनी आमदनी का पाँच प्रतिशत घूमने में खर्च करता है। उसने बताया कि वह एक बार ऐसे गाँव में पहुँचा, जहाँ घरों में दरवाजे तो थे पर उनमें ताले लगाने के प्रोविज़न ही नहीं थे। लोगों में बड़ा मेल जोल था। कभी वहाँ चोरी की घटना ही नहीं हुई। वो भी तेज तेज मुझे छोड़ के चल पड़ा, जब पीछे से आकर एक व्यक्ति ने मुझे पैदल चलने के फायदे समझाने शुरू किये तब। इस समय मुझे उसके उपदेश जहर बराबर लग रहे थे। मेरी कछुआ चाल सबको मेरा साथ छोड़ने को मजबूर कर रही थी। क्रमशः
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Monday, 7 November 2016
अभी कितनी दूर है!! नीलकंठ महादेव की यात्रा ने मेरी ज़िन्दगी बदली भाग 2 Abhi Kitani Door hai, Neelkanth Mahadev ke Yatra ne mere Zindagi Badali Neelam Bhagi Part 2 Neelkanth Yatra Uttrakhand भाग 2 नीलम भागी
चलते चलते रास्ते में जब पानी खत्म हो जाता, मैं डर जाती कि अब तो मेरी मौत प्यास से ही होगी, तो पानी मिल जाता। हम आबशार भर लेते। जो लौट रहे थे, उनके चेहरे पर थकान की जगह खुशी थी। वे जाने वालों को कहते,’’बमबम भोले।’’इधर से जवाब मिलता’’हर हर महादेव।" मैं समझी कि चढ़ाई से घबरा कर ये बिना दर्शन किये लौट रहे हैं इसलिये मैंने एक श्रद्धालु को पूछा,’’आप क्यों लौट रहे हो?’’वो बोला,’’हम कल वहीं रूक गये थे न. वो इसलिए कि बाबा के सुबह भी दर्शन करके जायेंगे।’’जय भोले कहता हुआ वो चल पड़ा। अब मुझे अच्छा लगा कि पास ही होगा, जो लोग जाकर लौट रहें हैं। हमारी बस का कोई न कोई साथी, मेरे लिये रूक जाता। पीछे से आने वाला कोई न कोई श्रद्धालू कुछ दूरी तक, मेरे साथ बतियाते हुए चलता फिर मेरी स्पीड देखकर आगे बढ़ जाता, तब तक कोई और पीछे से आ जाता। एक लौटने वाले ने मुझे अपनी डण्डी दे दी और स्वयं दूसरी टहनी तोड़ ली। अब मेरे लिये चलना आसान हो गया। चलते चलते एक जगह बाबा ने कढ़ी चावल का भण्डारा लगा रक्खा था। जब हम वहाँ पहुँचे तो खानदान कढ़ी चावल खा चुका था, पानी पी कर वे खुशी खुशी मुझे ’जय भोले’ बोल कर चल दिया। मन किया कि उनसे पूँछू कि जब मैंने पूछा था बाबा कहाँ हैं? तुमने कहा था," वहाँ। अरे कहाँ है? तुम्हारा वहाँं।" मैं बेहाल सी खड़ी थी। जो महाराज भण्डारा चलाते हैं, उन्होंने मुझे बहुत स्नेह से कहा,’’बैठो, कढ़ी चावल खाओ।’’ मैं उनके पास बैठ गई। कढ़ी चावल मुझे बहुत पसंद हैं पर मैं बोली,’’नहीं खाऊँगी।’’वे बोले,’’अच्छा, तो पानी पी लो।" ठण्डा, स्वाद पानी मैंने खूब पिया। वे मुझे चुपचाप देखते रहे। फिर बोले,’’प्रशाद ले लो।’’ एक कौर से कम कढ़ी चावल माथे से लगा कर, मुंह में रक्खे। अब मैं रूआंसी सी बोली,’’महाराज, अपने आपको यहाँ तक लाने में ,मेरा बुरा हाल हो गया और आप इतनी ऊँचाई पर भण्डारा वितरित कर रहें हैं, मैं हैरान हूँ! कैसे समान लाते हैं? मैं इसलिये नहीं खा रही हूँ। हम अच्छी तरह नाश्ता करके चले हैं। जिन्हें इस समय इसकी आवश्यकता है, वे इसका आनन्द उठा ही रहें हैं।’’जवाब में महाराज ने आकाश की ओर इशारा करके हाथ जोड़ दिये। अब मैने पूछा,’’महाराज, नीलकंठ महादेव कब पहुँचेंगे? सच सच बताना, वहाँ की तरह इशारा मत करना।" सुनकर महाराज मुस्कुराये और बोले,’’जिस चाल से तुम चलती आ रही हो यानि कछुए जैसी, उससे तुम तीन बजे तक पहुँच जाओगी।’’मैंने घड़ी देखी, उस समय पौने ग्यारह बजे थे। मेरा जी किया कि मैं बुक्का फाड़ के रोऊं। महाराज बोले,’’घर लौट कर इस यात्रा को याद करके तुम्हें बहुत खुशी मिलेगी।’’ उन्हें प्रणाम करके डण्डा पकड़ के मैं चल दी। अब मैंने घड़ी देखना बंद कर दिया। बस चलती जा रही थी, अचानक पानी खत्म हो गया। मैं तो पानी पी पी कर ही चल रही थी। यहाँ जंगल में कहाँ पानी? अब ये सोच कर चल पड़ी, जब तक चला जायेगा, चलूँगी पर प्यासी नहीं मरूँगी। यहाँ से गंगा जी में कूद कर ठंडा ठंडा गंगाजल पी कर ही स्वर्ग जाऊँगी और मैं विस्मय विमुग्ध सी प्राकृतिक सौन्दर्य को निहारने लगी। बच्चे आगे चल रहे थे। शायद मेरे लिये पानी की खोज में, उत्तकर्षिनी सबसे आगे चल रही थी। दूर से चिल्ला कर बोली,’’माँ पानी मिल गया है।’’सब पानी की जगह पहुँच कर, बैठ कर मेरा इंतजार करने लगे। मैं भी अपने आप को लेकर, वहाँ पहुँचते ही धम्म से बैठ गई। वहाँ एक चट्टान से फैलता हुआ थोड़ा थोड़ा पानी आ रहा था। जिस पर किसी ने एक पत्ता चिपका दिया था। पत्ते की नोक से पानी की तेज बूँदों ने एक पतली धार की शक्ल अख्तियार करली थी। हमारा आबशार भर रहा था। थोड़ा पानी इक्ट्ठा होते ही हम पी लेते, सबके पीने के बाद, पानी भर कर हमने चलना था। मैने बैग में हाथ डाला, उसमें अम्मा का दिया डिब्बा था। खोला उसमें हलुआ!!! उस समय उस हलुए के स्वाद का मैं वर्णन नहीं कर सकती, परम्परा के हलुए ने मेरे अदंर जान डाल दी। मैं सबसे पहले चल पड़ी। बाकि बैठे रहे पानी भरने के इंतजार में। उस समय मुझे पता नहीं था कि मैं वापिस लौटूँगी और कभी इस यात्रा को लिखूँगी। वर्ना मैं उन सब सहयोगी साथियों के नाम और शहर के नाम, उनकी बताई बातों के साथ शामिल करती। एक आदमी मेरे साथ बतियाते हुए चल रहा था, उसने बताया कि वह घूमने का बहुत शौकीन है। पैसा बचाते हुए, घूमने का मजा ही कुछ और है। वह अपनी आमदनी का पाँच प्रतिशत घूमने में खर्च करता है। उसने बताया कि वह एक बार ऐसे गाँव में पहुँचा, जहाँ घरों में दरवाजे तो थे पर उनमें ताले लगाने के प्रोविज़न ही नहीं थे। लोगों में बड़ा मेल जोल था। कभी वहाँ चोरी की घटना ही नहीं हुई। वो भी तेज तेज मुझे छोड़ के चल पड़ा, जब पीछे से आकर एक व्यक्ति ने मुझे पैदल चलने के फायदे समझाने शुरू किये तब। इस समय मुझे उसके उपदेश जहर बराबर लग रहे थे। मेरी कछुआ चाल सबको मेरा साथ छोड़ने को मजबूर कर रही थी। क्रमशः
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6 comments:
बहुत खूब, आप बीती यात्रा वृतांत । जय भोले की
हार्दिक आभार
नीलम जी सादर नमन!
आपकी लेखनी से लिखे नीलकंठ यात्रा के संस्मरण अर्थात आपकी भाषा में कहूँ तो "कहानी'' के चारों भागों को पढ़कर अतीव प्रसन्नता का भास हुआ ।
नीलकंठ यात्रा का हमारे हिन्दू समाज में विशेष महत्व है, यह वह स्थल है कि जहाँ पर भगवान शिव ने विषपान किया था, इस विष को समस्त शरीर में प्रवेश करने से रोकने हेतु माता शिवशक्ति ने उनके कंठ को दबाया, जिससे विष उनके कंठ में रुक गया तो भगवान शिव का नाम नीलकंठ पड़ गया । इसलिए इस स्थान का नाम भी नीलकंठ धाम पड़ गया ।
खैर, बात करते हैं आपकी पवित्र एवं आस्था से परिपूर्ण यात्रा की, जिसका अनायास ही बना कार्यक्रम एक ऐसी मान्यता की और संकेत करता है कि "जब भगवान का बुलावा आता है, तब ही मानव उनके धाम पर एक कठिन एवं आस्थामय यात्रा पैदल अथवा किसी वाहन द्वारा पहुंचता है'', आपके साथ भी शायद ऐसा ही हुआ । आपके बच्चे व आपकी मित्र नीलकंठ यात्रा का एक कारण बने, आपके न चाहते हुए भी आप यात्रा पर निकल गए ।
आपकी यात्रा में आपको अनेक कठिनाइयों बाद भी आपने अपनी यात्रा पूर्ण की । इसके पीछे शायद उस परमपिता की विशेष शक्ति ही कोई प्रभाव रहा कि आप भारी शरीर के निर्बल होने की ग्लानि, विवशता के कारण स्वयं को अपने गंतव्य से दूर समझती रही, परन्तु एक समय ऐसा आया की आपको आत्म विश्वास, आत्म शक्ति व स्वस्थ्य मष्तिस्क और स्फूर्ति का आभास हुआ ।
न
आपकी नीलकंठ यात्रा का एक कठिनाइयों के बाद सम्पूर्ण हुई, बाबा भोले नाथ के दर्शन हुए, जो आत्मबल व स्वास्थ्य एवं संसार के प्रति चेतन्यता आपको प्राप्त हुई, जीवन आपने उसकी आशा भी नहीं की होगी, और उस यात्रा से आपको जो मिला, उसने आपके जीवन की शैली में परिवर्तन आ गया ।
आज आप उसी परमशक्ति के आशीर्वाद से स्वस्थ्य एवं प्रसन्नचित्त है ।
उक्त संस्मरण अथवा कहानी के स्वस्थ्य लेखन हेतु हार्दिक बधाई एवं शुभ आशीर्वाद ।
पवन शर्मा परमार्थी, कवि-लेखक, मो 9911466020, 9354004140, दिल्ली
हार्दिक आभार सर
Its 7:58 am .I saw your Post and can't stop myself to go through .very nicely written
हार्दिक आभार, धन्यवाद
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