उतरना सबके लिये आसान था पर मेरे जैसी मोटी के लिये और भी मुश्किल साबित हो रहा था। अब मैं दो डण्डियों की सहायता बड़ी सावधानी से उतर रही थी। जरा सी असावधानी के कारण मैं फुटबॉल की तरह लुड़क सकती थी। खैर चार बजे मैं मंदिर में पहुँच गई। वहाँ एक झरना था। श्रद्धालु वहाँ दर्शन से पहले स्नान कर रहे थे। मंदिर की दिवारों पर संमुद्र मंथन के दृश्य उकेरे हुए थे। बहुत नजदीक से दर्शन हुए। वहाँ धूनी जल रही थी। दर्शनार्थियों की आस्था थी शायद, जिसके प्रभाव से एक अलग सा भाव पैदा हो रहा था जिसे मैं लिखने में असमर्थ हूँ। मेरी आँखों से टपटप पानी बह रहा था। मैंने बाबा से एक ही प्रार्थना की बाबा मैं ठीक से अपने घर पहुँच जाऊँ। प्रशाद में मुझे भभूत मिली, जिसे मैंने सहेज कर रख लिया। बाहर आते ही खानदान ने मुझ पर प्रश्न दागा,’’दीदी, आप हमारे साथ पैदल चलेंगी या टैक्सी से आयेंगी।’’ टैक्सी सुनते ही मैं खुशी से उछल पड़ी। उन्हें धन्यवाद किया। अब तक अर्जुन को जैसे चिडि़या की आँख नज़र आ रही थी, वैसे ही मुझे अब तक केवल बाबा के दर्शन ही दिख रहे थे। जैसे ही मैंने आस पास देखा वहाँ तो लोग टैक्सियों से आ रहे थे। अब मुझे खानदान पर बहुत गुस्सा आया। पहले बता नहीं सकते थे कि टैक्सी से जाया जा सकता है। मैं मर जाती तो!! तुरंत मेरी सोच बदली कि मरी तो नहीं न। नासमझी से ही मेरे अंदर आज आत्मविश्वास आ गया कि मैं 11 किलोमीटर की कठिन चढ़ाई कर सकती हूँ। अब मुझे उन पर गुस्सा नहीं आ रहा था। पर उस समय मेरी हालत ऐसी थी कि मैं एक कदम भी नहीं बढ़ा सकती थी। तब टैक्सी का किराया 35रू था। जिस भी टैक्सी वाले से बात की वो बोलता कि टैक्सी आने जाने के लिये है। हम जिन्हें लाते हैं, उन्हें ही लेकर जाते हैं। मैं उसे दोनों समय का किराया देने को तैयार थी। पर कोई राजी नहीं हो रहा था। बड़ी समस्या! इतने में एक टैक्सी रूकी उसमें से सवारियाँ उतरी, मैं झट से उसमें बैठ गई। सातों किसी तरह उसमें एडजस्ट हो गये। टैक्सी वाला बोला,’’उतरो।’’ मैं बोली,’’मेरे में गंगा जी में छलांग लगाने की भी हिम्मत नहीं हैं। मैं तुम्हें दुगने पैसे दूँगी। चलो या मुझे उठा कर गंगा जी में फेंक दो।’’ उतरने वाली सवारियाँ बोली,’’छोड़ आओ भइया, हम तुम्हारा इंतजार कर लेंगे।’’वह हमें लेकर चल पड़ा। ये रास्ता तो मेरी आँखों में बस गया। एक ओर गंगा की धारा अठखेलियाँ करती चल रही है और दूसरी ओर हरे भरे पहाड़। सबकी आँखे बाहर टिकी हुई थीं, कोई कुछ नहीं बोल रहा था। हम विस्मय विमुग्ध से बैठे थे। गाड़ी चलती जा रही थी। अचानक, उतरो, सुनते ही हमारी तंद्रा टूटी। एक घण्टा तो पलक झपकते ही बीत गया। उतरे, किराया चुकाया। गंगा जी के ठंडे पानी में पैर लटका कर बैठ गये। सारी थकान हमारी गंगा माँ ने चूस ली। पास के रैस्टोरैंट में खाया पिया। तब तक खानदान भी आ गया। मैंने पूछा,’’पैदल इतनी जल्दी!! सबने कोरस में जवाब दिया। उतरना आसान होता है न। नौ बजे हमारी बस हरिद्वार के लिये रवाना होनी थी। तब तक हम आस पास के दर्शनीय स्थानों त्रिवेणी घाट, अयप्पा मंदिर, भारत मंदिर, स्वर्ग आश्रम, गीता भवन, योग केन्द्र, राम झूला आदि के दर्शन किये। गंगा जी के किनारे सूर्या अस्त का नज़ारा देखा। गंगा जी की आरती में शामिल होना, अपना सौभाग्य लगा। आरती संपन्न हो गई। मैं अपने आप में इतनी खुश थी कि वर्णन नहीं कर सकती। इस खुशी का कारण था। नीलकंठ की यात्रा के बाद, मैं इन सभी दर्शनीय स्थानों पर पैदल पैदल घूमी और मुझे थकान नहीं थी। इस यात्रा ने तो जीवन भर के लिये मेरी जीवन शैली बदल दी। क्रमशः
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Wednesday, 30 November 2016
ऋषिकेश, नीलकंठ महादेव की यात्रा ने मेरी ज़िन्दगी बदली और& Rishikesh Neelkanth Mahadev ke Yatra ne mere Zindagi Badali Part 4 Neelam Bhagi यात्रा भाग 4 नीलम भागी नीलम भागी
उतरना सबके लिये आसान था पर मेरे जैसी मोटी के लिये और भी मुश्किल साबित हो रहा था। अब मैं दो डण्डियों की सहायता बड़ी सावधानी से उतर रही थी। जरा सी असावधानी के कारण मैं फुटबॉल की तरह लुड़क सकती थी। खैर चार बजे मैं मंदिर में पहुँच गई। वहाँ एक झरना था। श्रद्धालु वहाँ दर्शन से पहले स्नान कर रहे थे। मंदिर की दिवारों पर संमुद्र मंथन के दृश्य उकेरे हुए थे। बहुत नजदीक से दर्शन हुए। वहाँ धूनी जल रही थी। दर्शनार्थियों की आस्था थी शायद, जिसके प्रभाव से एक अलग सा भाव पैदा हो रहा था जिसे मैं लिखने में असमर्थ हूँ। मेरी आँखों से टपटप पानी बह रहा था। मैंने बाबा से एक ही प्रार्थना की बाबा मैं ठीक से अपने घर पहुँच जाऊँ। प्रशाद में मुझे भभूत मिली, जिसे मैंने सहेज कर रख लिया। बाहर आते ही खानदान ने मुझ पर प्रश्न दागा,’’दीदी, आप हमारे साथ पैदल चलेंगी या टैक्सी से आयेंगी।’’ टैक्सी सुनते ही मैं खुशी से उछल पड़ी। उन्हें धन्यवाद किया। अब तक अर्जुन को जैसे चिडि़या की आँख नज़र आ रही थी, वैसे ही मुझे अब तक केवल बाबा के दर्शन ही दिख रहे थे। जैसे ही मैंने आस पास देखा वहाँ तो लोग टैक्सियों से आ रहे थे। अब मुझे खानदान पर बहुत गुस्सा आया। पहले बता नहीं सकते थे कि टैक्सी से जाया जा सकता है। मैं मर जाती तो!! तुरंत मेरी सोच बदली कि मरी तो नहीं न। नासमझी से ही मेरे अंदर आज आत्मविश्वास आ गया कि मैं 11 किलोमीटर की कठिन चढ़ाई कर सकती हूँ। अब मुझे उन पर गुस्सा नहीं आ रहा था। पर उस समय मेरी हालत ऐसी थी कि मैं एक कदम भी नहीं बढ़ा सकती थी। तब टैक्सी का किराया 35रू था। जिस भी टैक्सी वाले से बात की वो बोलता कि टैक्सी आने जाने के लिये है। हम जिन्हें लाते हैं, उन्हें ही लेकर जाते हैं। मैं उसे दोनों समय का किराया देने को तैयार थी। पर कोई राजी नहीं हो रहा था। बड़ी समस्या! इतने में एक टैक्सी रूकी उसमें से सवारियाँ उतरी, मैं झट से उसमें बैठ गई। सातों किसी तरह उसमें एडजस्ट हो गये। टैक्सी वाला बोला,’’उतरो।’’ मैं बोली,’’मेरे में गंगा जी में छलांग लगाने की भी हिम्मत नहीं हैं। मैं तुम्हें दुगने पैसे दूँगी। चलो या मुझे उठा कर गंगा जी में फेंक दो।’’ उतरने वाली सवारियाँ बोली,’’छोड़ आओ भइया, हम तुम्हारा इंतजार कर लेंगे।’’वह हमें लेकर चल पड़ा। ये रास्ता तो मेरी आँखों में बस गया। एक ओर गंगा की धारा अठखेलियाँ करती चल रही है और दूसरी ओर हरे भरे पहाड़। सबकी आँखे बाहर टिकी हुई थीं, कोई कुछ नहीं बोल रहा था। हम विस्मय विमुग्ध से बैठे थे। गाड़ी चलती जा रही थी। अचानक, उतरो, सुनते ही हमारी तंद्रा टूटी। एक घण्टा तो पलक झपकते ही बीत गया। उतरे, किराया चुकाया। गंगा जी के ठंडे पानी में पैर लटका कर बैठ गये। सारी थकान हमारी गंगा माँ ने चूस ली। पास के रैस्टोरैंट में खाया पिया। तब तक खानदान भी आ गया। मैंने पूछा,’’पैदल इतनी जल्दी!! सबने कोरस में जवाब दिया। उतरना आसान होता है न। नौ बजे हमारी बस हरिद्वार के लिये रवाना होनी थी। तब तक हम आस पास के दर्शनीय स्थानों त्रिवेणी घाट, अयप्पा मंदिर, भारत मंदिर, स्वर्ग आश्रम, गीता भवन, योग केन्द्र, राम झूला आदि के दर्शन किये। गंगा जी के किनारे सूर्या अस्त का नज़ारा देखा। गंगा जी की आरती में शामिल होना, अपना सौभाग्य लगा। आरती संपन्न हो गई। मैं अपने आप में इतनी खुश थी कि वर्णन नहीं कर सकती। इस खुशी का कारण था। नीलकंठ की यात्रा के बाद, मैं इन सभी दर्शनीय स्थानों पर पैदल पैदल घूमी और मुझे थकान नहीं थी। इस यात्रा ने तो जीवन भर के लिये मेरी जीवन शैली बदल दी। क्रमशः
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14 comments:
Bahut sunder
बहुत अच्छा।
धन्यवाद श्वेता
धन्यवाद जी
जय महादेव बहुत अच्छा लिखा है।नीलकंठ के बारे में।
dhanyvad
नीलम जी सादर नमन!
आपकी लेखनी से लिखे नीलकंठ यात्रा के संस्मरण अर्थात आपकी भाषा में कहूँ तो "कहानी'' के चारों भागों को पढ़कर अतीव प्रसन्नता का भास हुआ ।
नीलकंठ यात्रा का हमारे हिन्दू समाज में विशेष महत्व है, यह वह स्थल है कि जहाँ पर भगवान शिव ने विषपान किया था, इस विष को समस्त शरीर में प्रवेश करने से रोकने हेतु माता शिवशक्ति ने उनके कंठ को दबाया, जिससे विष उनके कंठ में रुक गया तो भगवान शिव का नाम नीलकंठ पड़ गया । इसलिए इस स्थान का नाम भी नीलकंठ धाम पड़ गया ।
खैर, बात करते हैं आपकी पवित्र एवं आस्था से परिपूर्ण यात्रा की, जिसका अनायास ही बना कार्यक्रम एक ऐसी मान्यता की और संकेत करता है कि "जब भगवान का बुलावा आता है, तब ही मानव उनके धाम पर एक कठिन एवं आस्थामय यात्रा पैदल अथवा किसी वाहन द्वारा पहुंचता है'', आपके साथ भी शायद ऐसा ही हुआ । आपके बच्चे व आपकी मित्र नीलकंठ यात्रा का एक कारण बने, आपके न चाहते हुए भी आप यात्रा पर निकल गए ।
आपकी यात्रा में आपको अनेक कठिनाइयों बाद भी आपने अपनी यात्रा पूर्ण की । इसके पीछे शायद उस परमपिता की विशेष शक्ति ही कोई प्रभाव रहा कि आप भारी शरीर के निर्बल होने की ग्लानि, विवशता के कारण स्वयं को अपने गंतव्य से दूर समझती रही, परन्तु एक समय ऐसा आया की आपको आत्म विश्वास, आत्म शक्ति व स्वस्थ्य मष्तिस्क और स्फूर्ति का आभास हुआ ।
न
आपकी नीलकंठ यात्रा का एक कठिनाइयों के बाद सम्पूर्ण हुई, बाबा भोले नाथ के दर्शन हुए, जो आत्मबल व स्वास्थ्य एवं संसार के प्रति चेतन्यता आपको प्राप्त हुई, जीवन आपने उसकी आशा भी नहीं की होगी, और उस यात्रा से आपको जो मिला, उसने आपके जीवन की शैली में परिवर्तन आ गया ।
आज आप उसी परमशक्ति के आशीर्वाद से स्वस्थ्य एवं प्रसन्नचित्त है ।
उक्त संस्मरण अथवा कहानी के स्वस्थ्य लेखन हेतु हार्दिक बधाई एवं शुभ आशीर्वाद ।
पवन शर्मा परमार्थी, कवि-लेखक, मो 9911466020, 9354004140, दिल्ली
हार्दिक आभार सर
हार्दिक आभार सर
नीलम जी सादर नमन!
आपकी लेखनी से लिखे नीलकंठ यात्रा के संस्मरण अर्थात आपकी भाषा में कहूँ तो "कहानी'' के चारों भागों को पढ़कर अतीव प्रसन्नता का भास हुआ ।
नीलकंठ यात्रा का हमारे हिन्दू समाज में विशेष महत्व है, यह वह स्थल है कि जहाँ पर भगवान शिव ने विषपान किया था, इस विष को समस्त शरीर में प्रवेश करने से रोकने हेतु माता शिवशक्ति ने उनके कंठ को दबाया, जिससे विष उनके कंठ में रुक गया तो भगवान शिव का नाम नीलकंठ पड़ गया । इसलिए इस स्थान का नाम भी नीलकंठ धाम पड़ गया ।
खैर, बात करते हैं आपकी पवित्र एवं आस्था से परिपूर्ण यात्रा की, जिसका अनायास ही बना कार्यक्रम एक ऐसी मान्यता की और संकेत करता है कि "जब भगवान का बुलावा आता है, तब ही मानव उनके धाम पर एक कठिन एवं आस्थामय यात्रा पैदल अथवा किसी वाहन द्वारा पहुंचता है'', आपके साथ भी शायद ऐसा ही हुआ । आपके बच्चे व आपकी मित्र नीलकंठ यात्रा का एक कारण बने, आपके न चाहते हुए भी आप यात्रा पर निकल गए ।
आपकी यात्रा में आपको अनेक कठिनाइयों बाद भी आपने अपनी यात्रा पूर्ण की । इसके पीछे शायद उस परमपिता की विशेष शक्ति ही कोई प्रभाव रहा कि आप भारी शरीर के निर्बल होने की ग्लानि, विवशता के कारण स्वयं को अपने गंतव्य से दूर समझती रही, परन्तु एक समय ऐसा आया की आपको आत्म विश्वास, आत्म शक्ति व स्वस्थ्य मष्तिस्क और स्फूर्ति का आभास हुआ ।
न
आपकी नीलकंठ यात्रा का एक कठिनाइयों के बाद सम्पूर्ण हुई, बाबा भोले नाथ के दर्शन हुए, जो आत्मबल व स्वास्थ्य एवं संसार के प्रति चेतन्यता आपको प्राप्त हुई, जीवन आपने उसकी आशा भी नहीं की होगी, और उस यात्रा से आपको जो मिला, उसने आपके जीवन की शैली में परिवर्तन आ गया ।
आज आप उसी परमशक्ति के आशीर्वाद से स्वस्थ्य एवं प्रसन्नचित्त है ।
उक्त संस्मरण अथवा कहानी के स्वस्थ्य लेखन हेतु हार्दिक बधाई एवं शुभ आशीर्वाद ।
पवन शर्मा परमार्थी, कवि-लेखक, मो 9911466020, 9354004140, दिल्ली
दीदी बहोत बढीया ,
मै भी मोटा हुं और इस कहानी ने मुझे आईना दिखा दिया...
BAHUT BADIA HAI , JAI HO.
Hardik dhanyvad
हार्दिक धन्यवाद
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