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Sunday 20 November 2016

अचानक, नीलकण्ठ महादेव की यात्रा ने मेरी ज़िन्दगी बदली भाग 3 Achanak, Neelkanth Mahadev ke Yatra ne mere Zindagi Badali Neelam Bhagi Part 3 Uttrakhand भाग 3 Neelam Bhagi नीलम भागी



                                                        
दोनों बहने पीछे से आकर मुझसे आगे निकलने लगी, तो मैंने उन्हें रोका और कहा,’’मैं तो आज मर जाऊँगी, तुम मेरी बेटी उत्कर्षिणी को प्यार से पाल लोगी न।’’दोनो कोरस में बोलीं,’’चुपचाप, चलती रहो। अपनी बेटी को तुम्हीं पालोगी।’’और आगे निकल गई। कुछ लौटने वाले युवा मेरे पास से गुजरते हुए बोल जाते,’’दीदी, आप तो हर हफ्ते पैदल बाबा के दर्शन करने आया करो, एकदम स्लिम ट्रिम हो जाओगी।’’मैं उनके सुझाव पर हंस देती और मन ही मन कहती कि आज बचूंगी, तभी तो आऊँगी न। चलते चलते मेरे तेजी से पसीने छूटने लगे और आँखों के आगे अंधेरा छाने लगा। मैं बैठ गई। ऐसा चूने वाला पसीना मुझे कभी नहीं आया। एक श्रद्धालू मेरे पास आकर बैठ गया, उसने अपने बैग से थरमस निकाला और उसके ढक्कन में भर कर मुझे गर्म तेज मीठे की चाय दी। मैं चाय पीती जा रही थी और मेरी तबियत सुधरती जा रही थी। चाय खत्म होते ही उसने र्थमस पर ढक्कन लगाया और ये जा, वो जा, मैं तो उसे धन्यवाद भी नहीं कर सकी। अब मैं चलने लगी और साथ ही मेरे दिमाग में विचार भी चलने लगे।
मैं एक साधारण महिला हूं। हमेशा संयुक्त परिवार में रहीं हूं। परिवार के एक सदस्य से नाराज़ होती हूँ तो दूसरे से मेरी पटने लगती है। इसलिये मुझे बहुत सारे भगवान पसंद हैं। एक भगवान जी मेरी मनोकामना पूरी नहीं करते तो, मै उनसे नाराज होकर, दूसरे भगवान जी की शरण में चली जाती हूँ। उस दिन मैं बाबा से नाराज़ हो गई। मेरे साथ चलने वाले एक साधू से मैंने गुस्से से कहा कि नीलकंठ बाबा को क्या जरूरत थी, इतनी दूर आने की? जिसके जवाब में उन्होंने कहा कि समुद्र मंथन से जो कालकूट विष निकला, उसे भोले नाथ ने पी लिया, पार्वती जी ने उनका गला इस तरह दबाया कि विष गले में ही अटक गया, जिससे उनका विष के प्रभाव से कंठ नीला पड़ गया और उनका नाम नीलकंठ पड़ गया। कैलाश पर्वत पर जाने से पहले उनका यहीं वास था। विष के कारण उनका माथा भी गरम रहता था। जल चढ़ाना श्रद्धालुओं का उनके प्रति प्रेम है। फिर इशारे से कहा कि वो देखो, दूर देख रही थी, एक महिला हाथ में हंसली ले, एक पेड़ की शाखा पर छिपकली की तरह चिपकी हुई, दराती से पतली पतली टहनियाँ काट काट कर पीछे की ओर फैंकती जा रही थी और पीछे वाली कैच करती हुई, साथ आई बकरियों को डालती जा रही थी। मुझे देख कर ऐसा लगा कि अगर वो शाखा टूट जाती, तो नीचे खाई में उस महिला का मिलना मुश्किल था। तुरंत मेरे दिमाग में प्रश्न आया कि ये भी तो महिलाएँ हैं। बकरियों का पेट भर रहीं हैं और घर में इनको खिलाने के लिये गठृठर बाँध कर ले भी जायेंगी और घर जाकर गृहस्थी के काम भी निपटायेंगी। एक मैं हूँ, अपने आप को ले जाने में भी हाय! तोबा मचा रखी है। ऐसा क्यों? इस सबका कारण था मेरी सोच। मेरा मानना था कि इनसान कमाता किस लिये है? अपने आराम के लिये। इसलिये मुझे पानी का गिलास भी अपने आप लेकर पीना अच्छा नहीं लगता था। जरा सी दूरी भी मैं पैदल नहीं नापती थी। आज बहुत जल्दी जिसका परिणाम मुझे मिल रहा था और मेरी समझ में खूब अच्छी तरह आ रहा था कि कलम चलाने के साथ शरीर का चलना भी जरूरी है। मैंने मन ही मन तोबा कर ली कि भगवान जी, अगर घर लौट गई तो सबसे पहले शरीरिक श्रम से अपना स्टैमिना बढ़ाऊँगी। अब पता नहीं कहाँ से लंगूर आकर मेरे साथ चलने लगे। थोड़ी देर सुस्ताने के लिये बैठी, तो वो भी बैठ गये। मैं डर गई तो साधू महाराज बोले’’ ये किसी को कुछ नहीं कहते।’’ उठ कर थोड़ा सा चली तो उतराई शुरू हो गई। साधू महाराज ने समझाया कि आगे झुक कर नहीं उतरना। क्रमशः


8 comments:

Kishor se milen said...

बेहतरीन

janta ki khoj said...

V good

Neelam Bhagi said...

धन्यवाद जी

Unknown said...

Bahut khoob likhti Hein Neelam ji

Unknown said...

Interesting

Neelam Bhagi said...

धन्यवाद

Neelam Bhagi said...

नीलम जी सादर नमन!
आपकी लेखनी से लिखे नीलकंठ यात्रा के संस्मरण अर्थात आपकी भाषा में कहूँ तो "कहानी'' के चारों भागों को पढ़कर अतीव प्रसन्नता का भास हुआ ।

नीलकंठ यात्रा का हमारे हिन्दू समाज में विशेष महत्व है, यह वह स्थल है कि जहाँ पर भगवान शिव ने विषपान किया था, इस विष को समस्त शरीर में प्रवेश करने से रोकने हेतु माता शिवशक्ति ने उनके कंठ को दबाया, जिससे विष उनके कंठ में रुक गया तो भगवान शिव का नाम नीलकंठ पड़ गया । इसलिए इस स्थान का नाम भी नीलकंठ धाम पड़ गया ।

खैर, बात करते हैं आपकी पवित्र एवं आस्था से परिपूर्ण यात्रा की, जिसका अनायास ही बना कार्यक्रम एक ऐसी मान्यता की और संकेत करता है कि "जब भगवान का बुलावा आता है, तब ही मानव उनके धाम पर एक कठिन एवं आस्थामय यात्रा पैदल अथवा किसी वाहन द्वारा पहुंचता है'', आपके साथ भी शायद ऐसा ही हुआ । आपके बच्चे व आपकी मित्र नीलकंठ यात्रा का एक कारण बने, आपके न चाहते हुए भी आप यात्रा पर निकल गए ।

आपकी यात्रा में आपको अनेक कठिनाइयों बाद भी आपने अपनी यात्रा पूर्ण की । इसके पीछे शायद उस परमपिता की विशेष शक्ति ही कोई प्रभाव रहा कि आप भारी शरीर के निर्बल होने की ग्लानि, विवशता के कारण स्वयं को अपने गंतव्य से दूर समझती रही, परन्तु एक समय ऐसा आया की आपको आत्म विश्वास, आत्म शक्ति व स्वस्थ्य मष्तिस्क और स्फूर्ति का आभास हुआ ।


आपकी नीलकंठ यात्रा का एक कठिनाइयों के बाद सम्पूर्ण हुई, बाबा भोले नाथ के दर्शन हुए, जो आत्मबल व स्वास्थ्य एवं संसार के प्रति चेतन्यता आपको प्राप्त हुई, जीवन आपने उसकी आशा भी नहीं की होगी, और उस यात्रा से आपको जो मिला, उसने आपके जीवन की शैली में परिवर्तन आ गया ।

आज आप उसी परमशक्ति के आशीर्वाद से स्वस्थ्य एवं प्रसन्नचित्त है ।

उक्त संस्मरण अथवा कहानी के स्वस्थ्य लेखन हेतु हार्दिक बधाई एवं शुभ आशीर्वाद ।

पवन शर्मा परमार्थी, कवि-लेखक, मो 9911466020, 9354004140, दिल्ली

Neelam Bhagi said...

हार्दिक आभार सर