
हमें जब उसने हमें इ रिक्शा से उतारा तो मैं चारों ओर देख कर बोली,’’भइया यहां तो मंदिर दिखाई नहीं दे रहा है।’’ उसने जवाब दिया,’’ आगे पुलिस नहीं जाने देती, वो देखो पुलिस बैठी है। मैटल डिटैक्टर से जाओ, थोड़ी दूर पर मंदिर दिख जायेगा।’’अब पैदल चलते हुए वो हिसाब किताबी महिला बोली,’’ये रिक्शावाला शरीफ़ था, पहले वाला तो डाकू था, उसने तो हमें लूट लिया।’’ बदले में मैंने उसे एक यात्रा वृतांत्र सुनाया’,’’दक्षिण भारत और मुंबई आदि जानेवाली रेलगाड़ियां मथुरा होकर जाती हैं। एक बार रेल यात्रा के दौरान, मेरे साथ डॉ. शोभा भारद्वाज थी। कुछ महिलाएं बहुत चहकती हुई मथुरा वृंदावन जा रहीं थीं। डॉ शोभा को नसीहत देने का भूत सवार हो गया। वह उन महिलाओं से बोली,’’ यहां के पंडे बहुत लूटते हैं। चार चार कदम पे कोई न कोई मंदिर दिखा कर कहेंगे कि यहां राधा रानी के पैर पड़े थे, पैसे चढ़ाओ। यहां कन्हैया ने बंसी बजाई थी। माथा टेको। पैसा चढ़ाओ फिर....’’ उनमें से एक महिला ने बीच में टोक कर कहा,’’बहन जी, उस चोर, माखन चोर के साथी कैसे होंगे!! गिरहकट न। हम तो वहां लुटने ही जा रहें हैं।’’ एक ने जयकारा लगाया,’’बोलो माखन चोर कन्हैया की।’’सब ने बोला,’’जय।’’उनके चेहरे से टपकते भक्तिभाव के आगे सब नसीहतें फेल थीं। डॉ0 शोभा ने चुप ही रहना मुनासिब समझा। तभी सामने एक आदमी ने घिया मण्डी के लिए रिक्शावाले से भाड़ा पूछा। रिक्शावाले ने सौ रुपया बताया। सवारी बोली,’’इत्ते!! चौं रे मौकू परदेशी समझ रउ है। अबे लाला मैं जंईं का हूं। ठीक पइसा मांग।’’(इतने! क्यों रे, मुझको परदेसी समझा! मैं यहीं का हूं।) लोकल भाषा सुनते ही रिक्शावाला बोला,’’जो ठीक समझैं दें।’’ मैंने कहा,’’इसी तरह निजामुद्दीन स्टेशन दिल्ली से मेरे घर का मीटर से ऑटो का किराया 120 रुपये है। पर हाथ में लगेज़ देखते ही बाहर की सवारी समझ कर ऑटोवाला 500रु0 मांगता है। मीटर से जाने को राजी नहीं होता। बाद मे 200रु0 में लोकल होने के कारण ले आता है। ये किस्से देख सुन कर अब वो यात्रा एंजॉय करने लगी।
यहां खूब चौड़ी सड़क पर वाहन मना है। एक मजीरेवाला आया, बोला,’’तीन जोड़ी मजीरे बचे हैं। आप ले लो। 150 रु के तीनों दे दूंगा।’’ मैंने क्या करने थे? नहीं लेने थे, इसलिए पीछा छुड़ाने के लिए कहा,’’50रु के तीनों दे दो।’’ उसने दे दिए। मैंने गले में लटका लिए। एक राधे राधे का ठप्पा लगाने आया। उसने शायद मजीरे लटके देख कर मेरे चेहरे पर जहां जहां जगह दिखी, राधे राधे के ठप्पे लगा दिए। मैंने उसे दस रुपये दिए, सबने ठप्पे लगाने के रुपये दिए। मंदिर में सिक्योरिटी जांच बहुत सख्त थी। मंदिर में पर्स, बैग, मोबाइल आदि नहीं ले जा सकते थे। पैसे मेरे कुर्ते की जेब में थे। मैं प्रवेश की लाइन में लग गई। बाकि सामान जमा करवाने की लाइन में लग गईं। मैं अपना पर्स लेकर नहीं गई थी। मोबाइल पर्स में रखवा दिया। यहां बंदर खूब थे। प्रवेश की लाइन में मेरे आगे चार महिलाएं खड़ीं थीं। जिनमें से एक मथुरावासी थी। वह साथ की तीन अपनी मेहमान महिलाओं को मथुरा की विशेषताएं बता रही थी मसलन मथुरा तीन लोक से न्यारी, मथुरा की जाई, मथुरा में ब्याही। तीनों में से एक महिला बोली,’’मोबाइल के बिना फोटो कैसे खींचेंगे।’’ मथुरावासिनी ने समझाया कि ये तो अच्छा है मोबाइल जमा करवा लेते हैं। नही ंतो बंदर छीन कर ले जाते हैं। तुम्हारे सामने बैठ कर तुम्हें चिड़ायेंगे। उसे जमीन पर घिसेंगे। कुछ खाने को दो तो उसे छोड़गे। क्रमशः





पहले मेरे आगे डिब्बा किया, मैंने हाथ से लेकर मुंह में डाला, स्वाद बहुत अच्छा था। मैंने कहा कि मैं नाश्ता करके आई हूं, आप लोग खाइए। हाथों से रमेश ड्राइविंग और चने खा रहे थे और छोटे लाल खाते हुए बतिया रहे थे। मैं भी सुन रही थी। बीच बीच में गर्दन घूमा कर मैं पीछे चलने वाली गतिविधियां देख लेती थी। बस में सुरेश अग्रवाल जी ज्ञान चर्चा कर रहे थे। सब सुन रहे थे। फिर भजन और कबीर के दोहे गाये गये। इतने में पीछे से आवाज आई,’’ भइया कहीं टायलेट आये तो रोकना।’’ थोड़ी थोड़ी देर में पीछे से कुछ न कुछ खाने को आता रहता था। एक फूड र्कोट पर जाकर बस रुकी। सब उतर कर टॉयलेट की ओर दौड़े। फ़ारिग होने पर आस पास घूमने लगे। वहां लाइन से टूरिस्ट बसें खड़ीं थीं। ज्यादातर आगरा, मथुरा, वृंदावन और जयपुर जाने वाले थे। महिला साा टॉयलेट में ज्यादातर महिलाएं मेकअप धोकर फिर से मेकअप कर रहीं थीं। वहां की महिला कर्मचारी टायलेट साफ करने से ज्यादा मेकअप करने वाली महिलाओं पर ध्यान दे रही थी। कोई नई चीज को चेहरे पर इस्तेमाल होते देखकर पूछती,’’इसको मुंह पर लगाने से क्या होता है?’’ख़ैर मैं तो सवाल जवाब सुनने के लिए रुकी नहीं। बस में बैठी कुछ महिलाएं में अब चर्चा थी कि पहले वृंदावन बांके बिहारी के दर्शन करने जाया जाए या मथुरा। मैं तो जब पहली बार गई थी तो तीन दिन तक रुकी था। क्योंकि बारह से चार सभी मंदिर बंद रहते हैं। कान्हा आराम करते हैं। ये भूमि उनके बाल्यकाल और किशोरावस्था की है। आज तक उनका टाइम टेबल वैसा ही बना है। धार्मिक पर्यटन स्थल है। भारतीय सभ्यता और संस्कृति का केन्द्र है। धर्म ,दर्शन, कला और साहित्य में इसका योगदान है। पहले हम सेवा भारती के कार्यक्रम में गये। ये स्थल शहर थोडा़ दूर था। हजारों की संख्या में वहां सेवक थे। तीन बजे हम वहां से द्वारकाधीश के दर्शन के लिए चल पड़े। ब्रजभूमि में मुझे कहीं पढ़ी हुई ये लाइने याद आ गई



























शाश्वत पॉपअप में टोस्ट बना रहा था। जैम लगाना है कि बटर पूछ कर लगाता। अदम्य सर्विस कर रहा था।
ABP चैनल के एक टी.वी. शो में रुबिका लियाकत ने मुझसे प्रश्न किया,’’आपके कितने बच्चे हैं?’’ मैंने कहा,’’दो, बेटा और बेटी।’’ रुबिका ने पूछा,’’बड़ा कौन है? उनमें कितना अंतर है?’’ मैं बोली,’’ सवा साल बड़ा बेटा है।’’उसने पूछा,’’काम आप किसको करने को बोलती हो?’’मैंने जवाब दिया,’’बेटा, बड़ा है उसे ही बोलती हूं। उसके घर जाती हूं तो जाते ही बेटे से कहती हूं,’’बल्लू बढ़िया सी चाय बना’’ और श्वेता से बतियाने लगती हूं। शुरु में वो बनाने दौड़ती थी। मैं उसका हाथ पकड़ कर बिठा लेती।’’सुनकर खूब तालियां बजीं। लॉकडाउन मेें दोनों मेड नहीं हैं। अंकूर घर से काम करता है। श्वेता को बैंक जाना होता है। शाश्वत ने काम का बटवारा कर दिया है। अदम्य झाड़ू लगायेगा। शाश्वत पोचा लगायेगा, कपड़े फैलायेगा, उतारेगा। सब अपने अपने कपड़े तह लगायेंगे। दोनो भाई डस्टिंग करेंगे। मम्मा खाना बनायेगी और पापा बर्तन मांजेंगे। श्वेता कहती है,’’मां, बहू के सामने, बेटे से दोनो के लिए चाय बनवाने से ही मैने सीखा की बेटों को भी बचपन से काम करने की आदत दो।’’ जो मैं कर रही हूं।

