भगवे रंग का हमारे यहां बहुत सम्मान है। एक युवा ज्ञानी साधू की झोली में दाल चावल था। वह एक घर के आगे से गुज़रा, एक महिला को घर के दरवाजे पर खड़ा देख उसने कहा,’’मां मेरे पास दाल चावल हैं, मैं खिचड़ी बनाना चाहता हूं। आप मुझे बर्तन ईधन आदि दे दें।’’महिला ने दरवाजे से हट कर, हाथ जोड़ कर कहा,’’आइए महाराज आंगन में गोबर से लिपा हुआ चूल्हा है। अपनी रसोई बना लीजिए।’’महिला ने बड़ी श्रद्धा से उन्हें पानी, बर्तन और नमक दिया। चूल्हे के पास ही उपले रख दिए। महिला के आंगन में दुधारु भैंस बंधी हुई थी। महाराज ने खिचड़ी चढ़ा दी। महाराज के ज्ञान से आलोकित चेहरे से महिला वैसे ही नतमस्तक थी। पर वह भी तो पाक कला में निपुण गृहणी थी। जब खिचड़ी में उबाल आ गया तो वह अपनी कोठरी में गई और एक कटोरा घी का लाकर महाराज के पास रख दिया। महाराज की रसोई को उसने डर के मारे छुआ नहीं। पर महाराज को पंजाबी में एक कवित्त सुनाया
बन सवनी खिचड़ी, ते दुना पानी पा।
गिड़मिड़ गिड़मिड़ रिजदी, दे हेटों आग बुछा।
यानि मिट्टी के बर्तन में खिचड़ी बनाते हुए दो गुना पानी डाल दो। जब उबाल आ जाए तो आग की लपटे हटा दो। मंदी आंच पर बुदबुदाती हुई खिचड़ी पकने दो। अब घी डाल दो। आंच कम करके महाराज ने घी डाल दिया। उबाल थम चुका था। खिचड़ी बुदबुदाती हुई पक रही थी। गले हुए दाल चावलों में एक होने का प्रोसेस शुरु होने वाला था। इसमें समय लगता है। अब तो महाराज को कलछी भी नहीं चलानी थी। करने को कुछ था नही तो महाराज भैंस को ध्यान से देखने लगे। ये देख कर महिला ने महाराज को भैंस के फ़ायदे बताने शुरु किए कि वह विधवा है। भैंस से ही उसकी रोज़ी रोटी चलती है। वह भैंस का बहुत ध्यान रखती है। जब भी कभी बाहर बांधती हूं। तो उतनी देर बाहर ही रहती हूं। इसे किसी को कुछ खिलाने भी नहीं देती। पर महाराज को भैंस पर नज़रें गड़ाये, कुछ विचारते देख कर वह भी चुप हो गई। थोड़ी देर बाद महाराज ने मौन भंग करते हुए महिला से कहा,’’माता तुम्हारे घर का दरवाजा तो छोटा है। अगर तुम्हारी भैंस आंगन में मर गई, मरने पर तो मुर्दा अकड़ जाता है फिर तो इसे निकालने के लिए चौखट तोड़ कर रास्ता बड़ा करना पड़ेगा।" यह सुनते ही महिला की श्रद्धा तुरंत गायब हो गई। उसी समय वह उठी और महाराज से बोली,’’अपनी खिचड़ी बर्तन से निकालो और जाओ। ’’ महाराज ने जवाब दिया,’’मेरे पास बर्तन नहीं है। किसमें खिचड़ी ले जाउं?’’महिला बोली,’’अपने अंगोछे में।’’ महाराज ने अपना अंगोछा फैलाया महिला ने उस पर कच्ची पक्की खिचडी पलट दी। महाराज गर्म गर्म खिचड़ी की पोटली पकड़े चल पड़े। घी से चिकने अंगोछे से देसी घी की ख़ूश्बूदार भाप उड़ रही थी और खिचड़ी का गाढ़ा पानी टपक रहा था। ये देख कर किसी ने महाराज को पूछ ही लिया,’’महाराज यह क्या टपक रहा है?’’महाराज ने जवाब दिया,’’ये मेरी ज़ुबान का रस टपक रहा है।’’कहानी सुन कर कर हम भी उन दिनों अपने हिसाब से मतलब समझते रहते थे। अब मेरी 94 साल की अम्मा यह कहानी सुनाती है।
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