पर हम पैदल क्योंकि मुझे पता नहीं क्या देखना होता है? वही रास्ता है आते समय रिक्शा से आउंगी। बहुत ह्यूमिडिटी वाली गर्मी और तीखी धूप है। मेरे पर्स में छाता है पर इतनी भीड़ में छाता लेकर चलने से दूसरों को। परेशानी होगी। सफेद रुमाल था उसे ही सर पर रख लिया, थोड़ी राहत मिली। आगे रिक्शा नहीं जाएगी। सड़क के दोनों ओर बाजार लगे हुए हैं। जिसमें तरह तरह के आचार बिक रहे हैं। सबसे ज्यादा बांस का आचार है। सिलबट्टे की खूब दुकाने हैं। लोग इतना भारी खरीदते होंगे तभी तो इतनी दुकाने हैं। हैंडीक्राफ्ट की बहुत दुकाने हैं। तरह तरह की हाथ से बुनी हुई टोकरियां बहुत सुन्दर लग रहीं हैं। जगह जगह छतरी लगा कर महिलाएं भुट्टे भून कर बेच रहीं हैं। खाने की भी अस्थाई खूब दुकानें हैं।
जब देवताओं और असुरों ने मिलकर सागर मंथन किया तो वासुकीनाग मथने में उपयोग हुआ था। इसी स्थान पर वासुकी ने शिव की पूजा की थी।
किसी समय इस क्षेत्र में हरा भरा वन था। जिसे दारुक वन कहा जाता था। वनों से होने वाले लाभ को देखते हुए यहाँ लोग बसने लगे। दारुक वन से उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति होती थी। कंदमूल की तलाश में ये वनों में घूमा करते थे। एक बार बासुकी नामक मनुष्य भोजन की तलाश में जंगल में घूम रहा था। उसने कंदमूल प्राप्त करने के लिए जमीन को खोदना शुरु किया। तभी अचानक एक स्थान पर खून बहने लगा। बासुकी घबराकर वहाँ से जाने लगा तभी आकाशवाणी हुई और बासुकी को आदेश हुआ कि वह वहाँ जमीन से प्रकट हुए भगवान शिव के प्रतीक शिवलिंग की पूजा अर्चना करे। उसने कर दी। बासुकी के नाम से ही ये शिव बासुकीनाथ कहलाए। यह बहुत प्राचीन मंदिर है। मंदिर के पास ही एक तालाब है जिसे वन गंगा या शिवगंगा कहा जाता है। यहाँ का जल श्रद्धालुओं द्वारा अति पवित्र माना जाता है। श्रद्धालू गंगा जल और दूध से भगवान बासुकीनाथ का अभिषेक करते हैं। यहाँ भगवान शिव का स्वरुप नागेश है। क्रमशः
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