Search This Blog

Showing posts with label #Devshayani Ekadashi. Show all posts
Showing posts with label #Devshayani Ekadashi. Show all posts

Monday 1 July 2024

हरियाली धरती का सौन्दर्य है जुलाई उत्सव नीलम भागी

 

            


आषाढ़ में मानसून आ जाता है। तेलंगाना का राज्य महोत्सव बोनालु हैदराबाद, सिकंदराबाद तेलंगाना के अलावा भारत के कई अन्य हिस्सों में आषाढ़ के एक महीने तक बहुत श्रद्धा से मनाया जाता है। इसमें आषाढ़ प्रत्येक रविवार महाकाली के मंदिर से बाजे गाजे के साथ जलूस निकलता है। त्योहार के पहले और अंतिम दिन देवी येलम्मा के लिए विशेष पूजाएं की जाती हैं। मन्नत पूर्ति पर तो देवी को धन्यवाद के लिए बहुत जोर शोर से मनाया जाता है। 200 साल से बोनालू पारंपरिक लोक उत्सव की शुरुआत हुई थी। श्रद्धालुओं का मानना है कि एक बार प्लेग फैला था जिसका कारण देवी का रुष्ट होना है। उसके बाद से बोनालू में देवी को अच्छी फसल के लिए धन्यवाद करते हैं। अच्छी वर्षा और अच्छे स्वास्थ्य की कामना करते हैं। वर्षा के कारण होने वाले संक्रमण से बचाने की प्रार्थना करते हैं। 

बेहदी नखलम महोत्सव 3 दिन तक चलने वाला मेघालय का त्योहार है। फसल बोने के बाद भगवान से अच्छी वर्षा, समृद्ध फसल के लिए प्रार्थना की जाती है। भगवान को बुलाने के लिए पारंपरिक पोशाक में सांस्कृतिक कार्यक्रम किए जाते हैं। अंतिम दिन 3 जुलाई को फुटबॉल मैच खेला जाता है। ऐसा मानना है कि विजेजाओं की समृद्ध फसल पैदा होगी। 

 गुप्त नवरा़त्र का प्रयोग तन्त्र शक्ति उपासना के लिए होता है इसलिए इसे आषाढ़ गुप्त नवरात्र कहते हैं। इसे उत्तरी राज्यों में मनाया जाता है। 6 जुलाई से इसे मनाया जायेगा। 

 आषाढ़ मास में वर्षा का आगमन होता है इसलिए इसे किसानों के लिए महत्वपूर्ण मानते हैं। तो वृक्षारोपण की शुरुवात करते हैं। इसलिए 1950 से जुलाई के पहले सप्ताह में सरकार देशभर में ’वन महोत्सव’(पेड़ों का त्योहार) का आयोजन करती है। इस दौरान स्कूलों कॉलेजों, प्राइवेट संस्थानों द्वारा पौधारोपण किया जाता है। जिससे लोगों में पेड़ों के प्रति जागरूकता पैदा होती है। वनों का महत्व सामान्य लोगों को समझाना मकसद होता है। बच्चों से वनों केे लाभ पर निबंध लिखवाना या वाद विवाद प्रतियोगिता करवाना ही काफी नहीं है। उन्हें पेड़ों को बचाना, उनका संरक्षण करना भी सिखाना है। 

दश कूप सम वापी, दश वापी समोहृदः।

दशहृदसमः पुत्रो, दशपुत्रसमो द्रुमः।

दस कुओं के बराबर एक बावड़ी है, दस बावड़ियों के बराबर एक तालाब, दस तालाबों के बराबर एक पुत्र है और दस पुत्रों के बराबर एक वृक्ष है। मत्स्य पुराण का यह कथन हमें पेड़ लगाने और उनकी देखभाल करने के लिए प्रोत्साहित करता है। हमारे यहां किसी राजा की महानता का वर्णन करते हैं तो लिखते हैं कि उसने अपने शासन काल में सड़के बनवाईं थीं और उसके दोनो ओर घने छायादार वृक्ष लगवाए थे। हमारे यहां तो पेड़ों की पूजा की जाती हैं। अब हमें हरियाली बढ़ाने के लिए ग्रीन स्टेप्स लेने होंगे। सभी के थोड़े थोड़े योगदान से बहुत बड़ा परिवर्तन हो जायेगा। बच्चों को बचपन से ही पर्यावरण से जोड़ना होगा।

       जिस उत्साह से वन महोत्सव पर वृक्षारोपण किया जाता हैं। उसी तरह उनका संरक्षण भी किया जाना चाहिए। जिन्होंने पौधा लगाया, फोटो खिंचाई वे तो पौधे की देखभाल करने आयेंगे नहीं। इसके लिए वहां आसपास रहने वाले नागरिकों को ही देखभाल करनी होगी, कुछ ही समय तक तो!! जैसे जैसे पेड़ बड़ा होगा, उसका सुख तो आसपास वालों को ही मिलेगा। इसलिए पेड़ों को बचाना अपनी नैतिक जिम्मेवारी समझना है। नष्ट हुए पेड़ की जगह दूसरा पेड़ लगाना है। कहीं पढ़ा था कि पेड़ों के लिए काम करना, मां प्रकृति की पूजा करना है। 


          पुरी का 12 दिवसीय प्रधान पर्व होते हुए भी रथोत्सव पर्व भारत में लगभग सभी नगरों में श्रद्धा और प्रेम के साथ मनाया जाता है। जो श्रद्धालू पुरी नहीं जा पाते वे अपने शहर की रथ यात्रा में जरुर शामिल होते हैं। आषाढ़ मास की शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि के दिन भगवान जगन्नाथ की यात्रा प्रारंभ होती है। इस वर्ष 7 जुलाई को है। रथ यात्रा ये एक ऐसा पर्व है जिसमें भगवान जगन्नाथ अपने भक्तों के बीच में आते हैं। भगवान जगन्नाथ की यात्रा में भगवान श्री कृष्ण, सुभद्रा और बलराम की पुष्य नक्षत्र में रथ यात्रा निकाली जाती है। रथयात्रा बहन सुभद्रा के भ्रमण की इच्छा पूर्ण करने के उद्देश्य से श्रीकृष्ण और बलराम ने अलग रथों में बैठ कर करवाई थी। सुभद्रा जी की नगर भ्रमण की याद में यह रथयात्रा पुरी में हर वर्ष होती है। भारत के सभी मंदिरों में भगवान गर्भ ग्रह में स्थापित रहते हैं पर हमारे जगन्नाथ जी मंदिर से बाहर गुढ़िंचा मंदिर मासी माँ के यहाँ जाते हैं। वहाँ आठ दिन रहते हैं। दसवें दिन वापिस आते हैं जिसे बोहुडा यात्रा कहते हैं। ऐसा मानते हैं जैसे भगवान मथुरा से वृंदावन गए थे। भगवान तो सबके हैं लेकिन मंदिर में प्रवेश केवल हिन्दुओं को दिया जाता है। जिनके भाग्य में भगवान के दर्शन करने की लालसा है। वे रथ यात्रा में जाकर मंदिर से बाहर भगवान के दर्शन कर सकते हैं। 


     

     देवशयनी एकादशी, थोली एकादशी, हरिशयनी एकादशी 17 जुलाई को है। इस दिन से सभी प्रकार के मांगलिक कार्यक्रम, विवाह आदि नहीं किए जाते हैं। मान्यताओं के अनुसार इसी दिन से भगवान विष्णु 4 महीनों के लिए योग निद्रा में जाते हैं। चौमासा शुरु हो जाता है और देवी देवता विश्राम को चले जाते हैं। इस अवधि में अत्यधिक वर्षा के कारण संत समाज एक ही स्थान पर रूक कर व्रत, ध्यान और तप करते हैं। उनके ज्ञान का ही प्रभाव है कि स्थानीय लोग मानसून में मांसाहार, नहीं करते हैं। उनका मानना है कि ये जानवरों का ब्रीडिंग सीज़न है। बारिश ज्यादा होने से कटहल आदि सब्ज़ियाँ खूब होती हैं। वे इनसे काम चलाते हैं। यह पर्व दुनियाभर में रहने वाले तेलुगु भाषियों द्वारा धूमधाम से मनाया जाता है। यह एकादशी विश्व प्रसिद्ध जगन्नाथ यात्रा के बाद आती है। यह एकादशी किसान समुदाय के लिए बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि वे इस दिन पहली बारिश के बाद बीज बोना शुरु करते हैं। इस दिन भव्य भोज का आयोजन किया जाता है।  

 

गुरु पूर्णिमा 21 जुलाई को भारत, नेपाल और भूटान में हिन्दूओं और बौद्धों द्वारा अपने गुरुओं को कृतज्ञता व्यक्त की जाती है। यह आध्यात्मिक और अकादमिक गुरुजनों को समर्पित परम्परा है 

आषाढ़ मास की पूर्णिमा तिथि को खास माना जाता है। इस दिन गुरु पूर्णिमा  का पर्व मनाया जाता है। जीवन में गुरू का बहुत महत्व है। तुलसीदास जी रामचरित मानस में लिखते हैं

गुरू बिन भवनिधि तरे न कोई,

जो बिरंचि संकर सम होई।।

अर्थात कोई स्वयं ब्रह्मा, विष्णु, शंकर के समान ही क्यों न बन जाए। बिना गुरू के उद्धार नहीं हो सकता। यही कारण है कि पूर्णावतार श्री राम, कृष्ण ने भी गुरू बनाए थे। अतः ऐसे गुरू की तलाश में रहना चाहिए जो हमारे अवगुणों को दूर करने में हमारी मदद करे। इस दिन अपने गुरू को यथासम्भव दक्षिणा देते हैं। सेवा आदि से उन्हें प्रसन्न करते हैं। इसे व्यास पूर्णिमा भी कहते हैं। गुरु वेदव्यास ने वेदों को लिखा, जिसे ब्रह्मा ने पढ़ा। उन्होंने पुराण भी लिखे। यह भी माना जाता है कि उन्होंने इस दिन ब्रह्म सूत्रों को पूरा किया। उनके जन्म दिन पर उसी दिन से एक दिन गुरुओं को समर्पित है। गुरु या शिक्षक वह होता है जो हमारे जीवन में मार्गदर्शक की तरह काम करता है। जो इस दिन गुरु के पास नहीं जा सकते, वे अपने घर में ही गुरु की पूजा करते हैं।   

 

    22 जुलाई से श्रावण मास शुरू है। इसमें भगवान शंकर की पूजा का विशेष महत्व है। सावन केे पहले सोमवार से शिवभक्त कांवड लेने जा सकते हैं। फिर हरिद्वार या गोमुख से यात्रा आरम्भ होती है। कंधे पर कांवड़ में गंगा जल होता है और ये यात्रा कांवड़ यात्रा कहलाती है। जो कांवड़ लेने जाते हैं वे भगवा भेष में होते हैं। कोई शिवजी का गण बना होता है। सजा हुआ कावंड उठाए कांवड़िए का एक ही नाम होता है ’भोला’। इस यात्रा में भोले कंघी, तेल, साबुन का इस्तेमाल नहीं करते हैं। मार्ग में कांवड़ को धरती से नहीं छूना है। कांवड़ शिविर में उसे टांगते हैं और आराम करते हैं। यात्रा में इनके आपस में पारिवारिक संबंध भी बन जाते हैं। जो कांवड़ लेने नहीं जाते वे कांवड़  शिविर में सेवा करने जाते हैं।

 सावन में धरती हरियाली से ढक जाती है। नई बहू को पहले सावन में मैके भेज दिया जाता है। रिवाज़ है कि पहला सावन सास बहू इक्ट्ठे नहीं रहतीं हैं। हमारे लोकगीतों में भी हरियाली, सावन के झूले, रिमझिम वर्षा की फुहारों में झूलती गाती सखियां होती हैं। पहले छोटी आयु में बेटियों की शादी हो जाती थी। वह पहला सावन पुरानी सखियों के साथ मना जातीं हैं। दक्षिण भारत में पहला आषाढ़ सास बहू एक साथ नहीं रहतीं हैं।

 26 जुलाई को राष्ट्रीय आम दिवस(जुलाई में चौथा गुरुवार) के रूप में मनाया जाता है। केरल में कन्नूर जिले के कन्नपुरम को ’स्वदेशी मैंगो हेरिटेज एरिया’ घोषित किया गया है। इस पंचायत विस्तार में यहां आम की 200 से अधिक किस्में उगाई जाती हैं। जिनके बारे में तरह तरह की कहानियां भी प्रचलित हैं। आम तो हमारे लोकगीतों और धार्मिक समारोहों से अटूट रूप से जुड़ा है। कुछ समय मुम्बई में रही जब भी किसी धार्मिक आयोजन के लिए पूजा की सामग्री खरीदने के लिए गई तो वहीं आम की लकड़ी के साथ तोरण के लिए आम के पत्ते भी मिलें।

  विश्व प्रकृति संरक्षण दिवस 28 जुलाई को मनाया जाता है। प्राकृतिक संसाधनों के बहुत अधिक दोहन के कारण पर्यावरण को बनाए रखने की जरुरत बहुत अधिक हो गई हैं। जिसके कारण दुनिया भर में अजीबोगरीब मौसम का बदलाव हो रहा हैं। इसलिए इसका उद्देश्य दुनिया को स्वस्थ रखने के लिए पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों को संरक्षित करने की आवश्यकता के बारे में जागरूकता पैदा करना है। 

28 जुलाई से हिमाचल के चंबा जिले में सावन की रिमझिम  फुहारों के बीच में मिंजर मेले का आयोजन किया जाता है। सात दिन तक चलने वाले इस मेले में लगता है जैसे पुराने ज़माने में आ गए हों। महिलाएं पुरुष पारंपरिक पोशाकों में अपने लोक नृत्य करते हैं। फसल उत्सव है। गेहूँ, धान, मक्की और जौ की बालियों को स्थानीय भाषा में मिंजर कहते हैं। इस मेले में सबसे पहले भगवान लक्ष्मीनारायण को मिंजर अर्पित की जाती है। उसके बाद अखंड चंडी महल में भगवान रघुवीर को इसे चढ़ाया जाता है। ऐतिहासिक चौगान में ध्वज चढ़ाने के बाद मिंजर का आगाज होता है। आजकल जरी गोटे से मिंजर बना कर कमीज के बटन पर टांगते हैं। जिसे दो हफ्ते के बाद रावी नदी में प्रवाहित कर देते हैं। इस मेले में पूरे हिमाचल की बहुरंगी संस्कृति देखने को मिलती है। हमारे उत्सव हमें बताते हैं कि प्रकृति का महत्व हमारे जीवन के हर रंग में है।

यह लेख प्रेरणा शोध संस्थान नोएडा से प्रकाशित प्रेरणा विचार पत्रिका के जुलाई अंक में प्रकाशित हुआ है।

नीलम भागी लेखिका, पत्रकार, ब्लॉगर, ट्रैवलर