मेरी मेमोरी को फिर बैक गियर लग गया। जब हम 1979 में पुरी में 10 दिन तक रहे थे, तब इतनी भीड़ नहीं होती थी। प्रतिदिन दर्शन करना दिलचस्प कहानी सुनना, मेरे ज़ेहन में बस गया था। और आज मैं अकेली आई हूं। हमारे पंडा जी का नाम कलयुग दामोदर है। सत्यनारायण मंदिर में हमारे पिताजी बहन भाइयों को प्रणाम करवाने लाए थे। जब उन्होंने बड़ी सी अपनी एक डायरी निकाल के उसमें हमारे खानदान में कौन-कौन पुरी आए थे बताया तो हम बहुत हैरान हुए थे और अब जो आए हैं उनका नाम लिखा। उनके ही छोटे पंडित जी महंत राम ने हमें पुरी में पहली बार स्वर्ग द्वार समुद्र के किनारे लेकर गए। जीवन में पहली बार समुद्र देखा!! कितनी देर तक विस्मय विमुग्ध सी खड़ी रह गई थी। तब अबकी तरह कुर्सियां, छतरियां नहीं लगी थी कि कुछ रुपए देकर आराम से बैठो। हम सुबह शाम आते थे। दिन भर धूप कम होने का इंतजार करते थे और रात को पौ फटने का इंतजार करते थे। एक दिन भी अम्मा पिताजी को हमें उठाना नहीं पड़ा था। सूर्योदय और सूर्यास्त के मनमोहक दृश्य देखना। हमारा उजाला भी समुद्र के किनारे होता था। हम खूब शंख, सीप, घोंघे तड़के रेत से इकट्ठे करते और लाकर कमरे में रखते। बाद में उनमें से भयंकर बदबू उठी क्योंकि उसके अंदर के जीव मर गए थे। शाम को समुद्र की गोल्डन रेत पर कलाकार रेत से कलाकृतियां बनाते, हम उनकी नकल में बैठकर शिवलिंग बनाते, समुद्र से उग्र लहरें आती, उन्हें बहा ले जाती। झंडा बदलने की रस्म के हम साक्षी रहते। दिन में महंत राम मंदिर से 5 किलोमीटर दूर लोकनाथ मंदिर दिखाने गए जहां शिवरात्रि से 3 दिन पहले मेला लगता है। रघुराजपुर गांव यहां की कलाकृतियां लोकप्रिय पटचित्र, पीपर मैच, मुखोटे, पत्थर लकड़ी की कलाकृतियां आदि प्रसिद्ध हैं। जंबेश्वर मंदिर जिसे मारकंडे शिव मंदिर भी कहते हैं यह 10वीं 11वीं शताब्दी का बना कलिंगा शैली में मंदिर है। यहां शिव की पूजा होती है कहते हैं मां मार्कंडेय ऋषि ध्यान में लीन थे और वह जल में बहने वाले थे। भगवान शिव ने उन्हें बचाया यहां शिवरात्रि को मेला लगता है। श्री गुणीचा मंदिर जो मंदिर से 3 किमी दूर कलिंगा शैली में बना है। रथ यात्रा में इसका बहुत महत्व है। पंच तीर्थ पांच ऐसे स्नान कुंड जहां पर स्नान करने से पुण्य मिलता है। नरेंद्र सरोवर पोखरी तीन हेक्टेयर में एक दीप सा है चंदन यात्रा में इसका बहुत महत्व है। पुरी की अपनी अनोखी संस्कृति और प्रकृति है। जून से मार्च तक आना यहां बहुत उत्तम है। वैसे तो वर्ष भारी संख्या में श्रद्धालु आते हैं। इस यात्रा में हमारे पिताजी ने हमें टूरिस्ट की जगह, यात्री बनाया था। हम सब बहन भाइयों को₹100 -100 रुपए दिए बाकि सब खर्च पिताजी के थे। हम अपने ₹100 लेकर दिनभर घूमते रहते थे। रहने को जगह खाने को महाप्रसाद और आसपास इलाकों में जाने के लिए टूरिस्ट बस जिसमें सुबह बैठते थे। शाम को वह हमें कोणार्क ,भुवनेश्वर, चिल्का लेक आदि घूमा के पुरी में छोड़ देती । सस्ता शहर है। अपने पंडा जी को प्रणाम नहीं कर पाई, पंडित जी से मैंने कहा होता, तो वह मुझे जरूर मिलवाते। मुझे बस जल्दी निकलने की आफत थी। ग्रांड रोड वैसे की वैसी थी। हां विकास बहुत हुआ है। तीर्थ यात्रा में एक स्थान पर हमें देश भर के लोग मिल जाते हैं। उस समय कुछ महिलाएं एक वस्त्रा होती थीं। कई लोग तो नंगे पांव होते थे। और आज खूब सौंदर्यीकरण हुआ है और हो रहा है। दुकाने सामान से लदी पड़ी ही। खूब खरीदारी हो रही है और बेहतरीन पोशाक में लोग हैं। बहुमंजिले भवन हैं। मेरे जो बहन भाई यहां से कुछ साल पहले दर्शन करके आए हुए हैं बताते थे कि पुरी में बहुत तरक्की हुई है। आज अपनी आंखों से देखकर सराहना करती हूं। लोगों का और पुरी का विकास प्रशंसनीय है। बैटरी बस ने बस स्टैंड के पास उतार दिया।
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क्रमशः