हिन्दू देवी देवताओं की पूजा करना, परिवार और सामाजिक समारोहों जाना, खरीदारी करना और उपहार देना, भण्डारे करना, पंडालों का भ्रमण, सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन और पर्यटन के लिए छुट्टियां भी हैं। लोक कथाओं, पौराणिक कथाओं का अक्तूबर!!
तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक में दशहरे से पहले नौ दिनों को तीन देवियों की समान पूजा के लिए तीन तीन दिनों में बांट दिया है। पहले तीन दिन धन और समृद्धि की देवी लक्ष्मी को समर्पित हैं। अगले तीन दिन शिक्षा और कला की देवी सरस्वती को समर्पित हैं। और बाकि तीन दिन माँ शक्ति दुर्गा को समर्पित हैं। उत्तर भारत में महानवमीं को नौ देवियों का प्रतीक, कन्यापूजन किया जाता है। विजयदशमी(2 अक्तूबर) का दिन बहुत शुभ माना जाता है। बच्चों के लिए विद्या आरंभ के साथ कला में अपनी अपनी शिक्षा शुरु करने के लिए इस दिन सरस्वती पूजन किया जाता है।
महाभारत के रचियता वेदव्यास महाभारत के बाद मानसिक उलझनों में उलझे थे, तब शांति के लिये वे तीर्थाटन पर चल दिए। दंडकारण्य(बासर का प्राचीन नाम) तेलंगाना में, गोदावरी के तट के सौन्दर्य ने उन्हें कुछ समय के लिए रोक लिया था। यहीं ऋषि वाल्मीकी ने रामायण लेखन से पहले, माँ सरस्वती को स्थापित किया और उनका आर्शीवाद प्राप्त किया था। मंदिर के निकट वाल्मीकि जी की संगमरमर की समाधि है। बासर गाँव में आठ तालाब हैं। जिसमें वाल्मीकि तीर्थ है। पास में ही वेदव्यास गुफा है। लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा की मूर्तियाँ हैं। पास ही महाकाली का विशाल मंदिर है। नवरात्र में बड़ी धूमधाम रहती है। आज उस माँ शारदे निवास को ’श्री ज्ञान सरस्वती मंदिर’ कहते हैं। हिंदुओं का महत्वपूर्ण संस्कार ’अक्षर ज्ञान’ विजयदशमी को मंदिर में मनाया जाता है जो बच्चे के जीवन में औपचारिक शिक्षा को दर्शाता है। बासर में गोदावरी तट पर स्थित इस मंदिर में बच्चों को अक्षर ज्ञान से पहले अक्षराभिषेक के लिए लाया जाता है और प्रसाद में हल्दी का लेप खाने को दिया जाता है।
दशहरा को देश में कहीें महिषासुर मर्दिनी को सिंदूर खेला के बाद, विसर्जित किया जाता है। तो कहीं श्री राम की रावण पर विजय पर रावण, मेघनाथ, कुंभकरण के पुतले दहन किए जाते हैं। सबसे अनूठा 75 दिन तक मनाया जाने वाला बस्तर के दशहरे का, जिसका रामायण से कोई संबंध नहीं है। अपितु बस्तर की आराध्या देवी माँ दन्तेश्वरी और देवी देवताओं की पूजा हैं। कोटा दशहरा एक सप्ताह तक मनाया जाता है। कुल्लू दशहरे में गाँवों से देवी देवताओं की मूर्तियाँ कुल्लू घाटी में लाकर दशहरा मनाया जाता है तो रामनगर में एक महीने तक रामलीला चलती है।
मैसूर का दस दिवसीय दशहरा का मुख्य आर्कषण शाम 7 बजे से रात 10 बजे तक मैसूर पैलेस की रोशनी, सांस्कृतिक और धार्मिक कार्यक्रम और विजयदशमी पर दशहरा जुलूस और प्रदर्शनी है। श्रीराम ने इसी दिन रावण का वध किया था। माँ दुर्गा ने भी नौ रात्रि और दस दिन के भयंकर युद्ध में महिषासुर का वध कर विजय प्राप्त की थी। इसे असत्य पर सत्य की जीत का प्रतीक माना जाता है। इस दिन शस्त्र पूजा का विशेष महत्व है। नए कार्य भी आरम्भ किए जाते हैं जैसे अक्षरारम्भ, नया कारोबार शुरु करना, बीज बोना आदि। मान्यता है कि इस दिन जो कार्य आरम्भ किए जाते हैं, उनमें विजय प्राप्त होती है।
पद्मनाभ द्वादशी (4 अक्तूबर) इस दिन विष्णु स्वरूप पद्मनाभ की पूजा की जाती है। कुछ श्रद्धालु व्रत रखते हैं, जिसका पारण त्रियोदशी को करते हैं। यह पापाकुंशा एकादशी के अगले दिन होती है।
येमेश महोत्सव नागालैंड में (5 अक्तू0) के आसपास अच्छी फसल का जश्न है, जो पोचरी समुदाय द्वारा मनाया जाता है।
राजस्थान अर्न्तराष्टीªय लोक महोत्सव (2 से 6 अक्तूबर) थार रेगिस्थान में मेहरानगढ़ किला के नीचे राजस्थानी कला और संस्कृति का 5 दिवसीय उत्सव है।
शरद पूर्णिमा, कोजागरी पूर्णिमा, रास पूर्णिमा(6 अक्तूबर) इस दिन समुद्र मंथन के दौरान माँ लक्ष्मी प्रकट हुईं थीं। बंगाल, त्रिपुरा और असम में इसे कोजागरी पूर्णिमा भी कहा जाता है। कोजागरी का अर्थ है-वह जो जाग रहा है। मान्यता है कि रात में लक्ष्मी जी घरों में आतीं हैं और जो जाग रहा होता है उसे आर्शीवाद देतीं हैं। यह व्रत चंद्रमा की रोशनी में रखा जाता है। इस रात चंद्रमा की चांदनी में, चाँदी के पात्र में खीर बना कर रखी जाती है तो वह अमृत की तरह फलदाई होती है। कहा जाता है कि इस दिन चांदनी में अमृत का प्रभाव होता है। यह खीर शरीर को स्वस्थ रखने के साथ शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाती है।
वाल्मीकि जयंती(7 अक्तूबर) आज हर रामकथा के मूल में भगवान बाल्मीकि की रामायण है।
पहले महाकाव्य ’रामायण’ के रचयिता महाकवि महर्षि वाल्मीकी जयंती अश्विन महीने की पूर्णिमा को मनाई जाती है। जगह जगह जुलूस और शोेभायात्रा निकाली जाती है। लोगों में बहुत उत्साह होता है। श्रीकृष्ण की प्रेम दिवानी मीराबाई की जयंती भी इसी दिन है।
मारवाड़ उत्सव यह दो दिवसीय उत्सव जोधपुर में, शरद पूर्णिमा के दिन अपने गौरवशाली अतीत के राजपूत वीरों की याद में मनाया जाता है। उत्सव का मुख्य आर्कषण राजस्थान के भूतपूर्व शासकों और राजाओं के जीवन पर केन्द्रित लोक संगीत और नृत्य है।
दक्षिण भारत में भी कार्तिक मास के पावन अवसर पर काकड़ आरती का प्रारंभ परम्परानुसार शरदपूर्णिमा के दूसरे दिन(8 अक्तू0) से होता हैं। वारकरी सम्प्रदाय के बुजुर्ग बताते हैं कि संत हिरामन वाताजी महाराज ने 365 वर्ष पहले काकड़ आरती की शुरुआत की थी। आरती में शामिल होने के लिए श्रद्धालु प्रातः 5 बजे विटठल मंदिर में आते हैं और भजन मंडलियां पकवाद, झांज, मंजीरों एवं झंडियों के साथ नगर भ्रमण करती हैं। जगह जगह चाय, कॉफी, दूध एव ंनाश्ते की व्यवस्था श्रद्धालुओं द्वारा रहती है। प्रत्येक मंदिर में सामुहिक काकड़ा जलाकर काकड़ आरती प्रातः 7 बजे तक प्रशाद वितरण के साथ सम्पन्न होती है। उत्तर भारत में प्रभात फेरी निकाली जाती है। नदी स्नान का महत्व है।
सौभाग्यवती महिलाएं पति की लम्बी आयु के लिए निर्जला करवाचौथ(10 अक्तू0) का व्रत रखती हैं। महिलाएं श्रृंगार करके रात्रि को चंद्रमा को अर्घ्य देकर पति के हाथ से पानी पीतीं हैं और व्रत का पारण करतीं हैं।
अहोई अष्टमी और राधा कुण्ड स्नान(13 अक्तूबर)पुत्रवती महिलाएं पुत्र की लम्बी आयु और उसके सुखमय जीवन की कामना के लिये यह निर्जला व्रत रखती हैं। शाम को तारे को अर्ध्य देकर व्रत का पारण करतीं हैं। मेरी अम्मा ने परिवार में इस व्रत को पुत्र की जगह संतान के लिए कर दिया है। पोती के जन्म पर अम्मा ने भारती से व्रत यह कह कर करवाया कि बेटा बेटी में कोई फर्क नहीं है। यह व्रत संतान के अच्छे स्वास्थ लिए करो। भाभी दोनों बेटियों शांभवी, सर्वज्ञा के लिये करती हैं। मेरी बेटी उत्कर्षिणी दो राष्ट्रीय पुस्कारों से सम्मानित, अपनी दोनों बेटियों गीता और दित्या के लिए व्रत करती है। यानि दो पीढ़ियों से चल रहा है।
अहोई अष्टमी के दिन गोर्वधन परिक्रमा मार्ग में स्थित राधा कुण्ड में निसंतान जोड़े डुबकी लगाते हैं। ऐसी मान्यता है कि इससे उन्हें संतान सुख मिलता है।
कावेरी संक्रमणा, रमा एकादशी(17 अक्तूबर) ब्रहमगिरि की पहाड़ियों में भागमंडला मंदिर है। यहाँ से आठ किलोमीटर की दूरी पर तालकावेरी है, कावेरी का उद्गम स्थल। मंदिर के प्रांगण में ब्रह्मकुण्डिका है, जहाँ श्रद्धालु इस दिन स्नान करते हैं। सूर्य के तुला राशी में प्रवेश करते ही कावेरी संक्रमणा का त्यौहार मनाया जाता है और कावेरी यात्रा महीने भर चलती है। जीवनदायिनी माता कावेरी ने दूर दूर तक कैसा अतुलनीय प्राकृतिक सौंदर्य बिखेरा है! बंगाल की खाड़ी में गिरने से पहले तीन नदियाँ इसमें समा कर त्रिवेणी बनाती हैं। कन्निके, सुज्योति और कावेरी संगम। भागमंडला कर्नाटक और मायाबराम तमिलनाडु में इस पूजा को कनी पूजा (धरती माता की पूजा)कहते हैं जो नारियल और खीरे से की जाती है। कुछ श्रद्धालु सिर मुंडवाते हैं। कनी को देवी पार्वती का अवतार माना जाता है, जिनमें देवी कावेरी एक अवतार है।
कंगाली बिहु(18 अक्तू0) इस समय धान की फसल लहलहा रही होती है। लेकिन किसानों के खलिहान खाली होते हैं। इसमें खेत में या तुलसी के नीचे दिया जला कर अच्छी फसल की कामना करते हैं यानि यह प्रार्थना उत्सव है। भेंट में एक दूसरे को गमुझा, हेंगडांग(तलवार) देते हैं। कोंगाली बिहू से ये भी युवाओं को समझ आ जाता है कि मितव्यवता से भी उत्सव मनाया जाता है।
धनतेरस(18 अक्तूबर) से पाँच दिवसीय उत्सव दीपावली की शुरुवात हो जाती है। इस दिन जमकर खरीदारी होती है। नरक चौदस एवं काली पूजा(20 अक्तूबर) दीपावली के दौरान अमावस्या को काली पूजा या श्यामा पूजा हिंदुआंे द्वारा की जाती है। यह पूजा देवी काली को समर्पित, नकारात्मक उर्जाओं को समाप्त कर, समृद्धि का स्वागत करने के लिए की जाती है। दीपावली उत्सव(21अक्तूबर) धूमधाम से मिट्टी के दिए जलाकर मनाया जाता है। लक्ष्मी जी की पूजा खील बताशे से ही होती है ताकि गरीब अमीर सब करें। लेकिन मेवा, मिठाई खूब खाया जाता है।
दिवाली के अगले दिन पर्यावरण और समतावाद का संदेश देता, गोर्वधन पूजा अन्नकूट(22 अक्तूबर) का उत्सव दुनिया के किसी भी कोने में रहने वाला कृष्ण प्रेमी परिवार, सामूहिक रुप से मनाता है। जिसमें 56 भोग बनते हैं।
यम द्वितीया का त्यौहर, भाई दूज(23 अक्तूबर) मथुरा में बहन भाई, यमुना जी में नहा कर मनाते हैं। कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की द्वितीया को विश्राम घाट पर यमराज और यमुना जी का मिलन हुआ था। यमुना जी भाई को मिल कर बहुत प्रसन्न हुईं। उनके लिए स्वयं भोजन बनाया। यमराज बहन के व्यवहार से प्रसन्न होकर बोले कि वह उनसे कोई भी वरदान मांगे। यमुना जी बोली,’’ जो बहन भाई आज के दिन यहां स्नान करेंगे या आज के दिन भाई, बहन के घर जाकर भोजन करेगा, उसे यमपुरी न जाना पड़े।’’ कहते हैं कि विवाह के बाद कृष्ण भी पहली बार सुभद्रा से यहीं मिले थे।
इसी से मिलता त्योहार निंगोल चकोबा(24 अक्तूबर) भाई बहन के प्रेम, परिवारों के बीच प्रेम का प्रतीक निंगोल चाकोबा मनाया जाता है। निंगोल का अर्थ है ’विवाहित महिला’और चाकोबा का अर्थ है ’भोज के लिए निमंत्रण’यानि विवाहित महिलाओं को माता पिता भोज के लिए निमंत्रण देतें हैं।
सादगी, पवित्रता, लोकजीवन की मिठास का पर्व ’छठ’ है। छठ पर्व में प्रकृति पूजा सर्वकामना पूर्ति, सूर्योपासना, निर्जला व्रत के इस पर्व को स्त्री, पुरुष और बच्चों के साथ अन्य धर्म के लोग भी मनाते हैं। पौराणिक और लोक कथाओं में छठ पूजा की परम्परा और महत्व की अनेक कथाएं हैं। देवता के रुप में सूर्य की वन्दना का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। सृष्टि पालनकर्ता सूर्य को, आरोग्य देवता के रुप में पूजा जाता है। भगवान कृष्ण के पौत्र शाम्ब को कुष्ठ रोग हो गया था। रोगमुक्ति के लिए विशेष सूर्योपासना की गई। एक मान्यता के अनुसार भगवान राम ने लंका विजय के बाद कार्तिक शुक्ल षष्ठी को सीता जी के साथ उपवास किया और सूर्यदेव की आराधना की। सप्तमी को पुनः सूर्योदय पर अनुष्ठान कर सूर्यदेव से आर्शीवाद प्राप्त किया था।
एक अन्य मान्यता के अनुसार छठ पर्व की शुरुआत महाभारत काल में हुई। कर्ण प्रतिदिन पानी में खड़े होकर सूर्यदेव को अर्घ्य देते थे। आज भी छठ में अर्घ्य देने की यही पद्धति प्रचलित है। इन सब से अलग बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के जन सामान्य द्वारा किसान और ग्रामीणों के रंगों में रंगी अपनी उपासना पद्धति है। सूर्य, उषा, प्रकृति, जल, वायु सबसे जो कुछ उसे प्राप्त हैं, उसके आभार स्वरुप छठ मइया की कुटुम्ब, पड़ोसियों के साथ पूजा करना है, जिसमें किसी पुरोहित की जरुरत नहीं है। घाट की साफ सफाई सब आपसी सहयोग से कर लेते हैं। बिहारियों का पर्व उनकी संस्कृति है। छठ उत्सव प्रवासी, अपने प्रदेश जैसा ही मनाता है।
चार दिन का कठोर व्रत नहाय खाय से शुरु होता है। सूर्य अस्त पर चावल और लौकी की सब्जी को खाता है। दूसरा दिन निर्जला व्रत, खरना कहलाता है। शाम सात बजे गन्ने के रस और गुड़ की बनी खीर खाते हैं। चीनी नमक नहीं। अब सख्त व्र्रत शुरु होता है निर्जला व्रत। , दिन भर व्रत के बाद सूर्य अस्त से पहले घर में देवकारी में रखा डाला(दउरा) उसमें प्रकृति ने जो हमें अनगिनत दिया है, उनमें से इसे भर कर, डाला को सिर पर रख कर सपरिवार घाट पर जाते हैं। व्रती पानी में खड़े होकर हाथ में डाले के सामान से भरा सूप लेकर सूर्य को अर्घ्य देती है। सूर्या अस्त के बाद सब घर चले जातें हैं, फिर सूर्योदय अर्घ्य के बाद व्रत का पारण होता है।
कृष्ण और बलराम कार्तिक महीने की शुक्ल पक्ष की अष्टमी से गाय चराने गए और गोपाल बने। गोपाष्टमी पर्व(30 अक्तूबर) को है। यह उत्सव श्री कृष्ण और उनकी गायों को समर्पित है। इस दिन गौधन की पूजा की जाती है। गाय और बछड़े की पूजा करने की रस्म महाराष्ट्र में गोवत्स द्वादशी के समान है। भगवान कृष्ण के जीवन में गौ का महत्व बहुत अधिक था। उनकी गौसेवा के कारण ही इंद्र ने उनका नाम गोविंद रखा।
अक्षय नवमीं या आंवला नवमी(31अक्तू0) आंवले के पेड़ की पूजा करके मनाई जाती है।
व्यस्त और रंगीन सांस्कृतिक गतिविधियों का अक्तूबर, लाजवाब महीना है। इसमें फसल के अन्त में भगवान का धन्यवाद करते हैं और शुरू में आर्शीवाद की कामना करते हैं।
नीलम भागी(लेखिका, जर्नलिस्ट, ब्लॉगर, टैªवलर)
प्रेरणा प्रेरणा शोध संस्थान नोएडा से प्रकाशित प्रेरणा विचार पत्रिका के अक्टूबर अंक में यह लेख प्रकाशित हुआ है.




नीरज तिवारी(मनु) ने मेरी सीतामढ़ी (बिहार), जनकपुर नेपाल यात्रा पढ़ने के बाद कहा,’’आपने जानकी का जन्मस्थल और विवाह स्थल देख लिया, अब माता सीता का आश्रय स्थली यानि भगवान बाल्मीकि आश्रम भी देख लो। मैं चल दी। यह अमृतसर से ग्यारह किमी. दूर चौगावा रोड पर है। रास्ते भर मेरे कानो में नीरज के 'शब्द मां जानकी की आश्रय स्थली यानि लव कुश का जन्मस्थान' गूंजता रहा। जा तो मैं भगवान बाल्मीकि आश्रम रही हूं पर मेरी स्मृति में पिछली यात्रा भी हैं जनक की पुत्री, भगवान राम की पत्नी की पुनौरा जन्मस्थली है। जनश्रुति के अनुसार एक बार मिथिला में अकाल पड़ गया। पंडितों पुरोहितों के कहने पर राजा जनक ने इंद्र को प्रसन्न करने के लिये हल चलाया। पुनौरा के पास उन्हें भूमि में कन्या रत्न प्राप्त हुआ और साथ ही वर्षा होने लगी। अब भूमिसुता जानकी को वर्षा से बचाने के लिये तुरंत एक मढ़ी का निर्माण कर, उसमें सयत्न जानकी को वर्षा पानी से बचाया गया। अब वही जगह सीतामढ़ी के नाम से मशहूर है। ये एक जनश्रुति है और सीतामढ़ी में जामाता राम के सम्मान में सोनपुर के बाद एशिया का सबसे बड़ा पशु मेला लगता है। यह दूर दूर तक ख्याति प्राप्त मेला चैत्र की राम नवमीं और जानकी राम की विवाह पंचमी को लगता है। सीतामढ़ी से जनकपुर नेपाल के रास्ते में मुझे सीता स्वयंबर के लोकगीत सुनने को मिले। जनकपुर नेपाल के नौलखा मंदिर में जानकी की जन्म से बिदाई तक को र्दशाने के लिये गीत और मूर्तियां थी। सोहर, विवाह और बिदाई के गीत नेपाली में थे। मैं वहाँ खड़ी महिलाओं से भावार्थ पूछती जा रही थी। एक महिला ने बताया कि यहाँ के रिवाज बिहार और मिथिलंचल से मिलते हैं। फिर दुखी मन और भरे हुए गले से बोली कि जानकी विवाह के बाद कभी मायके नहीं आईं। हमारी जानकी ने बड़ा कष्ट पाया इसलिये कुछ लोग आज भी बेटी की जन्मपत्री नहीं बनवाते हैं, न ही उस मर्हूत में बेटी की शादी करते हैं। मैं भगवान बाल्मीकि तीर्थस्थल पर पहुंच गई जो अत्यंत सुन्दर, शांत और साफ, अद्भुत स्थल है।
उनके रामायण महाकाव्य को दर्शाती मूर्तियों को खूबसूरती से उकेरा है। 3 किमी.परीधि का सरोवर है। जिसका परिक्रमा पथ 30 फुट का है। बड़ा हॉल, संस्कृत लाइब्रेरी, म्यूजियम और आधुनिक मल्टीस्टोरी कार पार्किंग है, जिसमें एक समय में 500 चौपहिए वाहन पार्क हो सकते हैं। यहां श्रीराम मंदिर ,जगननाथ पुरी मंदिर, राधाकृष्ण मंदिर, राम,सीता लक्ष्मण मंदिर, भगवान बाल्मीकि का धूना, सीता जी की कुटिया, श्री लक्ष्मी नारायण मंदिर, विशाल हनुमान जी की मूर्ति,
ग्वालियर में तीन महीने में तैयार आठ फीट ऊंची, 800 किलो की गोल्ड प्लेटिड भगवान बाल्मीकि की मूर्ति के आगे खड़ी मैं, अब तक के पढ़े सुने रामायण काल में खो जाती हूं। 

