6 अक्टूबर से आठ अक्टूबर तक अखिल भारतीय साहित्य परिषद का 15वाँ राष्ट्रीय अधिवेशन जबलपुर में आयोजित किया गया था। हमारे साथी दिल्ली से 4 को चल कर 5 को पहुँच रहे थे और वापिसी 9 को कर रहे थे, क्योंकि आयोजकों ने लिखा था कि पर्यटन 6 से पहले और 8 के बाद करें। अधिवेशन के प्रत्येक सत्र में उपस्थिति अनिवार्य है। मेरे साथ डॉ. शोभा भारद्वाज को जाना था। वे डायबटिक हैं और उनकी सितम्बर में डायबटीज बहुत बड़ गई थी। उनके डॉक्टर पति ने कहा था कि कंट्रोल होने पर ही वे उसे जाने के लिये 3 दिन की परमीशन देंगे। मैंने दो टिकट एम. पी. संपर्क क्रांति की 3 ए.सी. में करवाली। बी 3 में 9 और 12 न0 सीट कनर्फम हो गई थी। डॉ.शोभा ने भी जाने के लोभ में नियमित दवाइयां ली और जमकर परहेज किया। उन्हे जाने की अनुमति मिल गई। गाड़ी में सीट पर जाते ही हमारे सहयात्रियों ने सीट के नीचे हमारा सामान लगा दिया। जैसे ही हम सामान में चेन लगाने लगे। उन्होंने वह भी लगा कर, हमें चाबी देदी। वे एक दूसरे को तिवारी जी, त्रिपाठी जी.... आदि से सम्बोधित कर रहे थे इसलिये हमने सबको पण्डित जी से सम्बोधित किया और उनका नाम नहीं पूछा। ज्यादातर ने कटनी पर उतरना था, वे आस पास की जगहों के 30 सहयात्री, सभी व्यापारी थे। किसी कम्पनी ने उन्हें घूमने के लिये पैकेज पर हरिद्वार, ़ऋषिकेश, मसूरी भेजा था। साधूवाद उस कंपनी को, जिसने सेल पर उन्हें नगद पुरूस्कार न देकर, घुमाया था। किसी का बोल बोल कर गला बैठा था। किसी को बहुत डुबकियां लगाने से मामूली ठंड की शिकायत थी, पर सभी बहुत खुश थे। सभी उम्र के लोग थे ,अपनी बीती बातों को खूब दोहरा रहे थे और खुश थे। गाड़ी ने ग्वालियर रूकना था। आगरे का पेठा बेचने वाले आते तो उससे शुगल के लिये मोलभाव किया जाता, आधा किलो 80रू का पेठा का डिब्बा 70 रू में, दो डिब्बे यानि एक किलो 130रू के लिये गये। मैं तो लौटते समय खरीद सकती थी कहाँ कहाँ उठाये घूमती इसलिये नहीं लिया। पेठा सबके आगे किया जाता। मेरे आगे डिब्बा करने से पहले कहते,’’देखिए, आपके सामने लिया और खोला है।’’ मैं एक टुकड़ा ले लेती। डॉ.शोभा परहेज में थी। गाड़ी आगरा में रूकी। जबकि ट्रेन शेड्यूल में आगरा नहीं है। कई युवा पण्डित जी उतरे, मैं डरती हुई खिड़की से देखती रही कि इनकी गाड़ी न छूट जाये। गाड़ी चलते ही सब आ गये। प्रत्येक के हाथ में अंगूरी पेठे का डिब्बा था। सबके चेहरों से खुशी टपक रही थी। एक डिब्बा खोला गया। बहुत स्वाद पेठा कुल 70रू किलो। मैंने पूछा,’’इतना सस्ता कैसे?’’सबने कोरस में जवाब दिया,’’गुप्ता जी की वजह से।़’’ अब पता चला कि अलग जातियों के भी लोग थे। मैंने पूछा,’’कैसे?’’जवाब में 10 न0 सीट के पंण्डित जी बोल,े’’मैंने वाइफ के लिये कुछ सामान लिया, बिल्कुल वैसा ही इन्होने लिया मुझसे चार सौ रू कम में, उसी दुकान से, जबकि मैं एम.बी.ए. हूँ। गुप्ता जी बोले,’’बनिया नहीं हो न इसलिये।’’सब हंस पडे। मैंने कहा,’’मुझे सीखा दीजिये बारगनिंग।’’ इतने में पेठा बेचने वाला आया। मैंने सीखने वाली छात्रा की तरह पूरा ध्यान, गुप्ता जी और पेठे वाले की वार्ता पर लगा दिया। उसने पेठे का भाव वही आधा किलो अस्सी रू डिब्बा बताया। गुप्ता जी ने उसे अंगूरी पेठे का डिब्बा दिखा कर कहा,’’ये सत्तर रू किलो लिया है। तू लगा न, सारे डिब्बे ले लेंगे।’’ फिर पेठे वाले पर बिल्कुल भी ध्यान न देकर सब लोगों से ऐसे बतियाते रहे, जैसे पेठे से कोई मतलब न हो। पेठे वाला बोला,’’50रू का डब्बा।’’ गुप्ता जी बोले,’’चल तू भी क्या याद करेगा, 80 रू किलो यानि 40 रू का डिब्बा। कैश पैसे।’’ कहकर पेठे वाले से विरक्त हो गये। पर वह दे गया। जिन्होंने 130रू किलो लिया था। उन्होने भी और डिब्बे लिये। अब हमसे पूछा कि हम कहाँ जा रहें हैं। हमने बताया। उन्होंने हमें तुरंत जबलपुर के पर्यटन स्थल बताये। हमने उन्हें अपनी समस्या बताई कि जाते ही अधिवेशन शुरू और अधिवेशन समापन पर शाम 7ः10 की हमारी यही गाड़ी है। इतने में उनका एक जबलपुर का साथी आया। उन्होंने हमारी समस्या उनके सामने रक्खी। मैंने उन्हें कहा कि मैं प्रत्येक सत्र में भी रहना चाहती हूँ और घूमना भी चाहती हूँ। क्या ये सम्भव है? मैंने मोबाइल में उन्हें तीनों दिन का टाइम टेबिल निकाल कर दिया, उन्होंने ध्यान से पढ़ कर कहा कि जबलपुर 11-12 कि.मी. में है। जैसे मैं बताउँगा उसी प्रकार करोगी तो भाषण भी सुन लोगी और भ्रमण भी कर लोगी। मैंने डायरी पैन लेकर सब लिख लिया। मैंने कहा,’’मैं तो ऑटो से ही जाऊंगी।’’उन्होंने कहा कि फिर तो हम शत प्रतिशत घूम लेंगी। ये सुनकर सब बहुत खुश हुए। अब सब सोने की तैयारी में लग गये। मेरी अब तक की रेल यात्रा में इतने गंदे टॉयलेट कभी नहीं मिले। किसी में लाइट नहीं। फर्श तक गंदगी से भरे हुए। इसलिये रात भर मैं ठीक से सो नहीं पाई। डॉ.शोभा ने तो दवा खा रक्खी थी, वे खर्राटे ले रहीं थी। रात दो बजे अटैण्ट ने कहाकि इनकी सफाई तो कटनी में होगी, आप दूसरे डिब्बे में हो आओ, फिर मैं गई न । क्रमश:
Search This Blog
Sunday, 22 October 2017
रेल में भारतीय संस्कृति, आगरे का पेठा, Jabalpur Yatra 1जबलपुर यात्राReil mein Bhartiye Sanskrity,Agara Ka Petha, जबलपुर यात्रा भाग 1 नीलम भागी
6 अक्टूबर से आठ अक्टूबर तक अखिल भारतीय साहित्य परिषद का 15वाँ राष्ट्रीय अधिवेशन जबलपुर में आयोजित किया गया था। हमारे साथी दिल्ली से 4 को चल कर 5 को पहुँच रहे थे और वापिसी 9 को कर रहे थे, क्योंकि आयोजकों ने लिखा था कि पर्यटन 6 से पहले और 8 के बाद करें। अधिवेशन के प्रत्येक सत्र में उपस्थिति अनिवार्य है। मेरे साथ डॉ. शोभा भारद्वाज को जाना था। वे डायबटिक हैं और उनकी सितम्बर में डायबटीज बहुत बड़ गई थी। उनके डॉक्टर पति ने कहा था कि कंट्रोल होने पर ही वे उसे जाने के लिये 3 दिन की परमीशन देंगे। मैंने दो टिकट एम. पी. संपर्क क्रांति की 3 ए.सी. में करवाली। बी 3 में 9 और 12 न0 सीट कनर्फम हो गई थी। डॉ.शोभा ने भी जाने के लोभ में नियमित दवाइयां ली और जमकर परहेज किया। उन्हे जाने की अनुमति मिल गई। गाड़ी में सीट पर जाते ही हमारे सहयात्रियों ने सीट के नीचे हमारा सामान लगा दिया। जैसे ही हम सामान में चेन लगाने लगे। उन्होंने वह भी लगा कर, हमें चाबी देदी। वे एक दूसरे को तिवारी जी, त्रिपाठी जी.... आदि से सम्बोधित कर रहे थे इसलिये हमने सबको पण्डित जी से सम्बोधित किया और उनका नाम नहीं पूछा। ज्यादातर ने कटनी पर उतरना था, वे आस पास की जगहों के 30 सहयात्री, सभी व्यापारी थे। किसी कम्पनी ने उन्हें घूमने के लिये पैकेज पर हरिद्वार, ़ऋषिकेश, मसूरी भेजा था। साधूवाद उस कंपनी को, जिसने सेल पर उन्हें नगद पुरूस्कार न देकर, घुमाया था। किसी का बोल बोल कर गला बैठा था। किसी को बहुत डुबकियां लगाने से मामूली ठंड की शिकायत थी, पर सभी बहुत खुश थे। सभी उम्र के लोग थे ,अपनी बीती बातों को खूब दोहरा रहे थे और खुश थे। गाड़ी ने ग्वालियर रूकना था। आगरे का पेठा बेचने वाले आते तो उससे शुगल के लिये मोलभाव किया जाता, आधा किलो 80रू का पेठा का डिब्बा 70 रू में, दो डिब्बे यानि एक किलो 130रू के लिये गये। मैं तो लौटते समय खरीद सकती थी कहाँ कहाँ उठाये घूमती इसलिये नहीं लिया। पेठा सबके आगे किया जाता। मेरे आगे डिब्बा करने से पहले कहते,’’देखिए, आपके सामने लिया और खोला है।’’ मैं एक टुकड़ा ले लेती। डॉ.शोभा परहेज में थी। गाड़ी आगरा में रूकी। जबकि ट्रेन शेड्यूल में आगरा नहीं है। कई युवा पण्डित जी उतरे, मैं डरती हुई खिड़की से देखती रही कि इनकी गाड़ी न छूट जाये। गाड़ी चलते ही सब आ गये। प्रत्येक के हाथ में अंगूरी पेठे का डिब्बा था। सबके चेहरों से खुशी टपक रही थी। एक डिब्बा खोला गया। बहुत स्वाद पेठा कुल 70रू किलो। मैंने पूछा,’’इतना सस्ता कैसे?’’सबने कोरस में जवाब दिया,’’गुप्ता जी की वजह से।़’’ अब पता चला कि अलग जातियों के भी लोग थे। मैंने पूछा,’’कैसे?’’जवाब में 10 न0 सीट के पंण्डित जी बोल,े’’मैंने वाइफ के लिये कुछ सामान लिया, बिल्कुल वैसा ही इन्होने लिया मुझसे चार सौ रू कम में, उसी दुकान से, जबकि मैं एम.बी.ए. हूँ। गुप्ता जी बोले,’’बनिया नहीं हो न इसलिये।’’सब हंस पडे। मैंने कहा,’’मुझे सीखा दीजिये बारगनिंग।’’ इतने में पेठा बेचने वाला आया। मैंने सीखने वाली छात्रा की तरह पूरा ध्यान, गुप्ता जी और पेठे वाले की वार्ता पर लगा दिया। उसने पेठे का भाव वही आधा किलो अस्सी रू डिब्बा बताया। गुप्ता जी ने उसे अंगूरी पेठे का डिब्बा दिखा कर कहा,’’ये सत्तर रू किलो लिया है। तू लगा न, सारे डिब्बे ले लेंगे।’’ फिर पेठे वाले पर बिल्कुल भी ध्यान न देकर सब लोगों से ऐसे बतियाते रहे, जैसे पेठे से कोई मतलब न हो। पेठे वाला बोला,’’50रू का डब्बा।’’ गुप्ता जी बोले,’’चल तू भी क्या याद करेगा, 80 रू किलो यानि 40 रू का डिब्बा। कैश पैसे।’’ कहकर पेठे वाले से विरक्त हो गये। पर वह दे गया। जिन्होंने 130रू किलो लिया था। उन्होने भी और डिब्बे लिये। अब हमसे पूछा कि हम कहाँ जा रहें हैं। हमने बताया। उन्होंने हमें तुरंत जबलपुर के पर्यटन स्थल बताये। हमने उन्हें अपनी समस्या बताई कि जाते ही अधिवेशन शुरू और अधिवेशन समापन पर शाम 7ः10 की हमारी यही गाड़ी है। इतने में उनका एक जबलपुर का साथी आया। उन्होंने हमारी समस्या उनके सामने रक्खी। मैंने उन्हें कहा कि मैं प्रत्येक सत्र में भी रहना चाहती हूँ और घूमना भी चाहती हूँ। क्या ये सम्भव है? मैंने मोबाइल में उन्हें तीनों दिन का टाइम टेबिल निकाल कर दिया, उन्होंने ध्यान से पढ़ कर कहा कि जबलपुर 11-12 कि.मी. में है। जैसे मैं बताउँगा उसी प्रकार करोगी तो भाषण भी सुन लोगी और भ्रमण भी कर लोगी। मैंने डायरी पैन लेकर सब लिख लिया। मैंने कहा,’’मैं तो ऑटो से ही जाऊंगी।’’उन्होंने कहा कि फिर तो हम शत प्रतिशत घूम लेंगी। ये सुनकर सब बहुत खुश हुए। अब सब सोने की तैयारी में लग गये। मेरी अब तक की रेल यात्रा में इतने गंदे टॉयलेट कभी नहीं मिले। किसी में लाइट नहीं। फर्श तक गंदगी से भरे हुए। इसलिये रात भर मैं ठीक से सो नहीं पाई। डॉ.शोभा ने तो दवा खा रक्खी थी, वे खर्राटे ले रहीं थी। रात दो बजे अटैण्ट ने कहाकि इनकी सफाई तो कटनी में होगी, आप दूसरे डिब्बे में हो आओ, फिर मैं गई न । क्रमश:
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment