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Sunday, 5 November 2017

शराबी बहुत खुले दिल के होते हैं !!! Sharabi bahut khuley dil ke hote hein! नीलम भागी


मेरी दुकान के बराबर में अंग्रेजी शराब की दुकान खुली है। जिसे सब इंग्लिश वाइन शॉप कहते हैं। इस दुकान ने खुलते ही मेरे दिमाग में कई प्रश्न खड़े किये हैं। मसलन बिना किसी महूर्त के, बिना किसी सजावट और प्रचार के, दुकान खुलते ही ग्राहकों को अपनी ओर खींचने लगी है!! व्यापार के बारे में एक कहावत बचपन से सुनती आ रही हूं' पहले साल चट्टी(यानी पैसा लगाओ, वैरायटी बढ़ाओ ) ,दूसरे साल हट्टी(दुकान जमती है), तीसरे साल खट्टी(अच्छे से कमाई)' यहां तो खुलते ही खट्टी(कमाई) शुरू हो गई। जैसे जैसे दुकान पुरानी होती जा रही है। वैसे वैसे मेरे दिमाग के खड़े प्रश्न बैठते जा रहें हैं। उन प्रश्नों का ज़िक्र फिर कभी। मेरे घर के सदस्यों ने वाइन पीना तो दूर, यहाँ तो कभी किसी ने  बोतल छुई भी नहीं है। लेकिन अब देखने से ही, मैं बात बात पर जो उदाहरण देती हूँ, उसका संबंध वाइन शॉप से ही होता है। जैसे मैं घर में तीन सौ रूपये का दूध ले कर गई। किसी ने कह दिया कि दूध तो अभी रखा था। मेरा दिमाग गर्म होने लगता है। मैं चिल्लाने लगती हूँ कि तुम्हारी उम्र के लड़के लड़कियाँ दो ढाई हजार की वाइन की बोतल ले जाते हैं, पीने के लिये। तुमसे 60-65रू की दूध की थैली नहीं पी जाती! हाँ तो मैंने देखा, वाइन शॉप के लगभग रैगुलर आने वाले ग्राहक कभी कभी विचित्र हरकत करते हैं। मसलन इस दुकान तक पहुँचने के दो रास्ते हैं। ये ग्राहक किसी को तो देख कर दूसरे रास्ते पर चल देते हैं। किसी वाइन खरीदने वाले को एक अंगुली के इशारे से बुलाते हैं। वह उनके पास जाता है, तो उन्हें बुलाने वाला कहता है कि आज क्वाटर में बीस रूपये कम पड़ गये हैं। वह शराबी से कोई प्रश्न नहीं करता, कोई नसीहत नहीं देता। चुपचाप वॉलेट खोलता है। उसे बीस रूपये दे देता है। इसी तरह वह अलग अलग लोगों से(सिर्फ वाइन के ग्राहकों से) पैसे लेता है। है न खुले दिल की बात!! जैसे ही क्वाटर के पैसे पूरे हो जाते हैं। वह क्वाटर खरीद कर चल देता है। अब उस दिन मैं एक काव्यगोष्ठी में गई। अमुक कवि जी वहाँ छा गये। उनके कुछ शिष्यों ने भी वाहवाही लूटी। अमुक जी के बराबर मैं बैठी थी। दो छात्र उनसे आकर बोले,’’सर हमें भी अपना शिष्य बना लीजिये न।’’सर ने जवाब दिया,’’मेरा आर्शीवाद तुम्हारे साथ है पर अब मैं शिष्य नहीं बनाता।’’ मैंने अमुक जी से कहा,’’सर आज के शराबी को, जब पहली बार, जिस शराबी ने शराबी बनाने के लिये, दीक्षित किया होगा, उसने अपनी जेब से वाइन का खर्च उठाया होगा, तब तक जब तक उनका शौक आदत में नहीं बदला होगा।’’ ये तो खुद रचना करेंगे, आपको सुनायेंगे आपको इन्हें मोटिवेट ही तो करना है। कौन सा दारू पीने की दीक्षा दे रहें। जिसमें आपका खर्च होगा।’’ सब मुझे घूरने लगे। बाद मेंं मुझे भी लगा कि मैंने शायद गलत उदाहरण दे दिया है।
 मैं अब साहित्यिक बैठकों में चुप रहती हूँ, बोलने से डरती हूँ। स्कूल में लिखा सत्संगति का निबंध हमेशा याद आता है, जिसमें किसी कवि की पंक्तियाँ लिखी थीं
अगर आग के पास बैठोगे जाकर, तो उठोगे एक रोज़ कपड़े जलाकर।
ये माना कि कपड़े बचाते रहे तुम, मगर सेक तो रोज खाते रहे तुम।
ख़ैर कपड़े तो कभी नहीं जलेंगे, मगर सेक का क्या करूँ क्योंकि चर्चा में भाग लेते ही मेरे उदाहरण ठेके पर चले जाते हैं। कॉलौनी की पुरानी मार्किट मेंं हलवाई की दुकान में जब अचानक वाइन शॉप खुल जाये तो शायद ऐसा ही होता है।

16 comments:

ATULL CHOUDHARY THE ATC... said...

Good one.

Neelam Bhagi said...

धन्यवाद

डॉ शोभा भारद्वाज said...

वास्तविकता से साक्षत्कार कराया

Neelam Bhagi said...

धन्यवाद

Chandra bhushan tyagi said...

शानदार वास्तविकता से रुबरु

Neelam Bhagi said...

हार्दिक आभार

Shashi Singh said...

Achcha likha hai, satyata bhi hai

Shashi Singh said...

Achcha likha hai, satyata bhi hai

Anonymous said...

Bahut sundar lekh hai

Unknown said...

सभी शराबी भाइ भाइ
बहुत अच्छा लेख

Unknown said...

सभी शराबी भाई भाई
बहुत अच्छा लेख

Neelam Bhagi said...

हार्दिक धन्यवाद

Neelam Bhagi said...

हार्दिक धन्यवाद

Neelam Bhagi said...

हार्दिक धन्यवाद

Neelam Bhagi said...

हार्दिक धन्यवाद

Prggoswami said...

विलम्ब से , अदभुत