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Sunday, 4 November 2018

रेलिया बैरन, पिया को लिये जाये रे Bihar Yatra बिहार यात्रा भाग 1 नीलम भागी


हमसफर गाड़ी पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन से दोपहर 1.45 पर चलनी थी। बारह बजे मैं घर से निकली, रास्ते में मैसेज़ आया, गाड़ी तीन घण्टे लेट थी। दशहरे का दिन था। जाम मिलने का डर था इसलिये स्टेशन पर बैठ कर इंतजार करना ही उचित समझा। और मैं घर नहीं लौटी। मेरी बिहार की यह पहली यात्रा थी। बताए गए प्लेटर्फाम पर और भी दूर दूर से आई सवारियाँ इंतजार कर रहीं थीं। कुछ सवारियों के चेहरे पर रेलवे के प्रति गुस्सा, आक्रोश था , ये वो लोग थे, जिन्हें रास्ते में बिहार से पहले उतरना था। कुछ सवारियां ऐसी थीं जिनके चेहरे पर महात्मा बुद्ध की तरह शान्ति थी। बात करने पर पता चला कि ये बिहार जाने वाले लोग हैं। उन्हें कोई रेलवे से  शिकवा शिकायत नहीं है। मैंने कुछ लोगो से पूछा कि ये गाड़ी हमेशा लेट होती हैं। उनका मुस्कुराते हुए जवाब था कि ये तीन घण्टे तो कुछ भी नहीं है, यहाँ की गाड़ियों का तो 8-10 घण्टे  विलंब से होना आम बात है। लेकिन राजधानी समय से रहती है। मैंने पूछा,’’ऐसा क्यों?’’ उनका जवाब था कि उसमें ’व्ही. आइ. पी VIP सफ़र करते हैं न इसलिए।’ मैंने भगवान का शुक्र किया कि मेरा वापसी का टिकट पटना से राजधानी का था। अब खाली गाड़ी के इंतजार में बैठी हूँ तो मेरे दिमाग में तरह तरह के प्रश्न उठ खड़े हो रहें हैं। मसलन अगर मुझे इस बैंच पर बैठने की जगह न मिलती तो!! क्योंकि मुझे डॉक्टर ने जमींन पर बैठने और पालथी मार कर बैठने को मना कर रक्खा है। तब तो मैं तीन घण्टे खड़े रहने की सजा भुगतती न। अब बैठने को  जगह जो मिल गई है, तो दिमाग तो चलेगा ही न। अब मेरा रेलवे के प्रति ज्ञान में और इजाफा हुआ। वो ये कि  अगर बताये हुए समय पर गाड़ी चल जाये तो भी गनीमत है। मैं बोली,’’ ऐसा भी होता है।’’ जवाब ,’’बिहार की गाड़ियों में ऐसा होना, आम बात है।’’जो अकेली सवारियाँ जिन्हें घर से निकले कई घण्टे बीत चुके हैं। वे प्राकृतिक क्रिया से फारिग होने कैसे जा सकते हैं ?  न तो गंदे टॉयलेट में सामान ले कर जा सकते हैं, न ही प्लेटर्फाम पर छोड़ कर जा सकते हैं। सबसे बड़ा संकट सीट भरने का था। उस सिचुएशन में ये बहुत बड़ी समस्या थी। इसलिए अकेली सवारी, सू सू आने के डर से, चाय पानी भी नहीं पी रही थी। खैर 5 बजे  गाड़ी आई। मेरी सीट न0 1 थी। रात को सोने का तो सवाल ही पैदा नहीं था। गाड़ी में मुझे वैसे ही कम नींद आती है। अब वाशरूम आने वाले धाड़ धाड़ दरवाजा खोले और बंद करेंगे और मेरी नींद टूटती रहेगी। सबसे पहले बैठते ही मैंने पानी पिया, फिर लगेज़ सैट किया। अपने आस पास देखा, मेरे सामने 4 न0 सीट पर डॉ0 संजीव थे और एक लखनऊ जाने वाला बहुत खूबसूरत युवा जोड़ा था और अब मैं चल दी, डिब्बे का मुआयना करने। मैंने देखा कि ज्यादातर सवारियाँ प्रवासियों की थी। जो घर जा रहीं थी। बहुत कम सपरिवार थे। जो अकेले थे, उनमें से कइयों का बैग कपड़े सब कुछ नये नये थे। उन पर कीमत के स्टिकर भी चिपके थे। और मेरी स्मृति में इलाहाबाद, जौनपुर में बिताया बचपन, उस समय वहाँ का सुना लोक गीत याद आया ’रिलिया बैरन पिया को लिये जाये रे’। ये परिवार के कमाऊ बेटा, भाई या पति घर लौट रहे थे । 5.15 पर रेलवा हिली फिर रूकी रही और 5.30 पर चली। रेलवा का पहला स्टॉपेज कानपुर था। पर इस रेलवा ने तो जगह जगह रूकने की ठान रक्खी थी। कहीं भी रूक जाती। मसलन साहिबाबाद में 6.10 पर अड़ गई। मुझे बापूधाम मोतिहारी उतरना था। समय 8.53 सुबह है। रेलवा के लच्छन देख कर मैं समझ गई कि शाम तक बापूधाम पहुँचूगीं। इसलिये मैंने समय देखना बंद कर दिया। मेरी सीट पर तीन बिना गिलाफ के तकिए थे। मैंने परिचारक से गिलाफ चढ़ाने को कहा, आधे घण्टे बाद वो मेरे पास एक गिलाफ रख कर बोला,’’लीजिए, चढ़ा लीजिए न।’’मैंने पूछा बाकि के दो का गिलाफ! उसने बड़ी नम्रता से जवाब दिया,’’जो लेंगे वो चढ़ाएंगे न, आप क्यों हलकान हो रहीं हैं।’’ मैं उस बिचारे को और परेशान न कर स्वयं ही दो चादरे ले आई। कंबल मुझे कहीं दिखाई नहीं दिया। वो मैंने उससे मांगा ,उसने कहा कि वह काम सिस्टमवा से कर रहा है। सबको चादर तकिया देकर कम्बलवा देगा।" सिस्टमवा के तहत मेरे पास किनारी उधड़ा न जाने किसी सवारी की तीखी इत्र की गंध वाला कंबल एक घण्टे बाद मेरे पास आया। तीन तकिए लगा और कंबल की तस्वीर ले, उसके नीचे चादर लगा के मैं अधलेटी सी बैठ गई। बाहर अंधेरा था। हां चाय बहुत बढ़िया थी।       क्रमशः          


2 comments:

डॉ शोभा भारद्वाज said...

दिलचस्प लेख दिलचस्प हेडिंग

Neelam Bhagi said...

हार्दिक धन्यवाद