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Tuesday, 27 September 2022

लांगुरिया तेरी एक ना मानूंगी, भवन पर छम छम नाचूंगी नीलम भागी नवरात्र

 


शैलजा सक्सेना के घर में 7 अक्टूबर  2019 को शारदीय नवरात्रि की नवमी धूमधाम से मनाई गई। आशा जी ने ख़ूब भजन गाने से बैठे हुए गले से  सबको अग्रिम न्योता दिया। " इस बार चैत्र नवरात्र छाया राय जी के घर में मनाया जाएगा। 9 दिन उनके यहां ही सबको कीर्तन में आना होगा" सुनते ही सब ने तालियां बजाई।

   पर आ गया करोना काल।

 सबको बेसब्री से इंतजार था कि कब करोना जाए और हम कीर्तन शुरू करें।

 जबसे मैंने होश सम्भाला है, अपनी अम्मा के पास एक भजनों की कापी जो अब डायरी में तब्दील हो गई है, उसे देखा है। यह नवरात्रों में हमेशा बाहर नज़र आती है और इसमें नवरात्रों में भजनों में इजा़फा हो जाता है । अम्मा को चिकनगुनिया हुआ था। जिसका असर ये हुआ कि 93 वर्षीय अम्मा, अब नवरात्रों के र्कीतन में नहीं जा पातीं। मेरी तरफ देखती रहतीं हैं कि मैं जाऊँ और आकर ,उन्हें आँखों देखा हाल सुनाऊं। मैं जाती हूं और कुछ अम्मा की प्रिय भजन गायिकाओं के विडियों बना लाती हूं। वे उसे देखती हैं फिर दिन भर भजन गुनगुनातीं हैं। हमारे सेक्टर में तीन शिफ्ट में नवरात्र का र्कीतन होता है। 11 से 1 बजे, 3 से 5 बजे और मंदिरों में कहीं दोपहर में तो कहीं सायं 6 से 8 बजे तक। इन शुभ दिनों में घरेलू और कामकाजी लोगो को अपनी सुविधानुसार  पूजा  भजन में जाने का मौका मिल जाता है। मेरी अम्मा इन दिनों बहुत व्यस्त रहतीं थीं। हर जगह बुलावे पर कीर्तन में जो जाना होता था। डायरी पकड़े यहाँ से वहाँ जातीं थी। नवमीं के दिन बड़ी उदासी से घर आतीं और अपनी डायरी सम्भाल के रख देतीं, अगले नवरात्र के  इंतजार में। जब मैं इस सेक्टर में आई थी ,तब से आशा जी  अपने यहाँ महीने के पहले मंगलवार को 11से 1 कीर्तन रखतीं आ रही हैं। इस तरह महिलाएं एक जगह मिलती हैं । समापन  के बाद बतियातीं हैं। इस दिन का सबको इंतजार रहता है। कुछ सालो बाद, मैंने अम्मा से पूछा कि आप लोगो का र्कीतन कैसा चल रहा है? वे बोलीं कि सबकी उम्र बढ़ गई है, अब ढोलक नहीं बजती, जो नई बहू बेटियाँ आ रहीं हैं, वे ढोलक बजाना नहीं जानती हैं। जैसे मैं अम्मा का भजन सत्संग का लगाव, देखती वैसे ही औरों का भी होगा। ये सोच कर मैंने एक ढोलक वाला ढूंढा। उसे कहाकि तुझे घरेलू महिलाओं के साथ ढोलक बजानी है। वो सुर में गायें, बेसुरा गायें, तुझे उनके साथ ताल मिलानी है। साउंड सिस्टम उन्होंने अपना ले रखा है। वो तुरंत राजी हो गया क्योंकि प्रोफैशनल के साथ बजाने में तो वो दस कमियां इसमें निकालते। यहां तो जैसे मर्जी ढोलक पर थाप दो। आशा जी को बताया, वे बहुत खुश हुईं। तब से वही ढोलक वाला ढोलक बजा रहा है और र्कीतन बढ़िया चल रहा है। एक बार   मनपसंद किताब मिल गई। मैं उसे पढ़ने में लीन थी। अम्मा ने देखा कि किताब के कारण मैं रात को भी कम सोई हूं। 12 बजे उनसे नहीं रहा गया वे बोलीं,’’एक बजे र्कीतन में आरती होगी। मैं जल्दी से भार्गव परिवार के घर गई। वहाँ श्रद्धा भक्ति से महिलाएं गा रहीं, नाच रहीं थीं। भजन के बाद एक ही बात दोहरातीं आज पहला नवरात्र हैं न, गला खुला नहीं हैं, धीरे धीरे खुल जायेगा। मैं वीडियो , तस्वीरें लेती हूं। समापन पर सबने अम्मा के बारे में पूछा। घर आकर अम्मा ने मोबाइल में वीडियो और तस्वीरें देखीं। फिर अपनी इच्छा बोली कि उनके मरने के बाद उनके भजनों की डायरी आशा को दे देना। तूं तो किताब पढ़ने के चक्कर में नवरात्र भी भूल गई। 

   कोविड काल में पहले नवरात्र की पूजा अर्चना कर के अम्मा कह रही थी कि  मेरे 92 वें साल की उम्र में कोरॉना से बचाव के लिए, सब घर में परिवार के साथ नवरात्र की पूजा अर्चना कर रहे हैं। अगले नवरात्र पर सब पहले की तरह मनाएंगे, कीर्तन, जागरण और माता की चौंकिया होंगी।    और आज छाया जी के घर में महिलाओं को इतना खुश देख कर बहुत अच्छा लगा। हमारे सेक्टर के शारदीय नवरात्र नौ दिन छाया जी ने अपने घर ही आयोजित किए गए हैं। जिसमें महिलाएं बहुत खुश है। जब वे भक्ति नृत्य कर रही थीं तो जो नहीं कर रही थी वह  तालियों के साथ सहयोग दे रही थीं ।https://youtu.be/5Qu5FiObRt0

https://youtu.be/KHcEcKjO-lA

https://youtu.be/_F22WRvMo4Y


















   

Wednesday, 14 September 2022

कांवड, बोल बम और बैजनाथ धाम यात्रा से वापसी भाग 15 नीलम भागी Kanwer, Bole Bum Baidhnath Dham to Delhi Yatra Part 15 Neelam Bhagi

 

     
जहाँ देखो काँवड़िये, गाड़ी आने में एक घण्टे का समय है। बाजू में बैठे कांवडिये से मैं उसकी कांवड़ यात्रा सुनने लगी। उसने बताया कि सुल्तानगंज के जहाँगीर घाट पर स्नान करके गंगा जल लेकर नाव पर सवार होकर, बाबा अलगैबीनाथ का दर्शन करके पैदल चलते हैं। हम प्रतिदिन कम से कम 6 किमी. चलते थे। सफेद टी शर्ट वाले डाक काँवड़िये होते हैं। वे 24 घण्टे में 105 किमी. की अकेले दूरी तय करके बाबा को जल चढ़ाते हैं। जब ये पास से गुजरते तो इन्हें देखकर हमारे शरीर की बैटरी और चार्ज हो जाती। रास्ते में लोग बहुत सेवा करते हैं। ठहरने के लिए कलकतिया धर्मशाला, पटनिया ध., गोड़ियारी ध. उसने बैजनाथ धाम तक की पूरी धर्मशालाओं की सूची सुना दी। उसने पद यात्रा की है उसे याद है। मैंने सुना है मुझे नहीं याद हुई। रास्ते में विज्जुखरवा में हनुमान डैम और सूइया का पहाड़ भी अविस्मरणीय जगह है। जहाँ प्रकृति अपने सर्वोत्तम रुप का दर्शन कराती है। साथ ही उसने नारे बहुत आर्कषक सुनाये 

रास्ता कम, बोल बम

बोल बम का नारा है, बाबा एक सहारा है

बाबा नगरिया दूर है, जाना जरुर है  

बाबा नगरिया पहुँचते ही थकान दूर हो जाती है। जल चढ़ा कर मन खुश हो जाता है।

रेलवे स्टाफ और पुलिस का काम यहाँ बहुत सराहनीय है। भीड़ को पटरियों से दूर रखे हुए है। यहाँ तक की डिब्बों के क्रम की भी गाड़ी आने से पहले घोषणा करते हैं। हमारी गाड़ी हमसफ़र से दस मिनट पहले दूसरी गाड़ी ने आना है। गाड़ी का नाम और नम्बर बार बार बोला जा रहा है।

  अचानक मैं देखती हूँ हमारी सहयात्री जेठानी लगेज़ खींचती जा रही है। मैंने आवाज़ लगाई, उन्होंने नहीं सुना। अब मैं लेटे हुए कांवड़ियों की भीड़ में से रास्ता बनाकर, उनसे पूछने जा रही थी कि डिब्बे के क्रम तो डिस्प्ले नहीं हुए वे कहाँ जा रहीं हैं? वे पाँच लोग मिलकर आए है। वे अकेली क्यों?


थोड़ी देर में देवरानी भी उसी दिशा में सामान लिए जा रहीं हैं। मैंने तेज चल कर उन्हें आवाज़ लगाई। अरे हमारी गाड़ी का नाम क्या है? वे पीछे मुड़ कर झुंझलाकर बोली,’’आपको गाड़ी के नाम की पड़ी है, मेरी जेठानी पता नहीं कहाँ को चली गई?’’फिर तेजी से जेठानी के जाने की दिशा में चलते हुए, थोड़ा लहज़ा सुधार कर बोलीं,’’हमसफ़र है।’’मुझे तसल्ली हो गई कि इन्हें गाड़ी का नाम पता है। एक गाड़ी आई उसके जाते ही हमसफ़र के डिब्बे र्बोड पर डिस्प्ले होने लगे। देवरानी जेठानी के चक्कर में मैं बहुत दूर तक आ गई हूँ। बी 3 डिब्बा बहुत पीछे हैं। मैं भीड़ में चलना शुरु करती हूँ। गाड़ी आगे आ रही है, मैं उसकी विपरीत दिशा में जा रहीं हूँ। पर अपने डिब्बे में पहुंच गई। सीट पर बैठ कर पहले खूब सांस लेती हूँ। गाड़ी चलते ही गुप्ता जी चल दिए, पता करने कि सब सहयात्री सीटों पर आ गए हैं। जब वे लौट कर आए कि अपने डिब्बे में भी सबसे मिल लूं। उसी वक्त गाड़ी स्टेशन पर रुकी। देवरानी जेठानी गाड़ी में चढ़ीं। वे सीट की ओर अपने साथ घटी, घटना भी सुनाती जा रहीं हैं। 

हुआ यूं वो पहले वाली गाड़ी में चढ़ गईं थी। सीट पर वही उनका आते समय जैसा ही क्लेश था कि एक सीट दो सवारियों कैसे रिर्जव हो गई! इस क्लेश में एक स्टेशन तो निकल गया। अगले स्टेशन से पहले उन्हंे पता चल गया कि वे गलत गाड़ी में चढ़ गईं हैं। अब सब इनकी मदद को आ गए। रेलवे स्टाफ ने स्टेशन पर उतार कर पुलिस से कहा कि इन्हें अगली गाड़ी हमसफ़र आ रही है, उस पर चढ़ा देना। उन्होंने इसमें इन्हें चढ़ा दिया। गुप्ता जी अगर अपने डिब्बे में पहले मिलने जाते तो इन्हें न देख कर परेशान हो जाते। गुप्ता जी आकर पानी पी ही रहे थे कि देवरानी जेठानी गाड़ी में चढ़ीं। सब थके हुए थे, लाइट भी ऑफ नहीं की, सो गए। कोई चाय वाला नहीं आया इसलिए सुबह सब देर से उठे। अब गाड़ी में राजनीति से शुरु होकर देवघर पर गोष्ठी शुरु हो गई। स्थानीय यात्री बताने लगे यहाँ कभी आपको खराब पेड़ा नहीं देगें। मैंने कहा कि यहाँ खाने का रेट बहुत कम है। वो हंसते हुए बोले वहां के लोगों को ज्यादा लगता है और मेले में इतनी भीड़ में थोड़ी क्वालिटी तो गिर ही जाती है। कभी वैसे आइए और खाइए ताहेरी, बेल का मुरब्बा, खीर मोहन, सर्दी में तिलकुट, सरसों के तेल में तली सत्तू की कचौड़ी, धुस्का, झालमुरी इमली की चटनी, गुलगुले और घुंघनी। बातें करते हुए आनन्द विहार रेलवे स्टेशन आ गया और खूबसूरत यादों के साथ हमारी यात्रा को विराम मिला।








बासुकीनाथ से जिसीडीह स्टेशन बैजनाथ यात्रा भाग 14 नीलम भागी Basunath to Jasidih Junction Baidhnath Yatra Part 14 Neelam Bhagi

लौटते समय सब खरीदारी में लगे हुए है। मुझे और पद्मा शर्मा को कुछ नहीं खरीदना है। मैंने सोचा था लौटते में पेड़े लूंगी। यहाँ पेड़ों का स्वाद ऐसा है जैसे हम अपनी गंगा यमुना के दूध से घर में बनाते थे। बासुकीनाथ आते समय मेन रोड पर पेड़ा मार्किट देख कर और भी खुशी हुई कि स्पैशल कहीं नहीं जाना होगा। वैसे पेड़ा मार्किट तो पेड़ा नगर लग रही थी। रास्ते में ही खरीद लेंगे। जहाँ भी जया गौड़ और महिमा शर्मा खरीदारी के लिए रुकतीं, मैं और पद्मा जी किसी भी स्टॉल के आगे बैठ जाते। पान की दुकान देखकर पद्मा जी पान लगवाने लगीं। पान वाला पान लगाने में अपना पूरा हुनर दिखा रहा है। जब उसने कुछ लाल लाल डाला तो वे बोलीं,’’भइया इसमें हेमा मालिनी मत डालो, निकालो, और सारी हेमामालिनी निकलवाईं।’’सुनकर मैं हंसने लगी तो महिमा शर्मा मुझे समझाने लगीं कि हम इसे हेमा मालिनी कहते हैं। इतने सालों बाद देखते वहाँ पहुँचे जहाँ रिक्शा मिल जाता है। अब रिक्शा करके बसों के पास पहुँच गये। सब लोग दर्शन करके आते जा रहे हैं। लिट्टी चोखे के स्टॉल वाले की कुर्सियों पर बैठते जा रहें हैं। हरिदत्त शर्मा जी ने उससे लिट्टी चोखा लिया और उसकी कुर्सियों पर बैठे, हम वहाँ की रौनक देख रहे हैं। वह न बिठाए तो धूप में बैठना पड़ेगा। सबने उससे कुछ न कुछ मंगाना शुरु कर दिया।


जरनल दर्शन की मैं और डॉ. शोभा आ गए हैं, दो महिलाएं नहीं आईं। जब फोन करो तो कहतीं कि आ रहें हैं। रवीन्द्र कौशिक ने पूछा कि अगर रास्ता समझ नहीं आ रहा है तो किसी से जगह का नाम पूछ कर बता दो, मैं आपको ले जाता हूँं। उनका एक ही जवाब है, हम आ रहें हैं। 5 बजे की हमारी गाड़ी है। रास्ते में लंच भी करना है। अब गुप्ता जी ने फोन पर कहा कि तुम दोनों के पीछे सबकी गाड़ी छूट जायेगी। हम 30 मिनट में जा रहे हैं। टिकट आपके पास है। आप स्टेशन पर ही पहुँचों। 20 मिनट बाद उनका फोन आया कि बस स्टैण्ड पर तो हमारी बसे ही नहीं हैं। सुरेन्द्र ने कहा कि मुझसे बात करवाओ। उसने फोन पर उनसे कहा कि किसी ई रिक्शा वाले से बोलो,’’तुम्हें अमुक जगह पहुँचाये क्योंकि आप दो नंबर बस स्टैंड की बजाय कहीं और बस अड्डे पहुंच गई है।’’ जब सुरेन्द्र को लगा कि वे पहुंच गई होंगी, उसके कुछ देर बाद हम चले। वहाँ उनके लिए रुके, वे हमें रास्ते में बैठीं मिल गईं। सब खुश हो गए। बीच में खाने के लिए रुके। समय लेकर चले हैं जिसका ये फायदा हुआ कि कांवड़ियों के कारण गाड़ियाँ स्टेशन से काफी दूर रोक दी गईं। वहाँ से रिक्शा से स्टेशन पहुँचे। टिकट गुप्ता जी ने सब को दे दी थी। हमारा प्लेटर्फाम न0 5 है। कदम कदम पर पुलिस है। प्लेटर्फाम न0 बताते ही वे सीढ़ियों का रास्ता बताते हैं, सब उस ओर चल दिए। मैंने जाकर फिर पूछा,’’लिफ्ट नहीं है।’’उन्होंने मुझे दूसरी ओर भेज दिया। वहाँ एस्केलेटर आउट ऑफ ऑर्डर है। चल नहीं रहा है, बाजू में ही सीढ़ियाँ हैं पर कुछ लोग एस्केलेटर को सीढ़ियों की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। विभाग के दो आदमी खड़े हैं। मैंने उनसे ऐसे ही पूछा,’’ये आउट ऑफ ऑर्डर है तो ये इस पर क्यों चढ़ कर जा रहें हैं? सामने सीढ़ियों से भी तो जा सकते हैं।’’वे हंसते हुए बोले,’’इनके लिए नई टैक्नोलॉजी है, इन्हें खुशी मिलती है इसे इस्तेमाल करके।’’फिर वे बताने लगे कि ये इस पर जल्दी में कूद कर चढ़ते हैं, जोड़ पर इनका पैर पड़ता है। रोज किसी न किसी के पैर में चोट आती है। इलाज़ के लिए ले जाते हैं।



एस्केलेटर ठीक हो गया। मैं चढ़ गई। मुझे लगातार ऊपर तक उनकी आवाज आती रही। ’जल्दबाजी नहीं ध्यान से पैर रखो। कभी वे उनकी भाषा में समझाते। मैं 5 न0 प्लेटफॉर्म पर आती हूँ। मुझे कांवड़िये ने बैठने की जगह दे दी। यहाँ कोई ग्रुप का नहीं दिख रहा है। जिधर देखो भगवा कांवड़िये। क्रमशः              





Thursday, 8 September 2022

गणपति बप्पा मोरया, अगले बरस तूं जल्दी आ नीलम भागी


        अरुणा ने आज चहकते हुए घर में कदम रक्खा और बड़ी खुशी से मुझे बताया,’’दीदी मेरे बेटे ने कहा कि इस गणपति पर वह मुझे सोने की चेन लेकर देगा।’’मैंने पूछा कि तेरे बेटे की बढ़िया नौकरी लग गई हेै क्या? वो बोली,’’नहीं दीदी, मेरा बेटा बहुत अच्छा ढोल बजाता है। बप्पा को ढोल, नगाड़े बजाते, नाचते हुए लाते हैं  और ऐसे ही विसर्जन के लिए ले जाते हैं। इन दिनों गणपति बप्पा उस पर बड़ी मेहरबानी करते हैं।’’ और बिना कहे गाते हुए ’सजा दो घर को दुल्हन सा, गजानन मेरे घर में आएं हैं ’ घर का कोना कोना चमकाने लगी। मेरा मुम्बई में यह पहला गणपति उत्सव था। मेरे मन में बड़ा उत्साह था कि मैं स्वतत्रंता सेनानी समाज सुधारक लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक द्वारा रोपा पौधा सार्वजनिक गणेश उत्सव, जो आज विशाल वट वृक्ष बन गया है जिसकी शाखाएं पूरे देश में जम गईं हैं उसे मुम्बई में मनाउंगी। 10 दिनों तक चलने वाला सबसे बड़ा त्यौहार है।

   तिलक ने हमारे अग्रपूज्य, दक्षिण भारत के कला शिरोमणि गणपति को, 1893 में पेशवाओं के पूज्यदेव गजानन को बाहर आंगन में विराजमान किया था। आम आदमी ने भी, छुआछूत का भेद न मानते हुए पूजा अर्चना की, सबने दर्शन किए। उस समय का उनका शुरु किया गणेशोत्सव, राष्टीªय एकता का प्रतीक बना और समाज को संगठित किया। आज यह पारिवारिक उत्सव, समुदायिक त्योहार बन गया है।

कई दिन से अस्थाई दुकानों में बरसात से बचाते हुए, हर साइज के गणपति सजे हुए थे और महानगर गणपतिमय था।    

    हमारी सोसाइटी में भी बड़ी जगह का इंतजाम किया गया था। गणपति के लिए वाटर प्रूफ मंदिर बनाया, स्टेज़ बनाई गई और बैठने की व्यवस्था की गई। सभी फ्लैट्स में गणेश चतुर्थी से अनंत चतुदर्शी तक होने वाले बौद्धिक भाषण, कविता पाठ, शास़्त्रीय नृत्य, भक्ति गीत, संगीत समारोह, लोक नृत्य के कार्यक्रमों की समय सूची पहुंच गई थी।

   सांस्कृतिक कार्यक्रमों की मैं सूची पढ़ती जा रही थी और अपनी कल्पना में, मैं तिलक की आजादी की लड़ाई से इसे जोड़ती जा रही थी। इनके द्वारा ही समाज संगठित हो रहा था, आम आदमी का ज्ञान वर्धन हो रहा था और छुआछूत का विरोध हो रहा था। गणेश चतुर्थी की पूर्व संध्या को सब तैयार होकर गणपति के स्वागत में सोसाइटी के गेट पर खड़े हो गए। ढोल नगाड़े बज रहे थे और सब नाच रहे थे। गणपति को पण्डाल में ले गए। अब सबने जम कर नाच नाच कर, उनके आने की खुशी मनाई। आवाहन से लेकर विर्सजन तक श्रद्धालु, आरती, पूजा, सांस्कृतिक कार्यक्रमों में लगभग सभी उपस्थित रहते। गणपति को कभी अकेला नहीं छोड़ा जाता था। बच्चों को इन दिनों पण्डाल में रहना पसंद था। मांए खींच खींच कर इन्हें घर में खिलाने पिलाने लातीं, खा पीकर बच्चे फिर पण्डाल में। रात को ये नन्हें दर्शक, जो प्रोग्राम यहां देखते, दिन में गर्मी की परवाह किए बिना वे उसकी नकल दिन भर स्टेज पर करते। सभी बच्चे इस समय कलाकार होते। दर्शकों की उन्हें जरुरत ही नहीं थी। मुझे बच्चों के इस कार्यक्रम में बहुत आनंद आता। 

   बारिश तो कभी भी आ जाती है पर कोई परवाह नहीं, न ही कभी किसी के श्रद्धा और उत्साह में कमी दिखती है। घरों में भी गणपति 1,3,5,7या 9 दिन बिठाते हैं। गौरी पूजन, दो दिन लक्ष्मी पूजन, छप्पन भोग आदि के निमन्त्रणों सब व्यस्त रहते हैं। गणपति से मिलने बेटियां भी मायके आती हैं और बहुएं भी मायके जाती हैं।

   मसलन हमारे सामने के फ्लैट में रहने वाले परिवार ने गणपति बिठाए तो उनके तीनों भाइयों के परिवार वहीं आ गए। पूजा तो हर समय नहीं होती बच्चे आपस में घुल मिल रहें हैं। महिलाओं पुरुषों की अपनी गोष्ठियां चल रहीं थी। एक दिन अप्टमी मनाई गई। ऐसा कहा जाता है कि इस दिन गौंरा अपने गणपति से मिलने आती हैं। उपवास रखकर, कुल्हड़ के आकार या गुड़ियों के रुप में गौरी पूजते और सबको भोजन कराते हैं। दक्षिणा उपहार देते हैं पर उस दिन जूठन तक नहीं फेंकते। यहां तक कि पान खिलाया तो उसका कागज भी दहलीज से बाहर नहीं डालते। अगले दिन दक्षिणा उपहार ले जा सकते हैं। शाम को आरती के बाद कीर्तन होता। उसमें नाचते गाते हैं। मंगलकारी बप्पा साल में एक बार तो आते हैं। इसलिए उनके सत्कार में कोई कमी न रह जाए। अपनी सामर्थ्य के अनुसार मोदक, लड्डू के साथ तरह तरह के व्यंजनों का भोग लगाते हैं। जो सब मिल जुल कर, प्रशाद में खाते हैं। थोड़ी सी जगह में संबंधियों मित्रों के साथ आनंद पूर्वक नाच भी लेते हैं।       

    लगातार तीन साल तक गणेशोत्सव में मैं प्रतिदिन कहीं न कहीं गई हूं। वहां हर जगह नियंत्रित भीड़ और जिस भी सोसाइटी के गणपति उत्सव में मैं गई, देखा सब थोड़ी जगह में एडजस्ट हो जाते हैं। दोनों समय की आरती में सभी की कोशिश होती है कि वे जरुर पहुंचें। मेड और मैम दोनो एक दूसरे का सहयोग करते हैं। काम में नागा विसर्जन पर ही एक दिन का। आपके घर मेड काम कर रही है। सोसाइटी के गणपति की आरती शुरु हो गई। उसी समय काम छोड कर, हाथ धो कर बोलेगी,’’दीदी, मैं जाकऱ आती।’’ और आरती में जाकर शामिल हो जाती। समापन पर आकर वैसे ही जल्दी जल्दी काम में लग जाती। 

   विर्सजन का दिन तो मुझे घर से बाहर ही रहने को मजबूर करता। गणेश चतुर्थी के बाद मैं पहली बार लोखण्डवाला से इन्फीनीटी मॉल के लिए निकली। सोसाइटी के गेट से बाहर निकलते ही देखती हूं। एक लड़की ने बड़ी श्रद्धा से गणपति गोद में ले रखे हैं। दूसरी लड़की साथ चल रही है। और ढोल की ताल पर उनके पैर चल रहें हैं। उनके चेहरे से टपकती श्रद्धा को तो मैं लिखने में असमर्थ हूं। मनचला तो मुंबई में होता ही नहीं है। सामने से भी बड़ा विर्सजन जूलूस आ रहा था। इसमें ढोल से ज्यादा ऊंची आवाज़ में श्रद्धालु जयकारे लगा रहे थे,’’गणपति बप्पा मोरिया, अगले बरस तूं जल्दी आ।’’मैंने सैयद से पूछा,’’ये दोनों लड़कियां क्यों विर्सजन के लिए अकेली जा रहीं थीं?’’सैयद बोले,’’बाहर की होंगी। बप्पा ने जल्दी सुन ली होगी। नई नौकरी होगी, तभी तो एक दिन के गणपति बिठाएं हैं।’’ 

   सैयद जहां से भी रास्ता बदलते वहीं हमें विसर्जन का जूलूस मिलता ये देख मैं दावे से कह सकती हूं कि आस्था और भक्ति भाव से किए उन नृत्यों को जिन्हें मैंने विर्सजन जूलूस में देखा है उसे दुनिया का कोई भी कोरियोग्राफर नहीं करवा सकता। गणपति के आकार में और जूलूसों में श्रद्धालुओं की संख्या में र्फक था पर चेहरे के भाव को दिखाने के माप का अगर यंत्र होता तो सबका एक ही होता। किसी के गणपति चार या तीन पहिए के सजे हुए ठेले पर हैं, सजे हुए ऑटो रिक्शा में तो किसी ने उन्हें सिर पर बिठा रक्खा है। कोई बहुत सजे हुए ट्रक में विराजमान हैं।

    पर सब गणपति से विनती कर रहें हैं ’’ अगले बरस तूं जल्दी आ।’’

अगले दिन उत्कर्षिनी बोली,’’संगीता दास के घर गणपति आये हैं। उसका घर दूर हैं पहले उसके घर जायेंगे फिर विजेता के गणपति से मिलेंगे।’’गीता लहंगा पहन कर तैयार हुई। संगीता के घर हम तीन बजे पहुंचे। वह फिल्म इण्डस्ट्री में है, यहां अकेली रहती है। भतीजी चंचल दास(टुन्नु) दूरी के कारण होस्टल में रह कर पढ़ती है। किसी कारणवश गाँव नहीं जा पाई। गणपति को अकेला तो छोड़ते नहीं। घर में दादी के गणपति के पास तो परिवार है। यहां वह बुआ के गणपति के पास आ गई।


संगीता ने बड़ी प्लेटों में तीनों को अलग अलग, बहुत वैराइटी का प्रशाद दिया। सब कुछ घर में बनाया हुआ और बहुत स्वाद। उत्कर्षिनी ने पूछा,’’अकेली ने इतना सब कैसे बनाया!! एक को तो गणपति के पास बैठना है। टुन्नु चाय बना कर लाई बोली,’’कोई आता है तो चाय पानी प्रशाद मैं लाती हूं, बुआ उनसे बात करती है।’’ संगीता ने जवाब दिया,’’तीन दिन के लिए तो गणपति आएं हैं। बाजार का भोग लगाने को मन नहीं मानता, मैं बहुत शौक से बनाती हूं। विजेता का घर तो हमारे रास्ते में था। वहां हम आरती के समय पहुंचे। पण्डित जी नौ बजे के बाद आरती करवाने आए, वो बहुत बिजी थे। आरती सम्पन्न होने तक घर के सभी सदस्य पहुंच गए थे सबने भोजन प्रसाद साथ किया। रात 11 बजे हम लौटे। 

  आनंद चर्तुदशी के दिन सोसाइटी के गणपति का विर्सजन था। सायं चार बजे से नाचते जयकारे लगाते, सब गणपति के जूलूस में चल दिए। पर्यावरण का ध्यान रखते हुए, वर्सोवा में एक तालाब बनाया था, वहां विर्सजन था। ट्रक में गणपति बाकि पैदल नाचते हुए जा रहे थे। मैं बैक रोड से जल्दी जल्दी पेैदल पहुंच गई। वहां बड़ा मंच बना हुआ था। गणमान्य लोग उस पर बैठे थे। मैं किसी तरह तालाब के सहारे मंच के पास खड़ी हो गई। इस जगह से मुझे तीनों सड़कों से आते विसर्जन के जुलूस दिख रहे थे। लोग अपने गणपति के साथ प्रतीक्षा कर रहे थे। अपने नम्बर से पहले आरती करते। माइक से जब सोसाइटी का नाम बोला जाता तो वो गणपति को सुनिश्चत जगह पर लाते, तालाब में खड़े तीन आदमियों में से दो बड़ी श्रद्धा से गणपति लेकर विसर्जित करते। जोर जोर से जयकारे लगते और म्यूजिक बजता। मैं अपनी सोसाइटी के गणपति के इंतजार में खड़ी थी। पर वे नाचते हुए आ रहे थे। अब वे लाइन में लगे हैं। 

     और मेरे दिमाग में अब तक की सुनी गणपति की कथाएं चल रहीं थीं। महर्षि वेदव्यास ने गणपति को महाभारत की कथा लिखने को कहा क्योंकि उनके विचार प्रवाह की रफ्तार से, कलम साथ नहीं दे रही थी। उन्होंने गणेश चतुर्थी के दिन लिखना स्वीकार कर किया पर तय कर लिया था कि वे लगातार लिखेंगे जैसे ही उनका सुनाना बंद होगा, वह आगे नहीं लिखेंगे। महर्षि ने भी गणपति से विनती कर कहा कि आप भी एडिटिंग साथ साथ करेंगे। गणपति ने स्वीकार कर लिया, जहां गणपति करेक्शन के लिए सोच विचार करने लगते, तब तक महर्षि अगले प्रसंग की तैयारी कर लेते। वे लगातार कथा सुना रहे थे। दसवें दिन जब महर्षि ने आखें खोलीं तो पाया कि गणपति  के शरीर का ताप बढ़ गया है। उन्होंने तुरंत पास के जलकुंड से जल ला कर उनके शरीर पर प्रवाहित किया। उस दिन भाद्रपद की चतुर्दशी थी। इसी कारण प्रतिमा का विर्सजन चतुर्दशी को किया जाता है। महाराष्ट्र इसे मंगलकारी देवता के रूप में व मंगलपूर्ति के नाम से पूजता है। 

 गणपति उत्सव की शरूवात, सांस्कृतिक राजधानी पुणे से हुई थी। शिवाजी के बचपन में उनकी मां जीजाबाई ने पुणे के ग्रामदेवता कस्बा में गणपति की स्थापना की थी। तिलक ने जब सार्वजनिक गणेश पूजन का आयोजन किया था तो उनका मकसद सभी जातियों धर्मों को एक साझा मंच देना था। पहला मौका था जब सबने देव दर्शन  कर चरण छुए थे। उत्सव के बाद प्रतिमा को वापस मंदिर में हमेशा की तरह स्थापित किया जाने लगा तो एक वर्ग ने इसका विरोध किया कि ये मूर्ति सबके द्वारा छुई गई है। उसी समय निर्णय लिया गया कि इसे सागर में विसर्जित किया जाए। दोनों पक्षों की बात रह गई। तब से विर्सजन शुरु हो गया। हमारे गणपति का रात नौ बजे विर्सजन हुआ और मैं सबके साथ घर लौटी। कोरोना काल में मित्रों की गणपति की घर में मनाई तस्वीरे आ रहीं थीं।  गमलों पौधों से सजा कर, लाल आसन पर गणपति को हरियाली से सजे कुंज में बिठाया है। प्रथम लेखक गणपति, शक्ति(लाल) समृद्धि(हरा) लाते हैं।  और बताया कि इस साल कोरोना संक्रमण के कारण लोगों से अपील की है कि इस दौरान गाइड लाइन का पालन करें। 

आगमन, विर्सजन के जूलूस नहीं निकल रहे थे। कोरोना मुक्त भारत हो इसके लिए स्वास्थ से जुड़ी जानकारियां दी जा रहीं थीं 

  गणपति उत्सव में, तिलक की याद आ रही थी। उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध सबको संगठित किया था। उस समय कोरोना से बचाव और स्वास्थ्य संबंधी जानकारी दी जा रही थी।

गणेश चतुर्थी पर अदम्य शाश्वत मेरे साथ मंदिर गए।

गीता की अमेरिका से वीडियो और फोटो गणेश उत्सव मनाते हुए उत्कर्षिनी ने भेजी।




Wednesday, 7 September 2022

बासुकीनाथ दर्शन बैजनाथ यात्रा भाग 13 नीलम भागी Basukinath Darshan Baidhnath Yatra Part 13 Neelam Bhagi

 



  लाइन में चलते हुए मैं वहाँ तक पहुँच गई, जहाँ बोर्ड लगा हुआ है, आप मंदिर के करीब हैं। मैंने देखा मेरी सहयात्री कोई भी दूर दूर तक नहीं है। यहाँ से चार लाइनें बराबर चल रहीं हैं। गीले यहाँ भी सभी हैं। मैं पीछे क्यों रह गई? अब मैं इस पर मीमांसा करने लगी। हुआ यूं कि पीछे से कोई कांवड़ियों का ग्रुप ’बोल बम बोल बम’ बोलता दौड़ता हुआ आता मैं साइड दे देती। अब मैं सबसे पीछे हो जाती मेरे आगे 30-40 लोग लग जाते। नीचे कार्पेट बिछे हुए थे जो ज़ाहिर है, गीले हैं।

कहीं कहीं पर कार्पेट नहीं है। उस पर चलते हुए जब मुझे पैरों में कंकड़ चुभ रहें हैं तो कांवड़ियों के तो पैरों में छाले पड़े होते हैं! उनके पांव के छाले में में कंकड़ चुभते होंगे तो व्यवस्थापकों को इस पर ध्यान देना चाहिए। अगली बार कांवड़ियों का बहुत बड़ा ग्रुप ’बम बम’ करता भागता हुआ आया। मैं फिर साइड में लग जाती। बाद में मैंने ध्यान दिया कि वो खाली जगह से दौड़ते आते हैं अगर मैं न हटती तो वे मेरे पीछे लाइन लगा लेते। दाएं बाएं बिना देखे इन्हें भागते देख कर मैंने ध्यान दिया कि आस पास से लोग लाइन में घुस कर व्यवस्था खराब न करें इसलिए साइड पर जाली लगा रखी है। पर ये क्या यह जाली तो उखड़ कर  कहीं कहीं अन्दर की ओर मुड़ी हुई है। कोई भी उसके पास से गुजरेगा तो उसकी टाँगों में चुभेंगी।

फिर र्बोड आ जाता है आप मंदिर के बहुत करीब हैं।

यहाँ से लाइने पास पास होने से बहुत भीड़ हो गई है। इस भीड़ के साथ ही मैं मंदिर के एकदम निकट पहुँच गई पर अपनी तबियत बिगड़ती देख मैं एकदम खुले में आ गई। तो मेरी तबियत सुधरने लगी। सिक्योरिटी से बाहर का रास्ता पूछने लगी। वह मेरे साथ चलता रहा। बस मैंने चलते हुए हाथ जोड़े जो दर्शन किया उससे यही समझी कि मंदिर वैद्यनाथ मंदिर की तरह ही लगता है। पार्वती जी के मंदिर के साथ मां काली का मंदिर है और देवी देवताओं के मंदिर हैं। यहाँ भी लंबी डंडी की कड़छी की तरह में धूप ज्योत जला कर श्रद्धालू गर्भग्रह के बाहर आरती कर रहे हैं। सिक्योरिटी ने मुझसे कहा कि आप अगर ठीक महसूस कर रहीं हैं तो मैं गर्भग्रह में ले चलता हूँ। मैंने कहा,’’नहीं अब जब भी यहां आउंगी तो किसी विशेष दिन पर नहीं। मेला तो दो दिन से देख ही रहीं हूं।’’उसने कहा," आप सीधा जाइएगा वहाँ हमारा स्वास्थ्य शिविर लगा हुआ है।’’ मैं चल दी। भीड़ में चलते हुए शिविर में पहुंच गई। उन्होंने मुझे कुर्सी पर बिठा दिया, मुझे कुछ था ही नहीं। जितनी मैंने लाइन में व्यवस्था की कमियां निकाली। इन लोगों के व्यवहार से मेरी सोच बदल गई। इतने बड़े जनसमूह के इंतजाम में थोड़ी बहुत कमी तो रह ही जाती है और मैं ढूंढ ढूंढ कर कमियां निकाल रही थी। मैंने सोचा कि बस स्टैण्ड पर जाकर अपनी बस में बैठ जाती हूँ। उनसे पूछा कि रिक्शा कहाँ मिलेगी? वे बोले,’’यहाँ भीड़ के कारण रिक्शा मना है, थोड़ा आगे जाकर मिलेगा। और पूछा, "कहाँ जाना है?’’ मैं बोली कि बस स्टैण्ड। उन्होंने पूछा,’’कौन से बस स्टैण्ड यहाँ तो चार बस स्टैण्ड हैं?’’ मैं भूल गई। गुप्ता जी को फोन किया उन्होंने कॉल नहीं ली। मैं आराम से बैठ गई। यह सोच कर कि गुप्ता जी कॉल बैक जरुर करते हैं। इतने में भीड़ में गुप्ता जी ग्रुप के साथ दिखे, मैं भी उनमें शामिल हो गई। क्रमशः     




बासुकीनाथ माहात्म्य, दर्शन की लाइन, बैजनाथ यात्रा भाग 12 नीलम भागी Basukinath Baijnath Yatra Part 12


        गुप्ता जी ने सबको याद करवा दिया दो न0 बस स्टैण्ड पर हमारी पार्किंग है। 300 रु में वीआईपी दर्शन हैं। मैं, डॉ. शोभा और दो महिलाओं को छोड़ कर बाकि सब पण्डा जी के साथ वीआईपी दर्शन को चले गए। यहाँ से मेला परिसर तक रिक्शा में सब गए

पर हम पैदल क्योंकि मुझे पता नहीं क्या देखना होता है? वही रास्ता है आते समय रिक्शा से आउंगी। बहुत ह्यूमिडिटी वाली गर्मी और तीखी धूप है। मेरे पर्स में छाता है पर इतनी भीड़ में छाता लेकर चलने से दूसरों को। परेशानी होगी। सफेद रुमाल था उसे ही सर पर रख लिया, थोड़ी राहत मिली। आगे रिक्शा नहीं जाएगी। सड़क के दोनों ओर बाजार लगे हुए हैं। जिसमें तरह तरह के आचार बिक रहे हैं। सबसे ज्यादा बांस का आचार है। सिलबट्टे की खूब दुकाने हैं। लोग इतना भारी खरीदते होंगे तभी तो इतनी दुकाने हैं। हैंडीक्राफ्ट की बहुत दुकाने हैं। तरह तरह की हाथ से बुनी हुई टोकरियां बहुत सुन्दर लग रहीं हैं। जगह जगह छतरी लगा कर महिलाएं भुट्टे भून कर बेच रहीं हैं। खाने की भी अस्थाई खूब दुकानें हैं।




ये बाजार क्या ओपन मॉल है! जो मुुझे किसी महानगर के मॉल से कम नहीं लग रहा है। ये बाबा के दरबार का बाजार है जहाँ देश भर का एयरकंडीशन में रहने वाला श्रद्धालु भी खरीदार है। श्रद्धालुओं की जेब के अनुसार सबके लिए खरीदारी का सामान है। और मैं कुछ देखते हुए रुक जाती हूँ इसलिए हमेशा अकेली रह जाती हूँ। चारों ओर केसरिया रंग है और "बोल बम" ही सुनाई दे रहा है। बस भीड़ के साथ चलते जाओ। अब वन गंगा या शिव गंगा के साथ चलो तो लाइन में लग गए। मैटल डिटक्टर के पास ही चप्पल उतार दी कोई परवाह नहीं कि लौटने पर वहाँ मिलेगी या नहीं। और मैं लाइन में लग गई। यहां तक आने में हाथ में पकड़ी पानी की बोतल तो पी गई। अब पर्स से एक लीटर की दूसरी निकाल कर खोल ली है। दूर तक किसी के हाथ में पीने का पानी नहीं है लेकिन जल चढ़ाने के लिए गंगा जल है। लाइन धीरे धीरे आगे बढ़ रही है। बाबा धाम से 45 किमी पूर्व में बाबा बासुकीनाथ धाम, अत्यंत ही जाग्रत शैव तीर्थ स्थलों में आता है। ऐसा मानते हैं कि बाबाधाम के दर्शन के बाद बासुकीधाम के दर्शन नहीं किए तो बाबाधाम की यात्रा अधूरी रह जाती है। इसलिए अधिकांश तीर्थयात्री यहाँ पूजा अर्चना करने अवश्य आते हैं। मंदिर का इतिहास सागर मंथन से जुड़ा हुआ है। कहते हैं। वर्तमान मंदिर की स्थापना 16वीं शताब्दी के अंत में हुई। 

  जब देवताओं और असुरों ने मिलकर सागर मंथन किया तो वासुकीनाग मथने में उपयोग हुआ था। इसी स्थान पर वासुकी ने शिव की पूजा की थी। 

   किसी समय इस क्षेत्र में हरा भरा वन था। जिसे दारुक वन कहा जाता था। वनों से होने वाले लाभ को देखते हुए यहाँ लोग बसने लगे। दारुक वन से उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति होती थी। कंदमूल की तलाश में ये वनों में घूमा करते थे। एक बार बासुकी नामक मनुष्य भोजन की तलाश में जंगल में घूम रहा था। उसने कंदमूल प्राप्त करने के लिए जमीन को खोदना शुरु किया। तभी अचानक एक स्थान पर खून बहने लगा। बासुकी घबराकर वहाँ से जाने लगा तभी आकाशवाणी हुई और बासुकी को आदेश हुआ कि वह वहाँ जमीन से प्रकट हुए भगवान शिव के प्रतीक शिवलिंग की पूजा अर्चना करे। उसने कर दी। बासुकी के नाम से ही ये शिव बासुकीनाथ कहलाए। यह बहुत प्राचीन मंदिर है। मंदिर के पास ही एक तालाब है जिसे वन गंगा या शिवगंगा कहा जाता है। यहाँ का जल श्रद्धालुओं द्वारा अति पवित्र माना जाता है। श्रद्धालू गंगा जल और  दूध से भगवान बासुकीनाथ का अभिषेक करते हैं। यहाँ भगवान शिव का स्वरुप नागेश है। क्रमशः  







बासुकीनाथ की ओर बैजनाथ यात्रा भाग 11 नीलम भागी Towards Basukinath Baidhnath Yatra Part 11 Neelam Bhagi




कई वैरायटी की मिठाई खाकर, बाजारों में घूमते हुए हम खूब दूर तक आ गए। वहाँ से डॉ. शोभा ने मंदिर का रास्ता पूछा क्योंकि हमें तो होटल का नाम भी नहीं पता है। सुबह गुप्ता जी ने याद करवा दिया था कि मंदिर के पूर्वी द्वार के पास होटल है। हम बाबा की नगरी का परिचय करते हुए अब मंदिर की ओर जा रहें हैं। यहाँ खरीदारी हो रही है। अगर मैं यहाँ से आचार के आम काटने के लिए गंडासा खरीदना चाहूं तो वो भी खरीद सकती हूँ यानि सब कुछ मिलता है। देश के हर कोने का व्यक्ति यहाँ दिख रहा है। कुछ दुकानों पर तो साफ सुथरे काउंटर के पास ही बहुत स्वच्छता से सामने पेड़े बन रहे हैं। खोया पता नहीं कहाँ भूना जा रहा होगा? चलते चलते हम मंदिर पहुंच गए। मैंने तो जूते पहने हुए हैं। इतनी भीड़ में यहां तो जूते चप्पल की व्यवस्था हो ही नहीं सकती। मैं जहाँ भी गई हूँ, वहाँ संध्या आरती में ज़रुर शामिल होती हूँ। श्रावणी मेले की भीड़ में यहाँ की आरती में शामिल होने की मैं हिम्मत नहीं कर पाउंगी! खैर हम पूर्वी दरवाजा पूछते हुए वहाँ गए और वहाँ से होटल पहुंच गए। कुछ देर रैस्ट किया। पास में ही मंदिर होने से आरती की आवाज़ आ रही है। 

  रात बहुत अच्छी नींद आई। 9 बजे हमें बासुकीनाथ के लिए निकलना है। सुबह तैयार होकर पैकिंग की फिर ब्रेकफास्ट करके मैं चाय वाले की बैंच पर बैठी तीर्थ यात्रियों को देखती रही। हमें आगे चौराहे पर पहुंचना है। वहाँ बासुकीनाथ ले जाने के लिए हमारी दो मिनी बस खड़ीं हैं। सब वहाँ तक पैदल चल पड़े। पतले रास्ते, खूब कावड़िये और रास्ते में शॉपिंग  भी तो करनी है। अनिल कुमार अग्रवाल ने एक ई रिक्शा ले ली। आयुष ने मेरा लगेज़ उस पर रख दिया। मैं खाली हाथ बतियाती सबके साथ चल दी। ताजे फल टोकरियों में महिलाएं बेच रहीं हैं। अमरुद, अनानास मसाला लगा कर बेच रहें हैं। हम खा रहें हैं। जब शॅापिंग के लिए रुकते, मैं किसी दुकान के आगे पड़ी बैंच पर बैठ जाती हूँ। एक आदमी मेरे पास आकर पूछने लगा,’’आपने चश्मा नज़र का लगाया है।’’ मैंने कहा,’’हाँ।’’सुनते ही वो बोला,’’ मैं कोई दवा नहीं बेच रहा हूँ। पर जो बताउंगा उससे आपका चश्मा उतर जायेगा। आप घर जाकर अमुक कंपनी का शहद लेकर उसकी एक बूंद सुबह, एक बूंद शाम को आँखों में डालना। चश्मा उतर जायेगा।’’ मैंने जवाब दिया,’’श्रीमान जी मैं वही करती हूं जो मेरा आँखों का डॉक्टर कहता है।’’जवाब सुनते ही पता नहीं क्यों वे गुस्से में पैर पटकते चल गए! हम पैदल मिनी बस पर पहुँच भी गए।




कांवड़ियों के कारण ई रिक्शा बहुत देर में आई। सब के आते ही अब हम बासुकीनाथ की ओर चल दिए। हरियाली से भरा बढ़िया सड़क वाला यह रास्ता है। इस ड्राइवर का नाम सुरेन्द्र है। यहाँ कुछ गाड़ियों में फट्टे लगा कर डबल डैकर बना कर कावड़ियों की संख्या दुगुनी बिठा रखी है। रास्ते में कावड़ियों के विश्राम के लिए हॉल यानि कांवड़िया धर्मशालाएं भी बनी हैं। पर पैदल कांवड़िये बहुत कम दिखे। सुरेंद्र ने बताया कि यहाँ पैदल काँवड़ भादों में ज्यादा आती है। कुछ दूरी पर चौड़ी सड़क के दोनो ओर जबरदस्त पेड़ा मार्किट है। 45 किमी का रास्ता पार करके दुमका पहुँचे। यहाँ रेलवे स्टेशन भी है। हमें बस अड़डा न0 2 पर पार्किंग करने को कहा। क्रमशः