डॉ0 महेश पाण्डे ’बजरंग’ जी को फोन किया साथ ही मूसलाधार बारिश शुरु हो गई। उसके और गाड़ियों के शोर में मुझे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था। इतना समझ आया कि बाहर गाड़ी खड़ी है। मैं सीढ़ी चढ़ कर एक्ज़िट की ओर चल दी। डॉ0 महेन्द्र शुक्ला का फोन आया, वे पूछ रहे थे,’’ मैं कहाँ हूँ?’’मैं किसी दूसरे निकास द्वार की ओर पहुँच गई थी। मैंने बाजू से गुजरते कुली से पूछा,’’मैं कहाँ खड़ी हूँ?’’उसने जो बताया मैंने फोन पर बता दिया साथ ही कहा कि मैंने भगवा कुर्ता जिसपर नीले अक्षर छपे हैं, पहन रखा है। शुक्ला जी ने कहाकि आप वहीं रहिए, हम आते हैं। थोड़ी देर में शुक्ला जी भीगते दौड़ते आए और बोले,’’सामने गाड़ी खड़ी है, बारिश में वहाँ तक जा सकेंगी क्योंकि गाड़ी यहाँ आ नहीं सकती है।’’मैंने पर्स से छाता निकाला, उन्होंने मेरा लगेज़ उठाया और भीगते हुए गाड़ी की ओर दौड़े। मैं छाता लगाए चलती हुई गई और आगे की सीट दरवाज़ा खोल दिया। सीट पर बैठते ही प्रवीण आर्य जी का फोन आया,’’नीलम जी आपका पिक अप हो गया?’’ मैंने जवाब दिया,’’हो गया।’’शुक्ला जी ने पूछा,’’आधे घण्टे में दूसरी गाड़ी आने वाली है। आपको पहले छोड़ आएं या उनका इंतजार कर लें।’’मैं बोली,’’नहीं नहीं उन्हें भी साथ लीजिए।’’वे बोले,’’इतनी देर आपको यहाँ की मशहूर अमुक जी की चाय पिलाते हैं।’’वहाँ पहुंचे तो उनकी दुकान बंद हो चुकी थी। इतनी बारिश हुई थी पर सड़कों पर जल भराव नहीं दिखा। अब हम स्टेशन पर आ गए। स्टेशन लाल रंग की एलईडी रीबन लाइट से बहुत सुंदर लग रहा था। मैं बारिश रुकने का इंतजार कर रही थी, ’वीरांगना लक्ष्मीबाई स्टेशन’ का रात में फोटो लेने का। इधर बारिश रुकी, मैंने फोटो ली।
जिनका हम इंतजार कर रहे थे वे आ गए। वे थे प्रो. संजय द्विवेदी(महानिदेशक, भारतीय संचार संस्थान, नई दिल्ली) गाड़ी चल पड़ी। मैं तो उन्हें मंच से कई बार सुन चुकी थी। परिचय के बाद गाड़ी में भी मैं तो श्रोता थी। लेकिन रिर्सोट तक पहुंचने तक समझ गई कि प्रो0 संजय द्विवेदी जी का मंच से व्याख्यान तो श्रोताओं को बांधे रखता है। स्वभाव में जरा भी पद का गुरुर नहीं है। रास्ते में उनसे इस तरह बातें कर रहे थे उनके प्रश्नों का जवाब दे रहे थे जैसे कितने पुराने परिचित हों।
रिर्सोट में पहुँचते ही सामने खाना लगा हुआ था। धीरज मिश्रा जी ने पूछा,’’पहले आप खाना खाएंगी या रुम में जायेंगी।’ मैंने कहा,’’खाना।’’क्योंकि मैं जाते ही सोना चाह रही थी। जाके आने का मन नहीं था। बुफे लगा हुआ था, मैं खाना लेने जाने लगी तो धीरज जी बोले,’’आप बैठिए न, खाना यहीं आ जायेगा।’’ धन्यवाद करके मैं लेने गई क्योंकि मैं जूठा नहीं छोड़ती। मैं जितना खाती हूं, उतना ही लूंगी। स्वादिष्ट भोजन करके रुम में गई। मेरे साथ डॉ0 साधना बलवटे थी, कुछ देर में वे लाजवाब कानपुर के पेड़े लेकर आईं। डिनर में गुलाबजामुन खा कर आई थी। ब्राह्मणी हूँ न ज़ाहिर है मीठे की शौकीन हूं, पेड़े को मना नहीं कर सकी खा लिया। डॉ0 साधना को अगले दिन संचालन करना था, राष्ट्रीय मंत्री हैं, लगातार उन्हें फोन आ रहे थे। हम जो भी बात शुरु करते फोन आ जाता। वो बात में लगीं और मैं सो गई। सुबह सोकर उठी वो बोलीं,’’चाय आई थी आप सो रहीं थीं, मैंने वापिस भेज दी।’’ये सुनकर मैं बहुत खुश हुई। क्रमशः