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Tuesday, 10 December 2024

अपने स्वभाव के अनुसार संसार के कर्म सरल रूप से करते रहो नीलम भागी

 


दुबई में मेरी जर्मन सहेली कात्या मूले अपनी किताबों का संग्रह दिखाने लगी तो वहाँ अंग्रेजी में अनुवाद गीता देखते ही मैंने उससे पूछा,’’गीता पढ़ कर तुम्हें कैसा लगा?’’उसने गीता को उठाया, उस पर हाथ फेरते हुए जवाब दिया,’’जब भी इसे पढ़ती हूँ, कुछ नया पाती हूँ।’’

 और मुझे अपनी दादी याद आने लगी, जिसका शस्त्र था संस्कृत और गीता। वह गीता को जरी गोटे के खूबसूरत कपड़ें में लपेट कर रखती थीं। सुबह नहा कर जैसे ही वह गीता हाथ में लेंती, आस पास की अनपढ़ महिलाएं तुरंत हमारे आंगन में आकर उनका आसन बिछातीं, चौकी रखतीं। उस पर आलथी पालथी मार कर बैठती। दादी सामवेद की ऋचा की तरह ऊँची आवाज़ में गीता का श्लोक पढ़तीं। जिनकी आंगन की दीवार ऊँची थी, वे आवाज सुन कर दौड़ती हुई आतीं। फिर दादी उसका अर्थ समझातीं। जब मैं संस्कृत पढ़ने लगीं। तो मैंने अम्मा से कहा,’’दादी श्लोकों का गलत अर्थ बताती हैं।’’सुन कर अम्मा मुस्कुराते हुए बोलीं,’’मुझे पता है, अगली बार इसी श्लोक का अर्थ दूसरा होगा। तू स्कूल जाती है, मैं तो रोज सुनती हूँ। बेटी, माताजी असाधारण महिला हैं। महिलाएं इनसे दिल की बात करती हैं। जिसको ये टारगेट करती हैं उसे जो समझाना होता है, वैसा ही इनका अर्थ होता है। गीता हम लोगों के ज़हन में रहती है। इसलिए संस्कृत में श्लोक बोल कर ही अर्थ करतीं हैं। इनका बहू बेटियाँ भी कितना सम्मान करतीं हैं!’’ दोपहर को दादी मोहल्लेदारी करने जातीं थीं। वहीं से वह श्लोक के अर्थ की तैयारी करती थीं,  श्लोक कोई भी हो सकता। अगले दिन जिसे गीता के माध्यम से वे समझातीं थीं। दादी को सिर्फ पढ़ना आता था। उनकी इस आदत ने मेरा गीता के प्रति लगाव पैदा कर दिया। उत्कर्षिनी की बेटी के जन्म पर उस साल गीता की 5151वीं जयंती थी। हमने उसका नाम गीता रख दिया।