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Saturday, 2 February 2019

मुज्जफरपुर से दरभंगा बिहार यात्रा Muzaffarpur se Darbhanga Bihar Yatra 14 Neelam Bhagi नीलम भागी

मुज्जफरपुर से दरभंगा बिहार यात्रा 14
                                नीलम भागी
राजा और उसके दोनो साथी हमें मुज्जफरपुर छोड़ कर वापिस रात में ही चले गये थे। लंच के बाद हमें दरभंगा के लिये निकलना था। एक गाड़ी आ गई दो का इंतजार करते रहे। अभी आ रही है करते करते चार बज गये, अब तीनों गाड़ियाँ इक्कट्ठी हुई तो सर को गुस्सा आ गया। उन्होंने उनसे कह दिया कि हम अब तुम्हारी गाड़ियों में नहीं जायेंगे। तुमने एक बजे कहा था और चार बजा दिए। हम किसी दूसरे एजेंसी की गाड़ी से जायेंगे। दूसरे से बात की उसने तुरंत दो गाड़ियाँ भेज दीं और कहा कि तीसरी अभी आ रही है। अब तीसरी के इंतजार में शाम के छ बज गये। जैसे ही वह गाड़ी आई, तीनों में सामान रख, फटाफट सब बैठ गये। अब किसी ने क्रोध नहीं किया। न किसी ने प्रश्नोत्तर किये। मैं तो वैसे ही नहीं करती क्योंकि मेरे बस का इंतजाम करना नहीं है इसलिये इंतजाम करने वालों का कहना मानती रहती हूँ। जो जाने का समय दिया जाता है, उस पर हमेशा तैयार रहती हूँ। यहाँ से दरभंगा 72 किमी दूर था। अच्छी सड़के मिलने से हम आठ बजे पहुंच गये। हमारी गाड़ियाँ रूकी। सड़क पार सर कामेश्वरसिंह संस्कृत विश्वविद्यालय का लाल रंग का विशाल भवन था। मैं आगे वाली गाड़ी में ड्राइवर रमेश के बाजूवाली सीट पर बैठी थी। फटाफट उतरी खूब भीड़ वाली सड़क को पार कर संस्कृत विश्वविद्यालय के गेट पर जाकर खड़ी हो गई, मुड़ कर देखा, हमारा कोई साथी मेरे साथ नही र्सिर्फ रमेश आ रहा था। वे गाड़ी से आवाजें लगा रहे थे। अरे नीलम जल्दी आओ, रात हो रही है पहले होटल का इंतजाम कर लें। गेट के आगे रात में ठेले लगे थे। मैं फोटो लेने लगी। रमेश मेरे पास आकर बोला,’’आपका मोबाइल कोई छीन के भाग जायेगे। ऐसे उठ कर अकेले मत भागिये।’’ मैं भागी नहीं थी, तेजी से चल कर गई थी। जिन स्थानों को मैंने पढा़ होता है। उन्हें देख कर मैं बहुत खुश होती हूँ और ऐसी गलती कर देती हूँ। अब मेरी सीट बदल दी गई। स्कॉरपियो की पीछे की दोनों सीटों के बीच में बैग ठूंस कर एक लंबी आरामदायक सीट बना दी। उस पर पैर फैला कर, मैं मजे से बैठ गई और देर तक पीछे से सीन देखती रहती। जब सब गाड़ी से उतरते तो सबसे बाद में रमेश आकर, मेरा दरवाजा खोलता तो मैं उतरती। हम घने बसे भीड़ भाड़ वाले शहर में जा रहे थे। सर और उनके साथी होटल खोज रहे थे और मैं शहर से परिचय कर रही थी। बागमती के किनारे बसा आम और मखाना के लिये प्रसिद्ध दरभंगा के बाजार में ठेले ताजी सब्जियों और फलों से लदे हुए थे। बाजारों में सामान भी था और खरीदार भी थे। भीड़ भाड़ वाली सड़कें। गाड़ी साइड लगा कर, सब लोग होटल देखने चल देते। महिलायें गाड़ी में या उसके आस पास रहतीं। कोई होटल किसी को पसंद आता तो किसी को दूसरा। जो सबकी पसंद बना। तब मैं गाड़ी से उतरी। डिनर किया। हमें सुबह सात बजे यहाँ से निकलना था। सबसे पहले मैं सात बजे सामान के साथ रिसेप्शन में आ गई। सबके आते ही हम निकले। 6200 किमी में बसे इस शहर की शुरूआत 16वीं सदी में मैथिल ब्राह्मण जमींदारों ने की थी। यहाँ के राजाओं को कला, संस्कृति और साहित्य को बढ़ावा देने के लिए जाना जाता है। कुमारिल भट्ट, मंडन मिश्र, नार्गाजुन, चंद्र मोहन पोद्दार के लेखन से इस क्षेत्र ने प्रसिद्धि पाई है। परंपरा से यह शहर मिथिला के ब्राह्मण  के लिये संस्कृत में उच्च शिक्षा केन्द्र के लिए प्रसिद्ध है। स्वर्गीय महेश ठाकुर द्वारा स्थापित दरभंगा राज किला परिसर शिक्षा केन्द्र बन चुका है। 26 जनवरी 1961 को स्व. महाराजाधिराज डॉ. सर कामेश्वर सिंह की महान दानशीलता के फलस्वरूप बिहार के राज्यपाल डॉ. जाकिर हुसैन, मुख्यमंत्री डॉ. श्री कृष्ण के सौजन्य से कामेश्रवर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। अपनी प्राचीन संस्कृति और बौद्धिक परंपरा के लिये यह शहर मशहूर है। मिथिला पेंटिंग, ध्रुपद गायन की गया शैली और संस्कृत के विद्वानों ने इस शहर को दुनिया भर में पहचान दी है। हम शहर से बाहर आ रहें हैं। क्रमशः