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Wednesday, 3 August 2016

शहडोल, विराटेश्वर मंदिर सोहागपुर और स्लीपर Madhya Pradesh Part 19 Neelam Bhagi नीलम भागी



  होटल से सामान गाड़ी पर रक्खा और शहडोल की ओर चल दिये। माई की गुफा में हमें एक शहडोल से आया परिवार मिला था। मैंने उनसे पूछा था कि शहडोल में घूमने की जगह कौन सी है? उन्होंने बताया कि विराट मंदिर और बाण गंगा दोनो आजू बाजू में है। इन्हें भी देखने का मन बना लिया। गाड़ी चली तो कोई बात नहीं कर रहा था। सभी की निगाहें रास्ते की खूबसूरती के कारण बाहर टिकी  हुई थीं। कहीं कहीं र्बोड पर लिखा था कि गाड़ी धीरे चलायें, बेवज़ह र्हान बजा कर शांति भंग न करें। शरद ने इसका कारण बताया कि जानवर ट्रैफिक नियम नहीं जानते, वे सड़क पार करते समय गाड़ी से दब न जायें, इसलिए धीरे चलाएं। हाॅर्न के शोर से जानवरों के आराम में बाधा न पड़े इसलिये ऐसा लिखा है। रास्ते में जोहिला नदी उसने दिखाई, वो हमें अच्छी नहीं लगी क्योंकि हमारे मन पर माँ नर्मदा की असफल प्रेम कहानी छाई हुई थी। सहेली होकर, देवी नर्मदा के साथ उसने अच्छा नहीं किया था। ऐसी दुष्टा सहेली को भला कोई कैसे पसंद कर सकता है। खै़र सड़क के रास्ते हम अनूपपुर से परिचय करते जा रहे थे। शहडोल प्राचीन खूब भीड़ भाड़ वाला शहर है। ठेलो पर भी साउथ इंडियन खाना बिक रहा था। एक चाट मार्किट भी दिखी। बाण गंगा के दर्शन किये। पास ही विराटेश्वर मंदिर सोहागपुर है। यह मंदिर कलचुरी शासकों द्वारा बनाये गये उत्कृष्ट स्मारकों में है। यह एक चबूतरे पर है। वहाँ लगे एक शिला लेख के अनुसार स्थापथ्य एवं कला शैली से यह लगभग ग्यारहवीं सदी ई. का प्रतीत होता है। अब हम भीड़ वाले शहर से चाट मार्किट के सामने से निकले, बड़ी मुश्किल से टिकट कन्र्फम हुई थी इसलिये कहीं नहीं रूके। रास्ता साफ मिला इसलिये समय से डेढ़ घण्टा पहले ही स्टेशन पहुंच गये। उत्कल एक्सप्रेस एक घण्टा लेट थी। अब स्टेशन पर चाट बहुत याद आ रही थी। गाड़ी के आने का समय हुआ तो फिर एक घण्टा लेट और प्लेटफाॅम भी बदल गयां। फिर सामान उठा कर सीढ़ियाँ चढ़ते, उतरते भीड़ में धक्के खाते और धकियाते, बताये गये प्लेटफाॅर्म पर पहुँचे। साठ सालों से ऐसा कभी कभी होता था। ये परम्परा अब भी कभी कभी कायम हैं। स्लीपर में शाम आठ बजे अपने डिब्बे में चढ़े। हमारी सीटों पर पहले से सवारियाँ बैठी थीं। हमने उन्हें अपनी टिकट दिखाई , तो उन्होंने खिसक कर बैठने की जगह दी, यहाँ आधे से अधिक  सवारियाँ तो बिना रिर्जवेशन की थी बिना टिकट भी थीं। इतने में टी.टी. आता दिखा, तो हमारी सीटे अपने आप खाली हो गई। उस पर बैठी सवारियाँ दाएँ बाँए चली गई। टिकट चैक हुई। हम दिन भर के थके थे। सोना चाहते थे। बर्थ पर लेट गए। टी.टी. के जाते ही सवारियाँ लौटने लगी। लेटने के बाद बर्थ पर जरा भी जगह देखते, कोई न कोई बैठ जाता। यानि आप जिस पोजीशन में लेट गये, उसी में लेटे रहें। पर एक गनीमत थी कि महिला लेटी है, तो उसके साथ महिला ही बैठती थी। पुरुष लेटा है, तो उसकी सीट पर पुरुष ही बैठा। सुबह होते ही स्टुडैण्ट ही चढ़ते और उतरते रहे। मथुरा तक यही सिलसिला चला। मथुरा में आधा डिब्बा खाली हो गया। अब सोच रही थी, उस जरनल डब्बे के अल्प साधन संपन्न लोगों के बारे में, जिसमें  एक घण्टे की यात्रा चार पाँच घण्टों में पूरी हुई थी। उन्हें किसी से शिकयत नहीं, न ही सरकार से। और वो टू ए.सी. में एक रिर्जव सीट पर तीन महिलाओं की यात्रा करना और स्लीपर को बिना टिकट वालों द्वारा जनरल डब्बे में तब्दील करना।  हजरत निजामुद्दीन स्टेशन पर हमारी यात्रा को विराम मिला। अगली यात्रा की पैकिंग कर रहीं हूँं। कहाँ जाना है ? मेरे लिये सरप्राइज़ है। बेटी का जन्मदिन हैै, इस पर परिवार कहाँ जा रहा है? मुझे तो एयरर्पोट जाकर ही पता चलेगा। अपना अगला यात्रा वृतांत्र आपके साथ शेयर जरूर करूँगी।