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Thursday 8 July 2021

खाना बचाएं, पुण्य कमाएं नीलम भागी Clean your plate campaign and women Neelam Bhagi



सर्वज्ञा पहली बार होस्टल में गई तो रात को मैंने फोन पर उसके पहले दिन का अनुभव पूछा। उसने छूटते ही कहा,’’बुआ यहां लड़कियां खाना बहुत वेस्ट करती हैं। मैस में बुफे लगता है। हम खाना खा कर ही तो बड़े हुए हैं, हमें पता है कि हम कितना खाते हैं? उन्हें उतना ही लेना चाहिए। आपने हमें बचपन से सिखाया है ’खाओ मन भर, छोड़ो न कण भर’।’’मैंने जवाब दिया,’’लाडो तूं जूठा छोड़ने की गंदी आदत मत सीख जाना। कोशिश करना, वे भी जूठा न छोड़ें।’’उसे कह तो दिया पर मैं जानती हूं, कुछ लोगों में जूठा छोड़ने का रिवाज़ होता है। लेकिन मेरे परिवार में किसी को भी खाना बर्बाद करने की आदत नहीं है। मुझे याद आया, जब मैंने खाना बनाना शुरू किया तो मुझसे सब कुछ ज्यादा ही बनता था। पर रोटी फालतू नहीं बनती थी क्योंकि वह चूल्हे से सिक कर सीधे थाली में जाती थी। सब ताजा खाते थे इसलिए फालतू बनने का सवाल ही पैदा नहीं होता था। गाय घर में हमेशा रहती थी जो दाल सब्ज़ी बचती, मैं उसकी सानी में डाल देती। दादी देखती पर कभी भी परिवार की जो भी लड़की खाना बनाना शुरू करती, उसकी किसी भी कमी पर तुरंत ज्ञान नहीं बांटती। फिर फुर्सत के समय पास में प्यार से लिटा कर बात शुरू करती। मसलन मुझे कहने लगी,’’तेरा बनाया खाना खाकर लगता ही नहीं कि तूने दो चार दिन से ही बनाना शुरू किया है। घर में किसी ने तुझे सिखाया भी नहीं। चिड़िया के बच्चे जैसे मां को उड़ता देख कर उड़ने लग जाते हैं न, ऐसे ही हमारे परिवार की लड़कियां, मां, दादी को खाना पकाते देख कर, पकाना सीख जाती हैं। बस जिस दिन तूं फालतू बनाना बंद कर देगी तो हमारे जैसी हो जायेगी।’’ मैं तुरंत बोली,’’दादी, फालतू कहां! वो तो गंगा की सानी में डाल देती हूं।’’ये सुन कर दादी ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया,’’बेटी तूं और गंगा मैदान में जाओ, गंगा भूखी होगी तो घास चर लेगी, पेड़ के पत्ते खा लेगी। तुझे भूख लगेगी तो तूं गंगा के चारे से पेट भर सकती है! नहीं न। हर जीव का अपना खाना होता है। हरेक के घर में गाय तो होती नहीं इसलिए फालतू खाना तो र्बबाद ही होगा न। हमें भी धीरे धीरे समझ आ गई थी। सारी जिंदगी रसोई में बीती है इसलिए कभी कोई खाने वाला बढ़ गया तो झटपट अपने लिए कुछ और बना लिया। बेटी खाने को बर्बाद होने से बचाया तो पुण्य कमाया। जो हमारा राशन बचेगा वो कहीं और काम आयेगा। मकई के एक दाने से एक पौधा निकलता है। उस पर भुट्टे लगते हैं। एक भुट्टे पर कितने दाने लगते हैं न!’’दादी की सीख दिमाग में बैठ गई की अन्न का एक-एक दाना कीमती होता है इसलिए कभी अन्न का एक दाना भी र्बबाद नहीं किया। खाने के सामान की लिस्ट बनती है। शैल्फ लाइफ देख कर सामान खरीदना चाहिए और ख़राब होने से पहले उपयोग करना चाहिए। फ्रिज और अल्मारियां खाने के सामान से तभी भर कर रखनी चाहिए अगर सब सामान उपयोग में आए या बाज़र घर से दूर हो। वरना पड़ा पड़ा खराब हो जाएगा तो फैंकना ही पड़ेगा। हमने भोजन का अनादर किया। समय रहते किसी को दे देते तो भोजन का अनादर नहीं होता। फल, सब्ज़ियां, डेयरी पदार्थ, मांस आदि अगर वाकिंग डिस्टैंस पर बिकते हैं तो इनसे फ्रिज नहीं भरना चाहिए। सामान खरीदते समय एक्सपायरी डेट देखकर खरीदें और समय से उपयोग करें।          

 

Tuesday 6 July 2021

खाने की र्बबादी और महिलाएं !! नीलम भागीClean your plate---Reduce food wastage. Neelam Bhagi

बहुत यात्राएं करती हूं अक्सर मैंने राजधानी गाड़ी में देखा है कुछ महिलाएं खाना सर्व होते ही आसपास पूछतीं हैं कि किसी को चावल या रोटी चाहिए। जिसको जरुरत होती है वो ले लेता है। अगर कोई न लेने वाला हो तो वे रोटी या परांठे का पैकेट पर्स में रख लेतीं हैं और चावल खा लेतीं हैं। मजा़ल है जो उनकी नाश्ते या खाने की ट्रे में एक टुकड़ा भी जूठा पड़ा हो। जो भी फालतू होता है उसे निकाल कर अपने पर्स में रख लेतीं हैं। मैं ये देख कर मन ही मन उनकी सराहना करती हूं कि इन्होंने खाने को जूठा न छोड़ कर कचरे में जाने से बचाया है और ये कचरा तो पर्यावरण को ही दूषित करता है। डिनर के बाद जब सहयात्री बतियाते हैं तो मैं तारीफ़ करते हुए कहती हूं कि मुझे आपकी जूठा न छोड़ने की आदत बहुत अच्छी लगी।




ये सुनते ही उनके अब तक जवाब बहुत अच्छे मिले हैं। मसलन कुछ लोगों के लिए जूठा छोड़ना तमीज़ है। ग़वार लोग जूठा छोड़ कर ये जताना चाहते हैं कि वे बहुत खाते पीते घर के लोग हैं। और खा खाकर अघाए हुएं हैं। अगर वे थाली में कुछ छोड़ेंगे नहीं, तो दूसरों को लगेगा कि पता नहीं ये कब से भूखा है! नहीं जानती कि कैसे ये घटिया सोच इनकी खोपड़ी में जम गई है। सब को अपनी भूख पता होती है। फालतू खाना, खाने से पहले ही निकाल दो। ’उतना ही लो थाली में, व्यर्थ न जाए नाली में।’अब देखिए न, खाना बनाने में समय लगता है, पैसा लगता है और मेहनत लगती है। पर किसी की गलत सोच उसे कचरे में बदल देती है। ये कचरा पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचाता है। हम वातानुकूलित डब्बे में सफ़र कर रहें हैं। ये जो हमने सूखा खाने का सामान निकाल कर रखा है। ये खराब तो होगा नहीं। जहां गाड़ी ज्यादा देर के लिए रुकेगी, गेट पर खड़े होते ही भिखारी आ जाते हैं उन्हें दे देगे। अगर किसी कारणवश नहीं दे पायी तो ये मेरे साथ घर जायेंगे। ( दिल्ली से मुंबई की गाड़ी थी) वह कुछ सोच कर कहने लगी,’’ वह वापी पर उतरेगी तब तक शायद नाश्ता सर्व नहीं होगा। घर जाते ही पैकेट में रोटी, परांठा जो भी है उसके तिकोने पीस काट कर, एयर फ्रायर में रख कर ऑन कर दूंगी। फ्रेश होकर आउंगी तब तक ये कुरकरे हो जायेंगे। कॉफी बना कर, इस नमकीन और फ्रीज़ से मनपसंद की डिप लेकर कुरकुरे रोटी के टुकड़े चिप्स की तरह मजे़ से खाउंगी।’’ अब टॉपिक बदला, बची हुई रोटियों से क्या क्या बन सकता है, इस पर चर्चा शुरु हो गई।

ये सुनकर एक सज्जन बोले,’’ये ताज़ी रोटी से भी तो बन सकता है क्योंकि मेरी पत्नी तो ताजा़ खाना उस समय बनाती है जब हमने खाना हो इसलिए कभी फालतू बनता ही नहीं है।’’ ये सुनते ही उनकी पत्नी ने जवाब दिया,’’दाल सब्ज़ी कभी ज्यादा हो जाती है तो अगर मुझे उसका अगले समय इस्तेमाल करना हो या उससे परांठे बनाने हों तो तुरंत ठंडा करके फ्रिज़ में रख देती हूं। वरना बाई, चौकीदार या प्रेसवाले को तुरंत दे देती हूं। कभी भी दो तीन दिन की बासी करके किसी को नहीं देती। बचपन से हमने सीखा है कि खाना भगवान का प्रसाद है और प्रसाद को फेंका नहीं जाता।’’            


Tuesday 26 September 2017

भोजन प्रशाद और अन्न बर्बाद, 20 प्रतिशत खाना सामाजिक एवं धार्मिक समारोह में फेंका जाता है नीलम भागी

विश्व खाद्य सुरक्षा दिवस पर शुभकामनाएं
                                          
तुम  तो दुनिया में निन्दा करने के लिए ही तशरीफ लाई हो, गीता उत्कर्षनी  का मेरे बारे में ये कहना है। अब देखिए न, हमारा देश उत्सवों और त्यौहारों का देश है।  मंदिरों  के हॉल और प्रांगण में, आए दिन  विभिन्न सामाजिक संस्थाओं द्वारा और मंदिर समिति द्वारा कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। कार्यक्रम के समापन पर प्रशाद वितरण किया जाता है और कभी-कभी भोजन प्रशाद की भी व्यवस्था होती है। सभी सभ्य लोग होते हैं, वे उतना ही लेते हैं, जितना वे खा सकते हैं। पीने के पानी की व्यवस्था के पास ही, पहिये वाले बड़े-बड़े कूड़ेदान रख दिये जाते हैं । जिसमें श्रद्धालु भोजन के बाद अपनी डिस्पोजेबल प्लेट डालते हैं।
मैं अपनी निन्दा करने की आदत से मजबूर होकर डस्टबिन के पास खड़ी होकर देखती रहती हूँ कि कौन भोजन प्रशाद फेंक रहा है? पर मुझे निराशा ही हाथ लगती है क्योंकि ये लोगो की श्रद्धा ही है कि वे मंदिर में मिलने वाले भोजन को प्रशाद के रुप में लेते हैं, उसे कूड़े में नहीं फेंकते। मंदिर के बाहर बैठने वाले भिखारी भी आते हैं, क्षमता से अधिक लेते है, जब खाया नहीं जाता तो बचे हुए को साथ ले जाते हैं। ये भी ठीक है।
नवरात्रों, कन्यापूजन, रामनवमीं, हनुमान जयंती और अन्य त्यौहारों और विशेष दिनों में  जगह-जगह भण्डारे लगते हैं पर सबसे ज्यादा मंदिरों के आगे। इन दिनो मंदिर सुबह 5 बजे से रात 10 बजे तक खुलता है। आप हर समय पूजा कर सकते हैं। मैं प्रतिदिन अपनी सुविधा के अनुसार अलग-अलग समय पर मंदिर जाती हूँ। जितना मंदिर अंदर से साफ होता है, उतना ही बाहर। पर बाहर बार-बार सफाई करवाने पर भी गन्दा हो जाता है। कारण वहाँ श्रद्धालु गाड़ियों में खाने का सामान लाते हैं और भण्डार शुरु कर देते। दिन में कई बार भण्डारा वितरण होता है। खाने वाले अघाये हुए होते हैं। कूड़े कचरे से या सड़क पर जैसी भी पॉलिथिन की थैली मिलती, उसमें खाना ले लेकर भरते जाते हैं और जहाँ सुविधा होती है, वहाँ टाँग देते हैं। अगर मंदिर के आस पास कोई पार्क है, तो उसकी ग्रिल पर खाने से भरी थैलियाँ टाँगी हुई होती हैं। जिस पर लगातार धूप पड़ रही होती है। जिसे कुत्ते भी सूंघ जाते हैं। घर ले जाकर जिसे भी खिलाते होंगे, पता नहीं वो कैसे पचाते होंगे? या इन शुभ दिनों में जगह-जगह लगने वाले भण्डारों में खा कर, उनके घर वालों में भी खाने की क्षमता ही नहीं बचती होगी। खाने से भरी थैलियाँ कूड़े में ही फैंकी जाती होंगी।
एक परिवार थैलियों और प्लेटों में भर कर खा रहा था। इतने में कुछ भक्त आये, वे भी खाना बाँटने लगे। अब ये परिवार वहाँ से भी लेने लगा। दूसरे वाला खाना सूंघ कर, पहले वाला खाना छोड़ कर, वे दूसरा खाना खाने लगे क्योंकि ये खाना देसी घी का था। अब बचा हुआ खाना भीड़ के कारण, लोगों के पैरों के नीचे आकर गन्दगी फैला रहा था। जबकि पास ही कूड़ेदान पड़ा था, जिसका प्रयोग ये लोग करना ही नहीं जानते। या नुकसान की वजह से ये कूड़ेदान में प्लेट फेंकने नहीं जा रहे थे क्योंकि कुछ लड़के-लड़कियाँ कभी भी दस के नोट बाँटना शुरु कर देते थे।
   किसी संस्था ने जब पहला विशाल कार्यक्रम किया तो उत्तम व्यवस्था के कारण हजारों लोगों के भण्डारा खाने के बाद भी राशन बच गया। बचा हुआ राशन 



न उन युवकों ने मंदिर की रसोई को दे दिया। मैं वहाँ उस समय उपस्थित थी। जिसका उचित उपयोग हुआ। क्या श्रद्धालु ऐसा नहीं कर सकते? वे अपना अन्न, धन मंदिर को दे।ं जिससे मंदिर की ओर से चलने वाली प्रशाद व्यवस्था में उसका उपयोग हो। प्रशाद तो यहाँ से राजा और रंक दोनों को मिलता है। हाँ, प्रशाद कूड़े और पैरों में नहीं जाता, न ही समारोह के बाद बाल्टियाँ भर-भर के अन्न कूड़े में फैंका जाता है।